मैंने तुम्हें देखते ही
अंदाजा लगा लिया था कि
हो न हो तुम निभाकर आयी हो
एक प्रमिका की किरदार
एक ऐसे व्यक्ति के साथ जो
कहता है अपने को तुम्हार प्रमी
नहीं,नहीं तुम्हारा पहला प्रेमी
लेकिन है वो हवशी,
धरती का सबसे बड़ा हवशी।
जिसकी कठोर हाथें
गयी होंगी तुम्हारे कोमल होठों के उपर
और फिर उसने वही सब कुछ किया होगा
जैसे एक बच्चा मचल उठता है
रंगीन कागज में लिपटे खिलौने को देखकर
टुकड़े-टुकड़े कर डालता है थर्मकॉल के पीस को
जिसके भीतर खिलौने के,
लम्बे समय तक सेफ रहने की गारंटी थी।
चिथड़े-चिथड़े कर डालता है उस रंगीन कागज को
जिसमें लिपटकर खिलौना
खिलौने से भी बहुत कुछ कीमती चीज
जान पड़ता था।
लेकिन बच्चे ने थर्मकॉल को टुकड़े-टुकड़े
क्यों कर डाला
चिथड़े-चिथड़े क्यों कर डाले उस रंगीन कागज को।।

बच्चा भी समझता है,समाज की भाषा
कल को उसे भी स्पेल करना है
टेक इट इजी,टेक इट इजी
सब चलता है, क्योंकि
क्योंकि
तुम लड़की हो न।।..

( आज एमए के पुराने नोट्स खोजते हुए ये कविता मुझे अपनी एक नोटबुक से मिली। एमए प्रीवियस के दौरान लिखी गयी कविता। तब मैं हिन्दू कॉलेज,दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एमए कर रहा था। पैसे की तंगी होती थी जो कि स्वाभाविक से ज्यादा मेरी खुद की बनायी थी। घरवाले कहते-यूपीएससी करो,मीडिया में चले जाओ,फैशन डिजाइनिंग करो, जितने पैसे लगेगें मैं दूंगा लेकिन ये साहित्य छोड़ दो। साहित्य नाम से मेरे पापा को हिन्दी के वो सारे मास्टर और लेक्चरर ध्यान में आ जाते जो होली में कपड़े लेते तो उसके पैसे दिवाली में चुकाते। पान की पिक मारते वो तिवारीजी, मिश्राजी न जाने कितने लोगों का बतौर रेफरेंस देते कि- पढ़े तो वो भी थे साहित्य क्या कर लिए। पापा को कभी भी मोटी तनख्वाह लेनेवाले और समारोहों में आलोचना कर्म में रत हिन्दीवालों का ध्यान नहीं आता। मैं बस साहित्य के तर्क में सिर्फ इतना ही कह पाता- कमाई इस फील्ड में भी है पापा, लेक्चरर बनने पर फिजिक्सवाले से कम सैलरी थोड़े ही मिलेगी।
खैर, हिल-हुज्जत करके दिल्ली आ गया। दिल्ली में मेरे सहित दो-तीन लोगों ने वो सबकुछ किया जिसे कि स्थापित साहित्यकार हो जाने पर मंच से याद करते हुए अपने को जमीन से जुड़ा हुआ साहित्यकार साबित करने में सहुलियत हो। हम डिबेट में जाते, क्लास छोड़कर एक्सटेम्पोर बोलने चले जाते, दो-तीन कविताएं साथ लेकर घूमते और महौल के हिसाब से उसका पाठ करते। मेरे बाकी दोस्तों से मेरी समझ बिल्कुल अलग थी। मेरे हिसाब से कविता, कहानी, डिबेट करने में कोई अंतर नहीं था। असल बात थी कि माल कहां से मिलता है। इसलिए हमलोग मौका देखते ही सब कुछ करते। कविता भी वरायटी, रेंज और खपत के हिसाब से ही लिखते। महान विचार तब सिर्फ कोर्स की किताबों और हमारे नोट्स में ही कैद होते।
उस दिन पता चला, जानकीदेवी कॉलेज में कविता पाठ प्रतियोगिता है। हिन्दू कॉलेज में कुछ सीनियर अपने को तोप कवि मानते, हमें फुद्दू समझते। रास्ता पता नहीं था, इसलिए मेंटली टार्चर होने की बात जानकर भी उन्हीं के साथ हो लिए। सबों ने बड़ी-बड़ी बातें की। मार, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, अपसंस्कृति और कुछ तो अज्ञेय के डमी ही हो गए। मैंने देखा, चार में से तीन जज महिला टीचर है। बस, इतना ही कहा- आज तक विकास के नाम पर स्त्री को बाजार मिला है, समाज नहीं, इसके लिए उसे लड़ना होगा औऱ पढ़ दी वो कविता जिसे आप उपर पढ़ चुके हैं। मैंने जितनी भी कविताएं लिखी हैं, वो सब प्रतियोगिता औऱ पैसे लेने के लिए । एमए के बाद प्रतियोगिता में जाने योग्य नहीं रहे सो लिखना छोड़ दिया, हंसराज के बंदों ने तो डायरी भी मार ली। खैर,
जानकीदेवी में मुझे इस कविता के लिए छह सौ रुपये मिले और सीनियर्स को सिर्फ शाबासी। एक जज ने कहा कि बाकी की भी कविताएं अच्छी थी लेकिन विनीत ने पूरे सिचुएशन को समझते हुए कविता पढ़ी और हमलोगों को अच्छी लगी। वीमेंस डे में सात-आठ दिनों का ही फासला था।
उस छह सौ रुपये में सबसे पहले मैंने घंटाघर से दो सौ रुपये में एक कूकर खरीदा, यूनाइटेड ऑरिजनल लिखा हुआ। आज वो मेरा पुराना कूकर दीपा की नयी गृहस्थी बसाने में अपनी भूमिका अदा कर रहा है। फिर दो सौ पच्चीस रुपये में सेकण्ड हैंड गैस चूल्हा विद तीन किलो के सिलेंडर। जिससे खरीदा,उसकी गर्लफ्रैंड ने अपने यहां से इंडेन का बड़ा वाला गैसे दे दिया था। चूल्हा तो रामलखन पहले नेहरु विहार,फिर पुणे ले गया लेकिन सिलेंडर हॉस्टल के कमरे में छापा पड़ने से एक दोस्त के यहां रखवा दिया है। बाकी पैसे से वेद ढाबा,कमलानगर में मैं और मेरे स्वनामधन्य सीनियर कवियों ने जमकर खाना खाया था।
कविता ने मेरे दोस्तों को अक्सर महान होने का एहसास कराया, ये एहसास उनके बीच आज भी जिंदा है और मुझे एक समय के लिए भौतिक रुप से समृद्ध जिसकी प्रासंगिकता जरुरत के हिसाब से अब खत्म हो गयी है।।
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12 Response to 'क्योंकि तुम लड़की हो न,६०० रुपये मिले थे इस कविता के'
  1. अविनाश वाचस्पति
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237043520000#c2314747127925723360'> 14 March 2009 at 08:12

    अच्‍छा किया विनीत

    कविता तभी कैश करा ली

    अब अगर मिलते 600

    तो एक कुकर भी नहीं आ पाता।

    तब तो खाया भी और खाना पकाने का

    चूल्‍हा भी चाहे पुराना ही

    और खाना भी मित्रों के साथ

    वाह भाई वाह

    अच्‍छा किस्‍सा सुनाया

    नवोदित कवियों के लिए खोल दी है नई राह।

     

  2. सुशील कुमार छौक्कर
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237045500000#c6998023458470211797'> 14 March 2009 at 08:45

    विनीत भाई ऐसे ही और रचनाएं ढूढ निकालईए। बहुत उम्दा लिखी है।

     

  3. इष्ट देव सांकृत्यायन
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237046700000#c2003122257066383219'> 14 March 2009 at 09:05

    कविता तो नहीं पर आपका वाकया ज़रूर दिलचस्प लगा.

     

  4. ड़ा.योगेन्द्र मणि कौशिक
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237046880000#c1590225124693543450'> 14 March 2009 at 09:08

    अच्छी रचना है
    बधाई हो

     

  5. हिमांशु । Himanshu
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237050000000#c5822227090289148658'> 14 March 2009 at 10:00

    सुन्दर रचना है । ऐसी ही और रचनायें पढ़ायें । धन्यवाद ।

     

  6. Vivek Ranjan Shrivastava
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237085040000#c160584043560484539'> 14 March 2009 at 19:44

    युवा मन की सशक्त अभिव्यक्ति ...

     

  7. गिरीन्द्र नाथ झा
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237087440000#c2013036419269907217'> 14 March 2009 at 20:24

    सच कहूं तो मैंने विनीत भाई का यह अंदाज आज तक नहीं देखा था। जहां तक मुझे जानकारी थी कि वह खूब पढ़ते हैं और किताबों और टेलीविजन कार्यक्रमों पर पैनी नजर रखते हुए कुछ खास लिखते हैं।

    लेकिन कवि दिल वाला विनीत पहली बार दिखाई दिया। कविता क्योंकि तुम लड़की हो को पढ़कर मन में कई तस्वीरें एक साथ धमाल मचाने लगी है। यह भी लगा कि हर एक के दिल में एक कवि होता है जिसे समझने की जरूरत है बस।

    सबसे ताकतवर पंक्ति लगी मुझे- बच्चा भी समझता है समाज की भाषा......।

    लगता टिप्पणी ज्यादा मार रहा हूं, क्या करूं दादा यह कहने नहीं आता है कि वाह क्या लिखा है..आदि-आदि।

    वैसे अब आगे भी ब्लॉग पे कविता डालते रहिएगा।
    शुक्रिया।

     

  8. arun arora
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237106700000#c1889698891152699454'> 15 March 2009 at 01:45

    हमने तो लिखनी ही बंद करदी जब देखा ६०० रुपये तो दूर चै टिप्पणिया भी नही मिली . लेकिन अभी भी जब खुंदक आती है तो कविता झिलाने मे पीछे नही रहते सबको मेल कर देते है :)

     

  9. दर्पण साह
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237115280001#c8584383144458185916'> 15 March 2009 at 04:08

    wah bhai....
    do baaton ke liye
    1) utkrisht kavita...
    2) paiso ki tangi bhi kam ho gayi...

     

  10. दर्पण साह
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237115280002#c8572476004808639999'> 15 March 2009 at 04:08

    wah bhai....
    do baaton ke liye
    1) utkrisht kavita...
    2) paiso ki tangi bhi kam ho gayi...

     

  11. रवीन्द्र रंजन
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237125780000#c3705699348415497509'> 15 March 2009 at 07:03

    बहुत अच्छी लगी यह कविता। तारीफ के लिए शब्द नहीं मिल रहे हैं। यह बेशकीमती है। 600 क्या चीज हैं।

     

  12. satyadeo
    http://test749348.blogspot.com/2009/03/blog-post_14.html?showComment=1237287420000#c6698533747307939387'> 17 March 2009 at 03:57

    lajabab sir.bahoot gudgudaya apne.

     

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