पीपली लाइव "इन्क्वायरिंग माइंड" की फिल्म है। हममें से कुछ लोग जो काम सोशल एक्टिविज्म, आरटीआई, ब्लॉग्स,फेसबुक,ट्विटर  के जरिए करने की कोशिश करते हैं,वो काम अनुषा रिजवी,महमूद फारुकी और उनकी टीम ने फिल्म बनाकर की है। इसलिए हम जैसे लोगों को ये फिल्म बाकी फिल्मों की तरह कैरेक्टर के स्तर पर खुद भी शामिल होने से ज्यादा निर्देशन के स्तर पर शामिल होने जैसी लगती है। फिल्म देखते हुए हमारा भरोसा पक्का होता है कि सब कुछ खत्म हो जाने के बीच भी,संभावना के बचे रहने की ताकत मौजूद है। इस ताकत से समाज का तो पता नहीं लेकिन खासकर मीडिया और सिनेमा को जरुर बदल जा सकता है। ऐसे में ये हमारे समुदाय के लोगों की बनायी गयी फिल्म है। इस फिल्म में सबसे ज्यादा इन्क्वायरिंग मीडिया को लेकर है,किसानों की आत्महत्या और कर्ज की बात इस काम के लिए एक सब्जेक्ट मुहैया कराने जैसा ही है।

 फिल्म की शुरुआत जिस तरह से एक लाचार किसान परिवार  के कर्ज न चुकाने, जमीन नीलाम होने की स्थिति,फिर नत्था(ओंकार दास) के आत्महत्या करने की घोषणा से होती है, उससे ये जरुर लगता है कि ये किसान समस्या पर बनी फिल्म है। लेकिन आगे चलकर कहानी का सिरा जिस तरफ मुड़ता है,उसमें ये बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि ये सिर्फ किसानों की त्रासदी और उन पर राजनीतिक तिगड़मों की फिल्म नहीं है। सच बात तो ये है कि ये फिल्म जितनी किसानों के कर्ज में दबकर मरने और आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाने की कहानी है,उससे कहीं ज्यादा बिना दिमाग के, भेड़चाल में चलनेवाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बीच से जर्नलिज्म के खत्म होने और जेनुइन पत्रकार के पिसते-मरते जाने की कहानी है। ये न्यूज चैनलों के एडीटिंग मशीन की उन संतानों पर बनायी गई फिल्म है जो बताशे चीनी के नहीं,खबरों के बनाते हैं। न्यूज चैनल्स किस तरह से अपनी मौजूदगी,गैरबाजिव दखल और अपाहिज ताकतों के दम पर पहले से बेतरतीब समाज और सिस्टम को और अधिक वाहियात और चंडूखाने की शक्ल देते हैं,फिल्म का करीब-करीब आधा हिस्सा इस बात पर फोकस है। लेकिन

 मेनस्ट्रीम मीडिया( यहां पर न्यूज चैनल्स) ने इसे किसान पर बनी फिल्म बताकर इसके पूरे सेंस को फ्रैक्चर करने की कोशिश की है। मंहगाई डायन को अपने काम का जान खूब निचोड़ा,संसद के अधिवेशन को इससे जोड़ा लेकिन वो इस फिल्म में मीडिया ऑपरेशन और ट्रीटमेंट के दिखाए जाने की बात को सिरे से पचा जाते हैं। इसकी बड़ी वजह है कि दुनिया की आलोचना करनेवाले चैनलों की आलोचना सिनेमा या नए माध्यम करें,ये उसे बर्दाश्त नहीं। चैनल्स इस बात को पचा नहीं सकते इसलिए वो फिल्म में मीडिया चैनल्स की बेशर्मी की बात को पचा गए। साथ ही जमकर आलोचना के लिए भी चर्चा नहीं कि तो उसकी भी बड़ी वजह है कि उनके पास ये कहने को नहीं है कि बनानेवाले को चैनल की समझ नहीं है। वो निर्देशक की बैकग्राउंड को बेहतर तरीके से जानते हैं। फिल्म "रण" (2010) की तरह तो इस फिल्म के विरोध में दिखावे के लिए ही सही पंकज पचौरी की पंचायत नहीं बैठी और न ही आशुतोष(IBN7) का रंज मिजाज खुलकर सामने आया। हां अजीत अंजुम को अपने फैसले पर जरुर अफसोस हुआ कि पहले बिना फिल्म देखे जो उऩ्होंने इसे बनानेवाले को सैल्यूट किया और फाइव स्टार दे दी,अब फेसबुक पर लिखकर भूल सुधार रहे हैं कि-बहुत से सीन जबरन ठूंसे गए हैं , ताकि टीवी चैनलों के प्रति दर्शकों के भीतर जमे गुस्से को भुनाया जा सके . दर्शक मजे भी लें और हाय - हाय भी करें . लेकिन अतिरंजित भी बहुत किया गया है । इन सबके बीच हमें हैरानी हुई एनडीटीवी इंडिया और उसके सुलझे मीडियाकर्मी विजय त्रिवेदी पर जिन्होंने पीपली लाइव को लेकर सैंकड़ों बोलते शब्दों के बीच एक बार भी मीडिया शब्द का नाम नहीं लिया। छ मिनट तो जो हमने देखा उसमें सिर्फ किसान पर बनी फिल्म पीपली लाइव स्लग आता रहा। हमें हैरानी हुई आजतक पर जिसने "सलमान को छुएंगे आमिर,वो हो जाएगा हीरा" नाम से स्पेशल स्टोरी चलायी लेकिन एक बार भी पीपीली लाइव के साथ चैनल शब्द नहीं जोड़ा( गोलमोल तरीके से मीडिया शब्द,वो भी व्ऑइस ओवर में)। न्यूज चैनलों की जब भी आलोचना की जाती है,वो इसमें मीडिया शब्द घुसेड़ देते हैं ताकि उसमें प्रिंट भी शामिल हो जाए और उन पर आलोचना का असर कम हो। ये अलग बात है कि खबर का असर में अपने चैनल का नाम चमकाने में रत्तीभर भी देर नहीं लगाते। इस पूरे मामले में पीपली लाइव फिल्म देखकर न्यूज चैनलों की जो इमेज बनती है वो इस फिल्म की कवरेज को लेकर बननेवाली इमेज से मेल खाती है। ऐसे में फिल्म के भीतर चैनल्स ट्रीटमेंट को पहले से और अधिक विश्वसनीय बनाता है। हमें अजीत अंजुम की तरह जबरदस्ती ठूंसा गया बिल्कुल भी नहीं लगता। हां ये जरुर है कि..

घोषित तौर पर मीडिया को लेकर बनी फिल्म "रण"की तरह पीपली लाइव ने मीडिया पर बनी फिल्म के नाम पर स्टार न्यूज पर दिनभर का मजमा नहीं लगाया, IBN7 को स्टोरी चलाने के लिए नहीं उकसाया,  आजतक को घसीटने का मौका नहीं दिया। लेकिन ये रण से कहीं ज्यादा असरदार तरीके से न्यूज चैनलों के रवैये पर उंगली रखती है। रण पर हमारा भरोसा इसलिए भी नहीं जमता कि उसमें चैनलों की आलोचना के वाबजूद तमाम न्यूज चैनलों से एक किस्म की ऑथेंटिसिटी बटोरी जाती है। जिस चैनल संस्कृति की आलोचना फिल्म रण करती है,वही दिन-रात इन चैनलों की गोद का खिलौना बनकर रह जाता है और सबके सब विजय मलिक( अमिताभ बच्चन) के पीछे भागते हैं। नतीजा फिल्म देखे जाने के पहले ही अविश्वसनीय और मजाक लगने लगती है। फिल्म के भीतर की कहानी इस अविश्वास को और मजबूत तो करती ही है,हमें रामगोपाल वर्मा की मीडिया समझ पर संदेह पैदा करने को मजबूर करती है। स्टार न्यूज पर दीपक चौरसिया के साथ टहलते हुए अमिताभ बच्चन भले ही बोल गए हों कि उन्होंने इस फिल्म के लिए चैनल को समझा,लगातार वहां गए लेकिन फिल्म के भीतर वो एक मीडिया प्रैक्टिसनर के बजाय क्लासरुम के मीडिया उपदेशक ज्यादा लगे। चैनल ऑपरेशन को जिसने गोलमोल तरीके से दिखाया गया, विजय मलिक चरित्र को जिस मीडिया देवदूत के तौर पर स्टैब्लिश किया है,ऐसे में ये फिल्म चैनल की संस्कृति की वाजिब आलोचना करने से चूक जाती है। इस लिहाज से कहीं बेहतर फिल्म शोबिज(2007) है जिसकी बहुत ही कम चर्चा हुई।
न्यूज चैनलों को लेकर लोगों के बीच जो बाजिव गुस्सा और अजूबे की दुनिया के तौर पर जो कौतूहल है उस लिहाज से सिनेमा में चैनलों को शामिल किए जाने का ट्रेंड शुरु हो गया है। फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी से लेकर शोबिज,मोहनदास,रण,एलएसडी और अब पीपली लाइव हमारे सामने है। दूसरी तरफ मीडिया पार्टनरशिप के तहत रंग दे बसंती,देवडी,गजनी,फैशन,कार्पोरेट जैसी तमाम फिल्में हैं जिसे देखते हुए सिनेमा के भीतर के न्यूज चैनल्स पर बात की जा सकती है। लेकिन इन सबके बीच एक जरुरी सवाल है कि न्यूज चैनलों के मामले में सिनेमा ऑडिएंस रिएक्शन को,चैनल संस्कृति को और आलोचना के टूल्स को कितनी बारीकी और व्यावहारिक तरीके से पकड़ पाता है? इस स्तर पर पीपली लाइव की न्यूज चैनलों की समझ बाकी फिल्मों से एकदम से अलग करती है।

पीपली लाइव चैनल संस्कृति की आलोचना के लिए किसी चैनल से अपने को ऑथराइज नहीं कराती है। हां ये जरुर है कि फिल्म की जरुरत के लिए एनडीटीवी 24x7 और IBN7 का सहयोग लेती है। ये फिल्म रण की तरह विजय मलिक के इमोशनल स्पीच की बदौलत चैनल के बदल जाने का भरोसा पैदा करने की कोशिश नहीं करती है। न ही रामगोपाल वर्मा की तरह पूरब( रीतेश देशमुख) को खोज लेती है जिसके भीतर एस पी सिंह या प्रणव रॉय की मीडिया समझ फिट करने में आसानी हो। मोहनदास( 2009) का स्ट्रिंगर दिल्ली में आकर चकाचक पत्रकार हो जाता है। लेकिन ये फिल्म ट्रू जर्नलिज्म का उत्तराधिकारी चुनकर हमें देने के बजाय चैनल को कैसे बेहतर किया जाए,ये सवाल ऑडिएंस पर छोड़ देती है। इस फिल्म के मुताबिक नत्था की संभावना शहर में है लेकिन राकेश जैसे पत्रकार की संभावना कहां है,इसका जबाब कहीं नहीं है। फिल्म, ये सवाल चैनल के उन तमाम लोगों पर छोड़ देती है जिन्होंने इसे एस संवेदनशील माध्यम के बजाय चंडूखाना बनाकर छोड़ दिया है। फिल्म को लेकर जिस इन्क्वायरी माइंड की बात हमने की, चैनल को लेकर ये माइंड हमें फिल्म के भीतर राकेश( नवाजउद्दीन) नाम के कैरेक्टर में दिखाई देता है। राकेश( नवाजउद्दीन) नंदिता( मलायका शिनॉय) से जर्नलिज्म को लेकर दो मिनट से भी कम के जो संवाद हैं,अगर उस पर गौर करें तो चैनल इन्डस्ट्री पर बहुत भारी पड़ती है। ये माइंड वहीं पीप्ली में ट्रू जर्नलिज्म करते हुए मर जाता है। ऐसे में ये फिल्म मोहनदास और रण के चैनल्स से ज्यादा खतरनाक मोड़ की तरफ इशारा करती है जहां न तो दिल्लीः संभावना का शहर है और न ही कोई उत्तराधिकारी होने की गुंजाइश है। फिल्म की सबसे बड़ी मजबूती कोई विकल्प के नहीं रहने,दिखाने की है।
कुमार दीपक( विशाल शर्मा) के जरिए हिन्दी चैनल की जमीनी पत्रकारिता के नाम पर जो शक्ल उभरकर सामने आती है,संभव है ये नाम गलत रख दिए गए हों लेकिन चैनल का चरित्र बिल्कुल वही है। अजीत अंजुम जिसे जबरदस्ती का ठूंसा हुआ मान रहे हैं,इस पर तर्क देने के बजाय एक औसत ऑडिएंस को एक न्यूज चैनल के नाम पर क्या और कैसी लाइनें याद आती हैं,इस पर बात हो तो नतीजा कुछ अलग नहीं होगा। नंदिता के चरित्र से जिस एलीट अंग्रेजी चैनलों का चरित्र उभरकर सामने आता है,वो राजदीप सरदेसाई की अपने घर की आलोचना से मेल खाती है। वो बार-बार नत्था के अलावे बाकी लोगों को कैमरे की फ्रेम से बाहर करवाती है। फ्रेम से बाहर किए गए लोग समाज से,खबर से हाशिए पर जाने पर की कथा है। ये अंग्रेजी जर्नलिज्म की सरोकारी पत्रकारिता है।  ऐसे में ये बहस भी सिरे से खारिज हो जाती है कि ये महज हिन्दी चैनलों की आलोचना है। हां ये जरुर है कि अंग्रेजी चैनल को ज्यादा तेजतर्रार और अपब्रिंग होते दिखाया गया है। इन सबके वाबजूद जिस किसी को भी ये फिल्म चैनलों की जरुरत से ज्यादा खिंचाई जैसा मामला लग रहा है,उसकी बड़ी वजह है कि इस फिल्म ने चैनलों की पॉपुलिज्म सडांध को बताने के लिए कॉउंटर पॉपुलिज्म मेथड अपनाया। उसने उसी तरह के संवाद रचे,शब्दों का प्रयोग किया,जो कि चैनल खबरों के नाम पर किया करते हैं। चैनल को अपने ही औजारों से आप ही बेपर्द हो जाने का दर्द है।
प्राइवेट न्यूज चैनलों को पिछले कुछ सालों से जो इस बात का गुरुर है कि वो देश चलाते हैं,उनमें सरकार बदलने की ताकत है,वो सब इस फिल्म में ऑपरेट होते दिखाया गया है। कई बार सचमुच पूरी मशीनरी इससे ड्राइव होती नजर आती है लेकिन जब चैनलों की हेडलाइंस खुद सलीम साहब(नसरुद्दीन शाह) की भौंहें के इशारे से बदलती हैं तो फिर खुद चैनल को अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए नहीं बचता।

चैनल के लिए गंध मचाना एक मेटाफर की तरह इस्तेमाल होता आया है। लेकिन फिल्म में ये गंध अपने ठेठ अर्थ गंदगी फैलाने के अर्थ में दिखाई देता है। नत्था के पीपली से गायब हो जाने की खबर के बाद से मौत का जो मेला लगा था,वो सब समेटा जाने लगता है। सारे चैनल क्र्यू और उनकी ओबी वैन धूल उड़ाती चल देती है। उसके बाद गांव को लेकर फुटेज है। ये फुटेज करीब 10-12 सेकण्ड तक स्क्रीन पर मौजूद रहती है- चारो तरफ पानी की बोतलें,गंदगी,कचरे। पूरा गांव शहरी संस्कार के कूड़ों से भर जाता है।...फिल्म देखने के ठीक एक दिन पहले मैं नोएडा फिल्म सिटी की मेन गेट के बजाय बैक से इन्ट्री लेता हूं। मुझे वहां का नजारा पीपली लाइव की इस फुटेज से मेल खाती नजर आती है। बल्कि उससे कई गुना ज्यादा जायन्ट। दिल्ली या किसी शहर में जहां हम गंदगी के मामले में किसी को भी ट्रेस करके कह नहीं सकते कि ये गंदगी फैलानेवाले लोग कौन है,नोएडा फिल्म सिटी के इस कचरे की अटारी को देखकर आप बिना कुछ किए उन्हें खोज सकते हैं? बल्कि थोड़ा टाइम दें तो काले कचरे की प्रेत पैकटों को ट्रेस कर सकते हैं कि कौन किस हाउस से आया? इस तरह पूरी की पूरी फिल्म लचर व्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौन के सवाल से जूझने और खोजने का नाटक करनेवाले चैनलों को सेल्फ एसेस्मेंट मोड(MODE) की तरफ ले जाती है। अब अगर महमूद फारुकी कहते हैं कि हम फिल्म तो बनाने चले थे किसान पर लेकिन बना ली तो पता चला कि हमने तो मीडिया पर फिल्म बना दी- तो ऐसे में चैनल के लोग इसे एक ईमानदार स्टेटमेंट मानकर ऑडिएंस को भरमाने की जगह किसान के बजाय मीडिया एनलिसिस नजरिए से फिल्म को देखना शुरु करें तो शायद इस फर्क को समझ पाएं कि होरी महतो के मर जाने और नत्था के मरने की संभावना के बीच भी कई खबरें हैं,कई पेचीदगियां हैं।
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11 Response to 'पीपली लाइवः चैनल की चंडूखाना संस्कृति पर बनी फिल्म'
  1. अनूप शुक्ल
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1281865056214#c5716674821249436412'> 15 August 2010 at 02:37

    अद्भुत सा लेख।

    अपनी बात को कहने और अपने सरोकार रखने के इस जज्बे की प्रशंसा करता हूं।

     

  2. Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1281892980635#c4277656112690316351'> 15 August 2010 at 10:23

    यार लिखते तो तुम(आप) गज़ब हो ही...
    जब राकेश, नंदिता से होरी के बारे में बताता है और कहता है कि वो भी मरा ही है न.. अपने ही खोदे हुये गड्ढे में.. सच पूछो तो बहुत शरम आती है अपने रंग रंगीले परजातन्तर पर.. पत्रकारिता में उपजे व्यापार पर.. वाहयात पीपली माई जैसी खबरों पर.. लालबहादुर और इंदिरा जैसी परियोजनाओ पर.. बगल में हँसते हुये दो मुम्बईया छोरों पर.. और खुद पर भी..

     

  3. PD
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1281898467954#c4258520652099352767'> 15 August 2010 at 11:54

    लेख पढ़ने के बाद इस सिनेमा को देखने कि उत्सुकता कम हो गई है.. फिर भी आज नहीं तो कल देखनी ही है इसे..

    तुम्हे आजकल पढते समय महसूस हो रहा है कि अजित अंजुम के पीछे लाठी-बल्लम लेकर पड़े हुए हो.. इसकी वजह समझ नहीं आ रही है? :)

     

  4. कुश
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1281929830021#c3783353517607393887'> 15 August 2010 at 20:37

    फिल्म देखकर मेरी पहली प्रतिक्रिया यही थी कि किसान पर नहीं ये तो न्यूज चैनल वालो पर बनायीं गयी फिल्म है.. पर अनुषा रिजवी ने किसानो की समस्या को भी बैकग्राउंड में नहीं जाने दिया.. महानगर और गाँवों के बीच की खाई को अंत में उल्टा लौटते हुए बखूबी दिखाया गया.. होरी महतो जैसा छोटा सा किरदार इतनी बड़ी छाप छोड़ गया.. यह सब उनकी निर्देशकीय क्षमता बखूबी दर्शाता है..

    पंकज वाली बाते कहना चाहता पर उसने कह दिया तो मैं रिपीट काहे करू.. :)

     

  5. Shiv
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1281932161819#c3976216598323403985'> 15 August 2010 at 21:16

    बहुत खूब लिखा है.

    मैंने फिल्म तो नहीं देखी है लेकिन प्रोमोज देखकर तो यही लगा है कि फिल्म मीडिया पर भी बनी है. अब मीडिया अपनी करामात से इसे छिपा ले जाए और स्वीकार न करे तो वह अलग बात है. वैसे भी मीडिया बहुत सारी बातें स्वीकार नहीं करता. फिल्म को न भी करे तो क्या?

    @प्रशांत
    मुझे लगता है बात अजित अंजुम के पीछे लाठी-बल्लम लेकर पड़ने की नहीं है. बात है मीडिया के पीछे पड़ने की. आखिर अजित अंजुम कितने जिम्मेदार हैं वह इसी बात से पता चल जाता है कि उन्होंने बिना देखे फिल्म को फाइव स्टार दे दिया. शायद सेवेन स्टार का चलन नहीं है नहीं तो उसे भी दे देते...:-)

     

  6. vimal verma
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1281940068649#c1502457164491103927'> 15 August 2010 at 23:27

    मैने अभी फ़िल्म देखी नहीं है पर आपके इस अद्भुत लेख को पढ़ने के बाद अलग नज़रिये से फ़िल्म को देखूंगा। अच्छे लेख के लिये आपका शुक्रिया। मीडिया में रहकर उसकी दशा और दिशा पर नज़र रखना भी मीडियाकर्मी का ही तो काम है।

     

  7. नीरज गोस्वामी
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1282023165269#c9047859013059411878'> 16 August 2010 at 22:32

    मैंने ये फिल्म देखी है और इसे देखने के बाद मुझे आपकी बात से असहमत होना मुश्किल लग रहा है...सही कहा है आपने...
    नीरज

     

  8. ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1282045623284#c1848176455154714085'> 17 August 2010 at 04:47

    विनीत जी,
    आरज़ू चाँद सी निखर जाए, ज़िंदगी रौशनी से भर जाए।
    बारिशें हों वहाँ पे खुशियों की, जिस तरफ आपकी नज़र जाए।
    जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।

    ………….
    इसे पढ़कर आपका नज़रिया बदल जाएगा ।

     

  9. डॉ .अनुराग
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1282198959545#c8914369295567312119'> 18 August 2010 at 23:22

    सच तो ये है की इस वक़्त हर चीज़ का बाज़ार है बस आपको इसके बेचने का तरीका आना चाहिए ...चाहे वो १५ अगस्त की देशभक्ति हो....या पुराने पति के लौटने पर पंचायत ओर धर्म के फैसले के बाद सरोकार के बहाने औरत का दुःख....

    बस स्वीकारने की हिम्मत होनी चाहिए

     

  10. Editor,www.apnimaati.com
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1282310711906#c6512634405532916308'> 20 August 2010 at 06:25

    नमस्ते आपकी और आपके ब्लॉग की चर्चा हमारे चर्चा मंच
    http://www.charchamanch.blogspot.com/
    पर कल सुबह प्रकाशित कर रहे हैं,जरुर पढ़ें ,सलाह सुझाव भी दीजिएगा.
    आपका माणिक -
    सम्पादक
    अपनी माटी
    17,Shivlok Colony,Sangam Marg,
    Chittorgarh-312001,Rajasthan
    Cell:-9460711896,9351278266(SMS),
    http://apnimaati.com

     

  11. राजीव जैन Rajeev Jain
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html?showComment=1282339482711#c8157362338852147167'> 20 August 2010 at 14:24

    पढ तो पहले भी लिया था
    पर कमेंट अब फिल्‍म देखने के बाद ही कर रहा हूं

    मेहतो का करेक्‍टर जबरदस्‍त है
    और आपने खूब लिखा
    बढिया

     

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