मोहल्लालाइव पर एक पोस्ट के जरिए वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार राजकिशोर को बिका हुआ बताया गया। राजकिशोर के बारे में लिखा गया कि वो विभूति-प्रसंग पर विभूति नारायण राय के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं। जिस विभूति के विरोध में देश के सैंकड़ों लेखक और लिटरेचरप्रेमी खड़े हैं,वो उनके बचाव के लिए खुलकर सामने आ गए हैं। राजकिशोर ने इस पोस्ट की प्रतिक्रिया में आज मोहल्लालाइव पर एक पोस्ट लिखी है और इन सारी बातों का जबाब देने के बजाय पाठकों से अतिरिक्त सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है। राजकिशोर की बातों का कोई भी तार्किक आधार नहीं है। लिहाजा उनकी इस पोस्ट से भावुक तो हुआ जा सकता है लेकिन उनके डीफेंस में आने की स्थिति नहीं बनती। एक पाठक की हैसियत से जिसने की साढ़े तीन रुपये लगाकर जनसत्ता खरीदी और उनके लेखों को पढ़ा,मैं अपनी असहमति दर्ज करता हूं। ये जितना राजकिशोर के एक पाठक की असहमति है,उससे कहीं ज्यादा एक उपभोक्ता का अधिकार। कमेंट की शक्ल में ये मोहल्लालाइव पर मौजूद है लेकिन यहां बतौर पोस्ट आपके सामने-
राजकिशोरजी,
आपके अलावा बाकी लोगों को भी मैंने शुरु से ही उनके बारे में जानने से कहीं ज्यादा पढ़ना पसंद किया है। अगर मुझे लगा कि इन्हें पढ़ जाना चाहिए। एक हद तक मैंने उसी आधार पर उनके प्रति धारणा भी बनायी। फिलहाल इस बहस में न जाएं कि एक घोर सामंती भी मुक्ति की अगर रचना करे तो आप उसके प्रति कैसी धारणा बनाएंगे,इस पर फिर कभी।
आपकी मेहनत,काबिलियत,लगातार अपने को खराद पर घिसकर कमाने की आदत पर न तो हमें पहले कभी शक था और न ही अभी है। आप या कोई भी जीवन में रोजी-रोजगार के लिए किस तरह के माध्यमों का चुनाव करता है,ये उसका व्यक्तिगत फैसला है। संभव है इस देश में जूते गांठकर या फिर लॉटरी,शेयर की टिकटें और फार्म बेचकर कविताएं लिख रहा हो,कहानियां लिखता हो। इसलिए आप इस बहस में इन बातों को शामिल न करें,बहुत होगा तो इससे हम पाठकों पर आपके प्रति भावुकता, संवेदनशीलता या सहानुभूति का रंग पहले से और गाढ़ा होगा। आप ही नहीं हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य में कमोवेश सभी लोग इसी तरह से आगे बढ़ते हैं,उसी तरह का जीवन जीते हुए आगे जाते हैं।..लेकिन आपके इस हवाले से कहीं भी ये साफ नहीं होता कि आप सिद्धांतों के बजाय मूल्यों को जब चुनते हैं तो उसका आधार क्या हुआ करता है? माफ कीजिएगा,बहुत ही बेसिक बातें जब अवधारणा की शक्ल में गढ़ी जाने लगती है तो बेचैनी महसूस होती है। हम आपसे वो मानसिक प्रक्रिया की व्याख्या नहीं जानना चाह रहे जिसके तहत आप सिद्धांतों औऱ मूल्यों को अलग कर पाते हैं, फिर सिद्धांतों को साइड रहने को कहते हैं और मूल्यों का अंगीकार करते हैं।
जिस पोस्ट में आपको बिका हुआ बताया गया और कहा गया कि आप विभूति नारायण के पक्ष में हस्ताक्षर करवा रहे हैं,आपने आज की पोस्ट में कहीं एक लाइन में भी इसका खंडन किया कि नहीं आप ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं? और अगर कर रहे हैं तो उसके पीछे मूल्यों की वो कौन सी ताकतें हैं जो आपको विभूति के पक्ष में खड़े होने के लिए ज्यादा प्रेरित करती है। जिसके आगे सिद्धांत दौ कौड़ी की चीज बनकर रह जाती है? आपने इस मुद्दे पर सीरियसली( महसूस भले ही कर रहे हों) बात करने के बजाय हम पाठकों पर इमोशनल अत्याचार कर गए। कब तक हिन्दी समाज के बाकी लोगों की तरह उद्धव की ज्ञान की गठरी को भावना के आगे दो कौड़ी की चीज करार देते रहेंगे,ज्ञान की गठरी के आंधी में तब्दील होने और फिर कोरी भावुकता,छद्म की टांट उड़ने की भी तो कहानी बताया करें।
राजकिशोरजी,माफ कीजिएगा,अनुभव और समझदारी के स्तर पर मैं आपके आगे बहुत ठिगना हूं लेकिन इतना जरुर समझ पाता हूं कि कोई भी लेखक या पत्रकार किसी घोषणा के तहत नहीं लिखता कि वो कोई सिद्धांत गढ़ने जा रहा है। लिखते वक्त उसके सामने मूल्य ही सक्रिय रहते हैं जो मूल्य वगैरह बातों को बकवास मानते हैं उनके आगे संपादक की डिमांड,मानदेय आदि। लेकिन लिखते हुए वो मूल्य या फिर डिमांड एंड सप्लाय का लेखन एक समय के बाद एक सैद्धांतिक आकार तो ले ही लेता है न। अब ये सिद्धांत किसी भी लेखक के चुनाव करने या न करने का मसला नहीं रह जाता। ये एक ठोस आधार के तौर पर पाठकों के सामने काम करने लग जाते हैं। अब जो लेखक कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का भावानुवाद,उसके सांचे में ही कविता,कहानी,उपन्यास लिखते हुए विचारों की वरायटी गढ़ रहा हो,उसकी बात थोड़ी अलग जरुर है.इसमें भी सिद्धांत का एक आधार तो जरुर बनता है जो कि उसे बाकी के लोगों से अलग करता है।
आपको पढ़ते हुए बहुत मोटी बात है जो कि किसी भी आपके रोजमर्रा लेख और रोजमर्रा पाठक के पढ़ने के दौरान समझ आ जाती है आप स्त्री मामले को लेकर काफी संजीदा है। आप भले ही इसे सिद्धांत न मानें लेकिन आपको देखने-समझने का एक सैद्धांतिक आधार स्त्री लेखन तो है ही न। अब आपको यहां आकर बताना होगा कि आपने किस मूल्य के तहत( सिद्धांत को तो पहले ही खारिज कर चुके है) विभूति-प्रसंग में जो कुछ भी हुआ,उसे आप किस मूल्य के तहत देखते हैं,उसके पक्ष में हैं? ये बहुत ही सपाट बात है जिसके लिए मुझे नहीं लगता कि आपको आरोपों की फेहरिस्त जुटाकर मामले को भटकाने की जरुरत होगी। वैसे लेख की शक्ल में तो पाठक कुछ भी पढ़ ही लेगा लेकिन यहां आकर आपको इसे लेख का मुद्दा नहीं एक सवाल के तौर पर लेना चाहिए।..सबकुछ छोड़कर और अंत में प्रार्थना की मोड में आ जाना तो हिन्दी समाज की आदिम प्रवृत्ति है ही जिससे आप भी न बच सकें।
आपसे सवाल करने की हैसियत मेरी बस इतनी है कि कई मर्तबा आपके लेख के लिए मैंने साढ़े तीन रुपये की जनसत्ता खरीदी है और मैंने जिस लेखक के लिए पैसे खर्च किए हैं,उनसे ये जानने का अधिकार तो रखता ही हूं। हिन्दी में ये बदतमीजी समझी जाएगी लेकिन बाजार की भाषा में ये एक उपभोक्ता अधिकार है।
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4 Response to 'हम पर इमोशनल अत्याचार मत कीजिए राजकिशोरजी'
  1. ओशो रजनीश
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post.html?showComment=1282902544343#c2894638379839614288'> 27 August 2010 at 02:49

    अच्छा लेख है ...
    http://oshotheone.blogspot.com/

     

  2. honesty project democracy
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post.html?showComment=1282902544344#c1461498653590683424'> 27 August 2010 at 02:49

    सार्थक और सराहनीय प्रस्तुती ...सच्ची अभिव्यक्ति ...

     

  3. प्रभात रंजन
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post.html?showComment=1282917393493#c2208383529157198386'> 27 August 2010 at 06:56

    राजकिशोर जितनी सफाई दे रहे हैं उतने ही दयनीय होते जा रहे हैं. हमेशा सच के पक्ष में खड़ा रहनेवाला पत्रकार राजकिशोर आज गलत का साथ देते हुए शर्मिन्दा भी नहीं हो रहा है. लगता है राय के साथ जुड़ने की पहली शर्त बेशर्म होना ही है. सही बात है- हमें एक उपभोक्ता होने के नाते यह जानने का पूरा हक है कि वह जवाब देने की बजाय इमोशनल अत्याचार क्यों कर रहे हैं. आपने बहुत अच्छा लिखा है विनीत जी.

     

  4. अनूप शुक्ल
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post.html?showComment=1283910226812#c5878728683678037699'> 7 September 2010 at 18:43

    अच्छा है।
    राजकिशोरजी की क्या सोच है इस मामले में पता नहीं लेकिन उनका विभूति नारायण जी के समर्थन में दस्तखतिया अभियान लचर बात है।

    इससे अच्छा तो यह होता कि इस मुद्दे को लेकर स्त्री अस्मिता, भाषा आदि-इत्यादि पर बहस चलाते और उसी में सब इधर-उधर कर देते।

    अच्छा लिखा है लेकिन साढ़े तीन रुपये की जनसत्ता दो बार खरीदी गयी। नुकसान हुआ न साढ़े तीन रुपये का।

     

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