मीडिया के भरोसे जीते लोग

Posted On 19:41 by विनीत कुमार |

शाम के करीब चार बजे मेरे बिस्तर पर पड़े अखबारों को पलटते हुए वो एकदम से चौंक गया। इतना कुछ हो गया और मुझे पता ही नहीं चला। आपने देखी थी खबर। कब हुआ येसब. फिर जानने के लिए बेचैन हो उठा कि अभी वहां का क्या हाल है। मैंने पूछा-तुम्हें सचमुच पता नहीं है कि कल रात क्या हुआ मुंबई में। उसने फिर दोहराया- नहीं बिल्कुल भी नहीं। मैंने बस इतना कहा- आश्चर्य है।
वो भीतर से बहुत ही परेशान महसूस कर रहा था और इस बात पर बार-बार अपसोस जता रहा था कि उसे येसब कैसे कुछ पता नहीं है। तुरंत उसने मुंबई में न्यूज चैनलों में काम कर रहे अपने दोस्तों को फोन किया- सब ठीक तो है न, सेफ हो न,लगे होगे रातभर से न्यूजरुम में। उधर से जबरदस्ती उत्साहित होते हुए आवाज आयी- हां यार,सब मस्त है, अपनी बता, दिल्ली में दिल्लगी हो रही है न, कब खुशखबरी सुना रहा है. अंत में भाभीजी का हाल पूछते हुए उसने कहा-चलो फिर बात करते हैं,. वो जल्दी से जल्दी टीवी देखना चाह रहा था। मेरे पास बहुत ही जल्दीबाजी में आया था. एत किताब लेनी थी बस। मैं उसे इस बात का लोभ देकर कमरे तक ले आया कि कपड़े बदलकर आज रात तुम्हारे पास चलूंगा और खाना बनाउंगा।
लेकिन इस जल्दबाजी में भी वो करीब पन्द्रह मिनट तक न्यूज चैनलों से चिपका रहा। फिर बताना शुरु किया- दरअसल हुआ ये कि आज अखबारवाले ने पेपर दिया ही नहीं। रात को नौ बजे जब एफएम रैनवो समाचार सुना तब ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। बाद में भी रेडियो सुनता रहा लेकिन कहीं से किसी भी चीज का आभास नहीं हुआ. मैंने फिर कहा-लेकिन यार, शाम के चार बज रहे हैं, घटना के हुए करीब 18 घंटे। इस बीच तुम यूनिवर्सिटी घूम आए। इसके पहले ऑटो में बैठकर आए। कहीं किसी ने कोई बात नहीं की. उसने कहा नहीं.

फोन की बात मैं नहीं कर सकता था क्योंकि अगर यही आतंकवादी हमले दिल्ली में होते तो लोग फोनकर पूछते- सेफ हो न तुम। लेकिन मुंबई में होने के कारण किसी ने इस संबंध में कोई बात नहीं की। यही कहानी शायद मेरे इस दोस्त के साथ भी हुआ होगा। ऐसे फोन करनेवालों की संख्या बहुत कम गयी है जो सीधे-सीधे सरोकार न होने पर भी बातचीत के लिहाज से फोन करते हैं। इसलिए घटना के करीब दिनभर बीत जाने पर भी अगर मेरे इस दोस्त को कोई जानकारी नहीं तो ये आश्चर्य की बात तो जरुर है लेकिन विश्वास करनेवाली बात है कि आज अगर आप किसी न किसी मीडिया से नहीं जुड़े हैं तो बहुत ही मुश्किल और लगभग असंभव है कि आपको किसी व्यक्ति के माध्यम से किसी घटना की जानकारी मिले। ग्लोबलाइजेशन के विरोध और समर्थन में खड़े लोगों ने लोकल, ग्लोबल से जुड़े कई मुहावरे तो जुटा लिए हैं लेकिन समाज के इस ढ़ांचे पर बिल्कुल चुप हैं। मीडिया में भारी पूंजी के निवेश औऱ इसके मुनाफे का रोजगार साबित करनेवाले मीडिया आलोचकों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है लेकिन वो भी इस बात पर चुप हैं कि व्यक्ति खुद भी एक माध्यम है। इसे किस रुप में संचार के प्रति सक्रिय बनाया जा सकता है. अब व्यक्ति ने आपस में डिस्कशन , बहस और शेयर करने कम कर दिए हैं। संभव है कि कुछ लोग इस बात के लिए भी मीडिया के बढ़ते प्रभाव और उसके नए रुपों को ही इसके लिए जिम्मेवार ठहराएं। मीडिया ने ही लोगों को अपने उपर इतना अधिक निर्भर होने की आदत डाल दी है कि व्यक्ति के भीतर अपने स्तर पर संचार करने की इच्छा मरने लगी है। चौक-चौराहे पर खड़े होकर किसी बात को जानने से बेहतर वो कमरे में इंटरनेट, टीवी फिर अखबारों के जरिए सूचनाओं में विश्वास करने लगा है।
लेकिन यकीन मानिए दिन-रात मीडिया को पानी पी-पीकर कोसनेवाले आलोचकों ने मैनुअली संचार की सक्रियता बढ़ाने के क्रम में कोई काम नहीं किया। छोटे स्तर पर सूचना तंत्र कैसे विकसित की जाए, इस संबंध में कोई मॉडल पेश नहीं कर पाए। सारा काम स्वयंसेवी संस्थाओं के भरोसे छोड़कर छुट्टी कर लिए. यही कारण है कि हम जब भी वैकल्पिक मीडिया की बात करते हैं तो हमें सिर्फ गांव के अनपढ़ लोग ही ध्यान में आते हैं, देश का वही कोना याद आता है जहां मीडिया की पहुंच नहीं है। हम शहर के स्तर पर भी वैकल्पक मीडिया या फिर व्यक्ति के स्तर पर संचार की जरुरत है, इसपर कभी बात ही नहीं करते। मीडिया कहने-पढ़ने और इसके बारे में बात करने का मतलब सिर्फ अखबार, चैनल और इंटरनेट के बारे में ही बात करना है। यहां तक आकर हमारी जरुरतें खत्म हो जाती है और जहां तक मामला मेरे दोस्त के कुछ भी न जान पानेका है तो इसे शहर का स्वभाव बोलकर छुट्टी पा लिया जा सकता है। कमलेश्वर की कहानी- दिल्ली में एक मौत से कितना आगे पीछे हो पाएं हैं हम और मीडिया को कोसते हुए सूचना का वैकल्पिक रुप कितना विकसित कर पाए हैं हम। सवाल एक नहीं कई हैं, सवाल ही सवाल है।
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5 Response to 'मीडिया के भरोसे जीते लोग'
  1. Suresh Chiplunkar
    http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1227859800000#c5687697702887537022'> 28 November 2008 at 00:10

    सच तो यही है कि महानगरों में लोग पैसों के पीछे पागलों की तरह भाग रहे हैं, आपस में सूचनाओं का आदान-प्रदान अब कस्बों में ही रह गया है, याद कीजिये कि मुम्बई/दिल्ली में अपने पड़ोसी को कितने लोग आत्मीयता से जानते हैं? अपनी बिल्डिंग में रहने वाले कितने लोगों को नाम से बुलाते हैं? अपने मोहल्ले में रहने वाले कितने लोगों को नाम से जानते हैं या चेहरे से पहचानते हैं? सब के सब सोये हुए हैं तो आतंकवाद से कौन लड़ेगा- सुरक्षा बल? वही सुरक्षाकर्मी जिनके वेतन को बढ़ाने में दिल्ली के ही अर्थशास्त्री आगे-पीछे करते रहे… वही आईएएस अधिकारी जो सैनिकों के जूते खरीदने में भी पैसा खा लेता है… इन्हीं अधिकारियों को सबसे पहले नरीमन हाऊस में बन्द कर देना चाहिये दो-चार दिन तक बगैर खाना दिये हुए… और साथ में सास-बहू के सीरियल देखते हुए घटिया लोगों को भी… जिन्हें "समाज" क्या होता है यही नहीं पता… पूरी तरह से बिखरे हुए समाज के लोग क्या खाक लड़ेंगे आतंकवाद से………

     

  2. Abhishek
    http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1227868320000#c8887454561241025435'> 28 November 2008 at 02:32

    पता नहीं विनीत लेकिन आतंकवादी घटनाओं के बारे में लोग ज़्यादा बात नहीं करते। ऐसा मैंने देखा है। मैं ख़ुद ही इस बारे में बात करने से बच रहा हूँ।

     

  3. प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
    http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1227889380001#c8421477876088328330'> 28 November 2008 at 08:23

    " शोक व्यक्त करने के रस्म अदायगी करने को जी नहीं चाहता. गुस्सा व्यक्त करने का अधिकार खोया सा लगता है जबआप अपने सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पाते हैं. शायद इसीलिये घुटन !!!! नामक चीज बनाई गई होगी जिसमें कितनेही बुजुर्ग अपना जीवन सामान्यतः गुजारते हैं........बच्चों के सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पा कर. फिर हम उस दौर सेअब गुजरें तो क्या फरक पड़ता है..शायद भविष्य के लिए रियाज ही कहलायेगा।"

    समीर जी की इस टिपण्णी में मेरा सुर भी शामिल!!!!!!!
    प्राइमरी का मास्टर

     

  4. प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI
    http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1227889380002#c2266189196663426643'> 28 November 2008 at 08:23

    " शोक व्यक्त करने के रस्म अदायगी करने को जी नहीं चाहता. गुस्सा व्यक्त करने का अधिकार खोया सा लगता है जबआप अपने सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पाते हैं. शायद इसीलिये घुटन !!!! नामक चीज बनाई गई होगी जिसमें कितनेही बुजुर्ग अपना जीवन सामान्यतः गुजारते हैं........बच्चों के सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पा कर. फिर हम उस दौर सेअब गुजरें तो क्या फरक पड़ता है..शायद भविष्य के लिए रियाज ही कहलायेगा।"

    समीर जी की इस टिपण्णी में मेरा सुर भी शामिल!!!!!!!
    प्राइमरी का मास्टर

     

  5. डा. अमर कुमार
    http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post.html?showComment=1228232220000#c6335760145517614646'> 2 December 2008 at 07:37


    अशालीन मीडिया पर लिख कर क्यों उसे महिमामंडित कर रहे हैं ?

     

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