इस तरह टुकड़ों-टुकड़ों में,अलग-अलग जगहों पर हिन्दी को मरी हुई क्यों करार देते हैं? हिन्दी के विकास के नाम पर ऐश करने का काम जब सामूहिक तौर पर होता आया है तो उसके नाम की मर्सिया पढ़ने का काम क्यों न सामूहिक हो? इस प्रोजोक्ट में बेहतर हो कि एक नीयत जगह पर उसके नाम का मकबरा बनाया जाए जहां 14 सितंबर के नाम पर लोग आकर अपनी-अपनी पद्धति से मातम मनाने,कैंडिल जलाने का काम करें। कोशिश ये रहे कि इसे अयोध्या-बाबरी मस्जिद की तरह सांप्रदायिक मामला न बनाकर मातम मनाने की सामूहिक जगह के तौर पर पहचान दिलाने की कोशिश हो। वैसे भी पूजा या इबादत की जगह सांप्रदियक करार दी जा सकती है, मातम मनाने के लिए इसे सांप्रदायिक रंग-रोगन देने की क्या जरुरत? बेहतर होगा कि इसे कबीर की तरह अपने-अपने हिस्से का पक्ष नोचकर मंदिर या मस्जिदों में घुसा लेने के बजाय खुला छोड़ दिया जाए। देश में कोई तो एक जगह हो जो कि शोक के लिए ही सही सेकुलर( प्रैक्टिस के स्तर पर ये भी अपने-आप में विवादास्पद अवधारणा है लेकिन संवैधानिक है इसलिए) करार दी जाए। बस मूल भावना ये रहे कि ये जगह उन तमाम लोगों के लिए उतनी ही निजी है जितनी कि किसी के सगे-संबंधी के गुजर जाने पर उसके कमरे की चौखट,तिपाई,चश्मा,घाघरा जिसे पकड़कर वो लगातार रोते हैं।

 जिनके लिए हिन्दी बाजार के हाथों लगातार कुचली जाकर,पूंजीवाद के माध्यम से छली जाकर और अब इंटरनेट के दंगाइयों के संसर्ग में आकर अधमरी या पूरी तरह मर गयी है,उन्हें इसके विकास का राग अलपाने और जर्जर कोशिश करने के बजाय इसकी मौत की विधि-आयोजनों में शामिल हो जाना चाहिए। हिन्दी दिवस के नाम पर जबरदस्ती के उत्सवधर्मी रंगों के बैनर टांगकर अंदर सेमिनार हॉलों में टेसू बहाने से अच्छा है कि वे घर बैठकर सादगी से मातम मनाने का काम करें। कुछ नहीं तो कम से कम सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये तो बचेंगे। बाकी जिन्हें लगता है कि हिन्दी का लगातार विस्तार हो रहा है,वो ऐसी बातें सेमिनार और आयोजनों के बूते ऐसा नहीं कह रहे बल्कि वो अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा लगातार कर रहे हैं। हमारी अपील बस इतनी भर है कि जिन्हें हिन्दी मरती हुई नजर आती है,खासकर सालभर में केवल एक सप्ताह तक,जो पेशेवर तौर पर छाती पिटनेवाले लोग हैं,उन्हें इसे बेहतर करने के प्रयास आज से ही छोड़ देने चाहिए। वेवजह में हर साल उम्मीदों का पखाना छिरियाते हैं और अगले साल तक जिसकी बदबू अकादमियों में बजबजायी रहती है,जिसे ठोस रुप देने के लिए लाखों के खर्चे होते हैं।

कुछ साल तक हिन्दी जिस हाल में है,उसे उसी हाल में छोड़कर देखिए,व्यक्तिगत स्तर पर जो लोग जैसा कर रहे हैं केवल उन्हें ऐसा करने की छूट दे दें,फिर देखिए कि हिन्दी को चील-कौए खाते हैं या फिर हिन्दी सद्यस्नात: स्त्री( तुरंत नहाकर बाथरुम से निकली हुई) की तरह खिलकर हमारे सामने आती है।

मेरी अपनी समझ है कि हिन्दी की सेहत अव्वल तो पहले से बेहतर हुई है,पहले जो रघुवीर सहाय की दुहाजू बीबी हुआ करती थी,अब ज्यादा स्लीम ट्रीम हुई है। अब अगर ये अनमैरिड है तब तो सौन्दर्य के सैंकड़ों पैमाने उस पर अप्लाय कर दें लेकिन विवाहित भी है तो उसका रुप उन विवाहित स्त्रियों की तरह है जो रियलिटी शो के  फैशन शो या डांस कॉम्पटीशन में शामिल होने के लिए कुलांचे भर रही है। जिस बाजार की हिन्दी समाज के अधिकांश आलोचक पानी पी-पीकर गरिआते हैं,उसी बाजार ने इसे एक प्रोफेशनल एटीट्यूड दिया है। अब वो अपने दम पर अपनी पेट भरने की हैसियत में आने लगी है। अब वो संस्थानों के पराश्रित नहीं है। आप चाहें तो हिन्दी की इस बदलती हालत पर स्त्री विमर्श के डॉमेस्टिक लेवर और मार्केट लेवर कॉमडिटी के तहत विश्लेषित कर हिन्दी की सेवाभावना को एक ठोस मनी वैल्यू निकाल सकते हैं। घरेलू हिंसा और सांस्थानिक जबरदस्ती से स्त्रियों के मुक्त होने की तरह ही आज की हिन्दी को समझ सकते हैं।

वर्चुअल स्पेस के जिन बलवाइयों से हिन्दी के गिद्ध-जड़ आलोचकों को खतरा है,उन वलवाइयों के पास इतनी तमीज तो जरुर है कि जिस हिन्दी के साथ वो खाते-पीते,डेटिंग करते हैं,उसे हमराज मानते हैं,उसकी लुक्स को फिट रखे। वर्चुअल स्पेस के वलवाईयों ने हिन्दी को इसी रुप में विस्तार दिया है जो कि ग्लोबल स्तर पर जाकर भी मैं हिन्दी हूं कहकर शान से अपना परिचय दे सकें। फिलहाल मैं इस बहस में बिल्कुल नहीं पड़ना चाहता कि ऐसा करते हुए इन लोगों ने वर्तनी,शिल्प,संरचना और शब्दों के स्तर पर कितना कबाड़ा किया है,सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि आज अगर हिन्दी दबी जुबान में बोलनेवाली भाषा एक हद तक नहीं रह गयी है( इसे ज्यादा मजबूती से कहना ज्यादती होगी) जिसकी क्रेडिट खुद हिन्दी के गिद्ध-सिद्ध आलोचक भी लेने में नहीं चूकते तो इसमें इनलोगों के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। संभव है कि इस स्पेस पर लिखनेवाले लोगों ने अज्ञेय की तरह प्रतीक और बिंब न गढ़े हों,मुक्तिबोध की तरह कोई सभ्यता-समीक्षा न प्रस्तावित की हो, निराला की तरह छंदों को नहीं साधा हो लेकिन मौजूदा परिवेश में उसने हिन्दी के भीतर जितनी कॉन्फीडेंस पैदा की है,उस पर गंभीरता से बात करने की जरुरत है। तो भी..

जिस किसी को हिन्दी भ्रष्ट होती हुई,छिजती हुई नजर आती है तो यकीन मानिए उसकी ये हालत सबसे ज्यादा उन्हीं लोगों के हाथों हुई है जिनके उपर इसे सेहतमंद रखने का जिम्मा डाला गया या फिर उन्होंने रोजी-रोटी के चक्कर में ये जिम्मेदारी अपने आप ले ली। अभी सप्ताह भर भी नहीं हुए कि राजभाषा समिति की रिपोर्ट अंग्रेजी में आने पर भारी हंगामा मचा। पिछले साल इस समिति से संबंद्ध पी.चिदमबरम के अंग्रेजी में भाषण दिए जाने पर छीछालेदर हुई। हिन्दी को बेहतर बनानेवाले पहरुओं ने इसे एक सहज भाषा के तौर पर विस्तार देने के बजाय इसे अपने कुचक्रों से एक अंतहीन समस्या के तौर पर तब्दील कर दिया। अगर किसी राजनीतिक विश्लेषक के आगे आतंकवाद,कश्मीर जैसी समस्याएं,तमाम प्रशासनिक सक्रियताओं के वावजूद एक अंतहीन समस्या जैसी जान पड़ती है तो भाषा पर बात करनेवालों के लिए हिन्दी की समस्या कुछ इसी तरह है। हिन्दी के पहरुओं ने इसका बंटाधार क्रमशः दो स्तरों पर किया है। एक तो ये कि उन्होंने एक जड़ समझ विकसित कर ली है कि हिन्दी का मतलब अधिक से अधिक तत्सम शब्दों का प्रयोग है.अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी अनुवाद है और दूसरा कि ये एक ऐसी भाषा है जिसका काम अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं को ठिकाने लगाने का है। इन पहरुओं ने ये काम शब्दकोश बनाने,प्रशासनिकों कामों में हिन्दी प्रयोग करने,दिशा-निर्देश जारी करने से लेकर अनुवाद करने तक में किया है। नतीजा ये हुआ कि जिस हिन्दी को सबसे सहज भाषा बननी चाहिए वो लोगों से दूर होती चली गयी और बाबुओं की भाषा बनकर रह गयी। इसका एक सिरा इस रुप में विकसित हुआ कि हिन्दी का ये रुप मजाक उड़ाने और इससे तौबा कर लेने के तौर पर स्थापित होता चला गया। टेलीविजन चैनलों पर ऐसी हिन्दी को लेकर वकायदा लॉफ्टर शो आने लगे हैं। दूसरा कि

निबटाने वाली भाषा के तौर पर शक्ल देने की वजह से ये आपसी मतभेदों को और अधिक उजागर करता रहा। इस बीच बोलचाल,बाजार,मनोरंजन,माध्यमों के बीच हिन्दी जिस रुप में विकसित होती रही उसे हिन्दी के सरकारी पहरुओं और आलोचकों ने सीरियसली नहीं लिया। वे सिर्फ हिन्दी के बीच से अंग्रेजी के शब्द बीन-बीनकर फेंकने में ही लगे रहे जबकि सवाल हिन्दी के बीच अंग्रेजी या दूसरी भाषाओं के शब्दों का आना नहीं है,उन शब्दों के प्रयोग की स्वाभाविकता को लेकर है। अप्रतलित हिन्दी शब्दों का जबरिया इस्तेमाल और पॉपुलर हिन्दी शब्दों की जगह वेवजह अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग इसी राजनीति की शिकार हुई है। इसलिए.

जरुरी है कि हर साल हिन्दी दिवस के नाम पर सप्ताहभर पहले से मंत्रालयों औऱ तमाम सरकारी दफ्तरों के आगे उत्सवधर्मी रंगों के बैनर टांगने और अंदर जाकर मर्सिया पढ़ने का जो काम चला आ रहा है,उसकी प्रकृति पर बात हो। ये तय हो कि ये आयोजन हिन्दी के मर जाने पर आयोजित होती है,उसके जिंदा रखने की कोशिशों के लिए होती है,उसके विस्तार को दिशा देने के लिए होती है या फिर हिन्दी के चंद खुर्राट पेशेवर लिफाफादर्शी लोगों के थकाउ भाषणों में प्रसव की गुंजाईश आजमाने के लिए होती है? अगर ये हिन्दी के नाम का सिलेब्रेशन है तो माफ कीजिएगा इसकी शक्ल ऐसी बिल्कुल नहीं हो सकती जो हमें हिन्दी पखवाड़े में दिखाई देती है।.ये बहुत ही व्यक्तिगत स्तर पर अपने आप सिलेब्रेट करनेवाली चीज है या फिर बहुत हुआ तो छोटे-छोटे समूहों में कविता,कहानी,संस्मरणों के अंशों को पढ़कर और उनके शब्दों के बीच अर्थों में डूबकर...
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7 Response to 'हिन्दी दिवसः हिन्दी के नाम का अब मकबरा बनाइए'
  1. प्रभात रंजन
    http://test749348.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html?showComment=1284446592983#c4871884919954592750'> 13 September 2010 at 23:43

    आप सही कह रहे हैं हिंदी की हालत पहले से बेहतर हुई है. हिंदी अब संघर्ष की भाषा नहीं रह गई है वह बाज़ार में बेहतर समायोजन की भाषा बन चुकी है. स्यापा करनेवाले दरअसल उसमें अपने दरकिनार होने का रोना रो रहे हैं.

     

  2. anjule shyam
    http://test749348.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html?showComment=1284471465419#c2397719856811719593'> 14 September 2010 at 06:37

    वर्चुवल दुनिया ही अब हिंदी को सहेजेगी और संभालेगी भी ...चाहें हिंदी के तम्मं दिगज कितना हूँ आँख नक् रगड़ लें...हाँ गर हिंदी इन महानुभावों के भरोशे रही तो सच में मर्सिया पढना लाजमी हो जायेगा..

     

  3. shridharam
    http://test749348.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html?showComment=1284481915476#c531641909244758895'> 14 September 2010 at 09:31

    नि:सन्देह हिन्दी का दायरा बढा है, पर अभी भी "सरकारी परिभाषा ढलाई विभागो" मे उसकी कराह सुनी जासकती है.

     

  4. Kewal Ram
    http://test749348.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html?showComment=1284482155053#c3661600721379211849'> 14 September 2010 at 09:35

    Hindi ki bastvik sthiti ka jayja, or Hindi bhasha ke prati spasth dristikon aapke iss lekh main jhalkta hai, kisi baat ko spasthta se kehna koi aapse sikhe.

     

  5. मनोज कुमार
    http://test749348.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html?showComment=1284490098940#c5270614375334253234'> 14 September 2010 at 11:48

    राजभाषा हिन्दी दिवस के अवसर पर सारगर्भित और सार्थक पोस्ट।

     

  6. राजेश चड्ढ़ा
    http://test749348.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html?showComment=1284539662300#c5917198003011738800'> 15 September 2010 at 01:34

    सच ही तो है,सिर्फ़ बहस में अपना नाम दर्ज करवाना ....जिस का मक़सद है उसे ही हिंदी का विस्तार दिखाई नहीं देता, वही हिंदी में... हिंदी को कोस रहा हैं.

     

  7. Editor,www.apnimaati.com
    http://test749348.blogspot.com/2010/09/blog-post_13.html?showComment=1284569882458#c6019804974859313359'> 15 September 2010 at 09:58

    I like it.

     

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