टेलीविजन पर मेरा लेक्चर आज

Posted On 19:06 by विनीत कुमार |



साभारः मोहल्लाlive
टेलीविजन विमर्श के साथ एक दिलचस्प विरोधाभास है। पहले तो आलोचकों ने पूरी ताक़त से इसे इडियट बॉक्स घोषित कर दिया। उसके बाद इस बात की संभावना की तलाश करने में जुट गये कि इससे सामाजिक विकास किस हद तक संभव हैं। इन दोनों स्थितियों में टेलीविजन की भूमिका और उसके चरित्र पर बहुत बारीकी से शायद ही बात हो पा रही हो। बदलती परिस्थितियों के बीच भी विमर्श का एक बड़ा हिस्सा जहां टेलीविजन को पहले से औऱ अधिक इडियट साबित करने में जुटा है, वहीं इसमें संभावना की बात करने वाले लोग जबरदस्ती का तर्क गढ़ने में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहते। नतीजा हमारे सामने है, अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग। लेकिन विमर्श के नाम पर अपने-अपने पाले में तर्क गढ़ने की कवायदों के बीच ऑडिएंस क्या सोचता है, उसकी समझ किस तरह से बदल रही है, इस पर बहुत गंभीरता से बात नहीं होने पाती है। मार्शल मैक्लूहान ने साठ के दर्शक में एक बार जो कह दिया कि टेलीविजन ठंडा माध्यम है, इससे कल्पना और विचार पैदा नहीं होते – वो आज भी किसी न किसी रूप में कायम है। हिंदी में इस मान्यता को इतना विस्तार मिला कि टेलीविजन पर बात करने का मतलब ही हो गया कि ये हमें निष्क्रिय बनाता है, हमारी समझ को कुंद करता है। हम उदासीन होते चले जाते हैं। इसलिए बेहतर है कि देश भर के टेलीविजन को गंगा में विसर्जित कर दिए जाएं।

दूसरी तरफ मार्केटिंग और कनज्‍यूमरिज्म के भीतर ये बहस जोरों पर है कि अब कनज्‍यूमर चीज़ों का सिर्फ उपभोग ही नहीं करता बल्कि वो इसका उत्पादक भी है। अब वो तय करता है कि वस्तुओं का उत्पादन किस तरह से हो। टेलीविजन में संभावना बतानेवाले लोगों ने इस तर्क को अपनाते हुए ऑडिएंस को निष्क्रिय और उदासीन बताने के बजाय इसे टेलीविजन का डिसाइडिंग फैक्टर बताते हैं। टेलीविजन की पूरी बहस, जो टीआरपी के गले में जाकर अटक जाती है वो एक नये मुहावरे को जन्म देती है – लोग जो देखना चाहते हैं, टेलीविज़न वही दिखाता है। इसमें कोई क्या करे? ऑडिएंस अगर निष्क्रिय नहीं है, तो टीआरपी के भीतर उसकी सक्रियता किस हद तक है, इस पर नये सिरे से विचार करने की ज़रूरत है। इसके साथ ही ये सवाल भी कि टेलीविज़न का कोई सचमुच एक्टिव ऑडिएंस हो सकता है?

दिल्ली विश्वविद्यालय से टेलीविजन की भाषिक संस्कृति पर शोध कर रहे विनीत कुमार सफर और सीएसडीएस सराय के संयुक्त प्रयास से हो रहे वैकल्पिक मीडिया वर्कशॉप (दिसंबर 01-03) में इन्हीं सवालों के आसपास अपनी बात रखेंगे। Watching Television : From Passive Consumption Of Sounds And Images To An Active Prosumer/Audience? विषय के तहत बातचीत के जरिये वो उन संभावनाओं की तरफ इशारा करेंगे जहां एक ऑडिएंस की हैसियत से टेलीविजन में भागीदारी की जा सके। इससे पहले इस वर्कशॉप में प्रिंट मीडिया के सत्र में वैकल्पिक मीडिया पर आलोचनात्मक निगाह पर अभय कुमार दुबे, Do Activism And Development Journalism Have To Be Boring? पर शिवम विज, Marginalised And Media पर दिलीप मंडल अपनी बात रख चुके हैं। टेलीविजन के साथ कल वेब जर्नलिज्म पर भी एक सत्र होगा। तीसरे यानी कि अंतिम दिन कम्युनिटी रेडियो पर विस्तार से चर्चा होगी।

समय 10.30 बजे
स्थान सीएसडीएस-सराय, 26, राजपुर रोड, दिल्ली
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4 Response to 'टेलीविजन पर मेरा लेक्चर आज'
  1. निर्मला कपिला
    http://test749348.blogspot.com/2009/12/blog-post_01.html?showComment=1259726291681#c4430778799293355521'> 1 December 2009 at 19:58

    बहुत बहुत बधाई

     

  2. ज़ाकिर अली ‘रजनीश’
    http://test749348.blogspot.com/2009/12/blog-post_01.html?showComment=1259755955762#c4665235137960791338'> 2 December 2009 at 04:12

    बधाई हो बधाई।
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    अदभुत है हमारा शरीर।
    क्या अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद सफल होगा?

     

  3. काजल कुमार Kajal Kumar
    http://test749348.blogspot.com/2009/12/blog-post_01.html?showComment=1259795667814#c8836333478861619677'> 2 December 2009 at 15:14

    टी वी आखिर टी वी है
    झगड़ा क्योंकर

     

  4. शरद कोकास
    http://test749348.blogspot.com/2009/12/blog-post_01.html?showComment=1260039480120#c4536850148557445025'> 5 December 2009 at 10:58

    इस तरह के विमर्श होने ही चाहिये ।

     

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