तुम्हें कैसे रुह आफ़जा इतना पसंद है, मुझे तो इससे मुसममानी स्मेल आती है। मैंने पूछा, मुसलमानी मतलब, इत्र औऱ गुलाब जैसी खुशबू क्या। उसने कहा नहीं, वैसी नहीं स्मेल माने दुर्गंध। मुझे इससे मुसलमानी दुर्गंध आती है। उसने जातिगत तरीके से सुगंध और दुर्गंध पर रिसर्च कर लिया है तो उसके आगे मैंने कुछ भी कहना उचित नहीं समझा।
लेकिन क्या मुसलमानी दुर्गंध कुछ अलग से भी होती है .
कल लाइट नहीं थी, पूरा हॉस्टल हाउंटेड पैलेस की तरह लग रहा था। कोई बंदा अपने कमरे में टिकना नहीं चाह रहा था। फिर क्या हो गया बाहर लॉन में लोगों का जमावड़ा। मैं अपनी एथिनिसिटी बघारने के लिए एक ताड़ का पंखा ले आया। उसके बाद तो धीरे-धीरे हमलोग नॉस्टॉलजिया के शिकार होते गए। सब बताने लगे कि वो अपने घर में गर्मी के दिनों में क्या-क्या करते थे। आमझोर( दिल्ली में लोग आमपन्ना कहते हैं) से लेकर बेल का शर्बत, खजूर और ताड़ की ताडी तक आ गए। और फिर मामला ऐसा जमा कि लोग शर्बत को लेकर बातें करने लगे।
मेरे पास घर और शर्बत को लेकर सिर्फ एक ही याद है। छुटपन में मैं एक खाली गिलास और चम्मच लेकर मां के पीछे-पीछे घुमता रहता। मां से कहता कि शर्बत बनाने के लिए मेरे पास तो सबकुछ है कि, तुम सिर्फ जरा-सा रुह आफ़जा दे दो। मां घर के छोटे-मोटे काम करवाती और फिर नापकर दो ढक्कन रुह आफंजा दे देती। उससे शर्बत मीठा तो नहीं बनता सिर्फ लाल रंग आता। घर में जब कोई आते तब मां ज्यादा ड़लकर बनाती और बर्फ भी डालती। बाद में जब घर छूटा तो पांच साल रांची में रहना हुआ। ...और घर यानि जमशेदपुर से किसी न किसी का आना-जाना लगा रहता। सो हमेशा रुह-आफ़जा मां भेजा करती।
फिर तो ऐसा हो गया कि रुह आफ़जा के स्वाद से ज्यादा एक रुटीन-सा हो गया कि गर्मी के दिनों में बाहर से आने पर इसे पीना है। लेकिन दिल्ली आने पर मैंने कभी अपने से खरीदा नहीं। क्योंकि रुह आफ़जा के साथ मां भी याद आती है और फिर कौन इतनी व्यस्त जिंदगी में नॉस्टॉलडिया का शिकार होना चाहेगा।
लेकिन कल तो रुह आफ़जा को लेकर बिल्कुल नई बात हो गयी। किस आधार पर वो बंदा इसे मुसलमानी स्मेल वाली शर्बत कह रहा था। मैंने पूछा भी कि, हमदर्द का है इसलिए क्या। उसने कहा नहीं। अगर आप पीजिएगा तो लगेगा कि आसपास कोई मुसलमानी बैठी है। कैसी बेतुकी बाते करते हो यार। क्या हमदर्द ने उनके स्मेल पर रिसर्च करके ऐसा तैयार किया है। घुमा-फिराकर वो बंदा इसे अच्छी शर्बत नहीं कहना चाह रहा था। हो सकता है किसी को इसकी फ्लेवर पंसद न आए। लेकिन किसी खास समुदाय से खाने-पीने की चीजों को जोड़कर देखना, पता नहीं क्यों, मुझे अटपटा सा लगा।
मुझे याद है जब हम भाई-बहन छोटे थे तो घर से आगे एक ब्रेड बनाने की फैक्ट्री थी। उसके मालिक का लड़का सादिक मेरा क्लासमेट था। वो अक्सर लंच में पांवरोटी जिसकी शक्ल बर्गर ने ले ली है। दिल्ली में लोग इसे मीठी ब्रेड कहते हैं। उपर एक चेरी का टुकड़ा खोंसा होता है। वही पांवरोटी, एकदम ताजी और मुलायम सादिक लेकर आता।...और हमलोग उससे टिफिन बदल लेते। बाद में हमलोग उसके यहां जाकर भी लाया करते।
मेरी दादी जिसे हमलोग भोंपा कहते। क्योंकि वो चुपचाप बैठकर सबों को सिर्फ नसीहतें देती रहतीं। हर बात के पीछे पड़ जाती। अगर आप आम काट रहे हैं तो देखते ही कहेगी-ठीक से अंगुरी कट जैतो। दूध पीते देख कहती- गरम है, मुंह जल जैतो। ....और अक्सर हमलोगों के साथ ऐसा होता। तब हम रोते हुए चिल्लाते, अब खुश।
पांवरोटी खाते भी देखकर नसीहतें देतीं। मत खाओ, गोड से यानि पैर से रौंदकर बनाता है सब। पता नहीं कहां-कहां से चलके आता होगा। हमलोग कहते, नहीं हम देखकर आते हैं, सादिक भी बताता है कि कोई पैर से नहीं रौंदकर बनाता है। तब आगे कहती- तयिओ तो बनाता तो मुसलमान ही है। आज जब उस बंदे ने स्मेल वाली बात कही तो अचानक से ये सब याद आ गया। आप इसे भी नॉस्टॉलजिया कह सकते हैं। लेकिन दादी की बात को समझना ज्यादा आसान था कि वो मुसलमानों के हाथ का बना खाने से परहेज करती है। ये अलग बात है कि जाने-अनजाने कितनी चीजें खा लिया करती। लेकिन इस बंदे के बारे में आप सीधे-सीधे नहीं कह सकते कि वो दादी की बात को दुहरा रहा है।
वो एक तरह से आरोप लगा रहा है कि मुसलमानों से एक स्मेल आती है। उसके हिसाब से गंदी स्मेल। कुछ-कुछ रुह आफ़जा की तरह या फिर मुसलमानों की तरह का रुह आफ़जा की स्मेल। अगर उसके दिमाग में स्मेल का संबंध गंदगी से है तो फिर हिन्दू बस्ती और उसके लोग क्यों नहीं आए। गंदगी उनके बीच कम है क्या। तो क्या गंदगी औऱ हमदर्द के होने की वजह साथ-साथ है।
जाति और समुदाय को लेकर बाजार कैसे खड़ी करता है, ब्रांड का मायाजाल॥पढिए अगली किस्त
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http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210147380000#c7311469924698434968'> 7 May 2008 at 01:03
विनीत लगता है पहली बार पाला पड़ा है आपका दिल्ली में किसी से. ये लोग हर जगह हैं. हिन्दू भी और मुसलमान भी. कुछ लोग यूनानी इलाज इसलिए नहीं कराते क्यूंकि उन्हें ये मुसलमानी लगता है तो कुछ लोग योग इसलिए नहीं करते क्यूंकि उन्हें ये लगता है कि ये हिन्दुओं का तरीका है. ये संकीर्ण मानसिकता ही है जो कभी न कभी दिलों में खटास डालती है. मैं tution जब पढाता था तो एक बड़े हिन्दू घराने में जाना होता था वहाँ वो लोग कहने को मेरी बड़ी तारीफ करते और अपने बच्चों को मेरा उदाहरण भी दिया करते (पता नहीं मुझमें उन्हें क्या अच्छा लगा) मगर जब मैंने उनकी ईद के रोज़ दावात की तो उन्होने ख़ुद आना तो दूर अपने बच्चों को भी भेजने से मना कर दिया. यानी दिमाग की खुराक यानी ज्ञान जो मैं उन्हें दिया करता था वो तो उन्हें मंज़ूर हैं मगर मेरे घर का खाना उन्हें पसंद नहीं. ये क्या?
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210148640000#c7904538222446175603'> 7 May 2008 at 01:24
मेरा साबका भी ऐसे लोगों से पड़ता रहता है.
एक बार एक महाशय मिल गए, उन्हें न जाने कैसे पता लगा कि विद्या बालन मेरी पसंदीदा अभिनेत्री हैं. कहने लगे- यार कैसी अभिनेत्रियों को अपना फेवरिट बना लेते हो, पता है उसका तकिया कलाम- 'इंशाल्लाह' है. जो मुसलमानों जैसी बात कर रही है उसको तो फेवरिट मत बनाओ.
अब क्या करें ऐसे लोगों का विनीत भाई. एक दिन एक भाई मिले जो पूर्व राष्ट्रपति कलाम के बारे में अंट-शंट बकने लगे क्योंकि वे मुसलमान हैं. ऐसे लोगों को समझाया नहीं जा सकता इन पर तो बस हंसा जा सकता है. ये हिंदू कठमुल्ले हैं.
नदीम मियां कभी हमें भी दावत दीजिए ना...
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210149540000#c5503776250335067932'> 7 May 2008 at 01:39
भुवनेश भाई इंशाअल्लाह सभी ब्लॉगर भाइयों को बुलाकर इकठ्ठा दावत दूंगा. बस दुआ कीजिए.
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210151460000#c5248669554883804335'> 7 May 2008 at 02:11
पता नहीं क्यों, मगर नोस्टैल्जिक होने से हम सभी भागते हैं मगर आपने फिर से कर दिया..
खैर अभी तक मेरा ऐसे किसी भी हिंदू से तो पाला नहीं परा है मगर मेरे पापा का एक ड्राइवर था.. वो मुस्लिम था.. और अक्सर कहता था की जहां कहीं ढेर सारी बकरी, मुर्गी और गंदा सा गंध आने लगे तो समझिये कि आप किसी मुस्लिम बस्ती में पहूंच गये हैं.. और मैं उससे कहता था की आपको किसी ग्म्दी जगह जाना हो जहां कितने ही दिनों से साफ सफाई ना हुई हो तो आप किसी मंदिर में चले जाईये..
कई तरह के लोग मिलते हैं इस जहां में.. मेरे कुछ मित्रों का मानना है की मुस्लिम कभी ना कभी जरूर धोखा देते हैं.. मगर अनुभव बताता है कि धोखा देना मनुष्य की फितरत में है, क्या हिंदू और क्या मुसलमान..
खैर नदीम जी, हमें कब बुला रहें हैं?? मुझे पटना की बात याद आ गई जब रमजान के महीने में मैं अपने दोस्तों से जबरदस्ती इफ़्तार पार्टी लिया करता था.. :)
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210152600000#c4844102412044056694'> 7 May 2008 at 02:30
ajeeb laga padh kar ..ab kahney peeney ke cheezo mein bhi dharmvaad....kher mera namastey boley apney dost ko .
bahi hum to ruh afza peengey aur ppetey rahnegy...
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210152900000#c7471614195362022167'> 7 May 2008 at 02:35
गंध को हमारा दिमाग महसूस करता है। अब किसी के दिमाग में किसी चित्र की कोई खास गंध फीड हो रही हो तो, उस चित्र को देखते ही उसे वह गंध आने लगती है। असल में यह गंध वस्तुओं में से नहीं उन लोगों के खुद के दिमाग से आती है। वहाँ सफाई की सख्त जरुरत है।
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210153740000#c1341481410175482678'> 7 May 2008 at 02:49
अरे ऊ 'रूह' वाला मनई नहीं होगा. हॉस्टल में रहते हुए ऐसा-ऐसा बात बोलता है सब? आगे चलकर कहाँ पहुंचेगा? कठिन दिनों से गुजर रहा है ई मनई. दोस्त-यार मिलकर उसका इलाज करवाईये न....प्लीज
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210157940000#c7271742752384768429'> 7 May 2008 at 03:59
कैसे कैसे लोग :)
जाने दिजीये..आपतो रूहअफ़जा का आनन्द लें.
पानी के साथ या लस्सी में या आइस्क्रीम के साथ...
दुनिया में सब तरह के लोग रहते है...
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210170480000#c1638009856347685288'> 7 May 2008 at 07:28
अजब गजब के लोग हैं भाई, लिखते रहिया अगली कड़ी का इंतज़ार है.
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210181940000#c5161533715785010758'> 7 May 2008 at 10:39
रूह अफज़ा से जुड़ा एक और किस्सा. आपको याद होगा कुछ महीने पहले मैं 'खोसला का घोंसला' में मध्यवर्ग और शहरीकरण पर एक सेमिनार पेपर लिख रहा था. जैसी मेरी आदत है मैंने अपने सभी दोस्तों को ये ख़बर बड़े ज़ोर-शोर से पहुँचाई थी. इस ख़बर को सुनकर मुम्बई से मेरे दोस्त वरुण ने मुझे एक मेल किया जिसमें उसने लिखा था, "मिहिर, KKG एक बहुत ही ख़ास फ़िल्म है. और यह मैं एक वजह से कह रहा हूँ. KKG पहली बार देखते हुए ही मेरा ध्यान खोसला साहब के घर की टेबल पर रखी 'रूह अफज़ा' की बोतल पर गया था. तुम सच मानो मैं उसी वक़्त समझ गया था कि यह कोई आम फ़िल्म नहीं है. इस एक रूह अफ्ज़ा की बोतल के साथ इस फ़िल्म ने एक आम उत्तर-भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार की नब्ज़ पकड़ ली है. मेरे घर में भी हमेशा खाने की मेज़ पर रूह अफ्ज़ा की बोतल रखी होती थी."
ये साहिबान जिनका नाम वरुण ग्रोवर है 'ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो' और 'रणवीर, विनय और कौन' जैसे धारावाहिकों के लिए संवाद लिखते हैं.
http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_07.html?showComment=1210182240000#c642184623007311760'> 7 May 2008 at 10:44
अजब ये दुनिया, अजब इसके लोग!!!