हां, वो कनकलता ही है। मैंने उसे अक्सर किताबों के पन्नों के बीच उलझते देखा है। गाइड के इंतजार में डिपार्टमेंट के आगे इंतजार करते देखा है। लेकिन कभी उसकी आवाज नहीं सुनी।....जबकि कल से लेकर आज तक उसकी तस्वीर और दास्तान पूरी मीडिया में पसरी हुई है।

कल दोपहर को ही जब राकेश सर मुझे बुलाकर खुद घर से गायब हो गए तो मैंने पता किया कि भई, बात क्या है। दो घंटे बाद जब वो वापस लौटे तो बताया अभी-अभी मुकर्जीनगर से एक फोन आया है। मकान मालिक ने किराये पर रह रहे भाई-बहनों को बुरी तरह पीटा है। वजह सिर्फ इतनी है कि उसे पता चल गया कि वो लोग दलित हैं। शनिवार को हुई इस घटना की रिपोर्ट पुलिस ने अभी तक दर्ज नहीं की है। उसमें से एक डीयू से ही एम।फिल् कर रही है। उस समय ये पता नहीं चल पाया कि वो मेरे विभाग में ही है।

आने के बाद राकेश सर मीडिया के रवैये से काफी नाराज थे। सारे लोग एक कागज के टुकडे के पीछे पड़े थे, पता नहीं उस कागज के टुकड़े में ऐसा क्या था. और जी-जान से उस कोशिश में लगे थे कि किसी तरह उस लड़की की बाइट मिल जाए। कुछ चैनल बार-बार एक ही बात दुहरा रहे थे कि इसका बेस क्या है। बेस और सुपरस्ट्रक्चर की तलाश के बीच मानवीय संवेदना की स्टोरी कितनी निकल पायी होगी इसका अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि समय बीतने के साथ ही घटना पर परत दर परत चढ़ते चले गए।॥....इन सबके वाबजूद संवेदना का पक्ष भले ही छूट जाए लेकिन खबर तो बनी ही कि एक डीयू की रिसर्चर और दूसरी सिविल की तैयारी करनेवाली दलित लड़कियों को दिल्ली के एक मकान मालिक ने बुरी तरह पीटा है।... और शुरुआत के कुछ घंटों में जिसे दलित जाति की जानकारी होने पर मकान मालिक द्वारा पीटे जाने की घटना बोलकर स्टोरी चली, बाद में उस कहानी के कई तार निकल आए और दैनिक सोने से पहले मैंने चौबीस घंटे चौबीस रिपोर्टर में ये खबर देखा कि मकान-मालिक ने उसे सिर्फ इसलिए पीटा क्योंकि वो दलित है। जबकि सुबह दैनिक हिन्दुस्तान ने मकान मालिक की बात को भी छापा कि- दरअसल मामला ये है कि एग्रीमेंट के मुताबिक करार खत्म हो गया था और इन्हें मकान खाली करनी थी और हमनें जब ऐसा करने को कहा तो ये जातिसूचक शब्दों के प्रयोग का आरोप लगा रही है। यानि कि मकान मालिक ने लड़की के दलित होने पर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं किया।

थोड़ी देर के लिए अगर इस बात पर भरोसा कर भी लिया जाए कि ऐसा ही हुआ होगा और लड़की और उसके भाई-बहन मकान छोड़ना नहीं चाह रहे होंगे और बात बढ़ गयी होगी। लेकिन तब उसका क्या करें जिसे कि पूरी मीडिया में दिखाया गया। लड़की का शरीर जगह-जगह से छिल गया है। हाथों पर भी चोटें आयी है। दूसरी बहन का चेहरा बुत बना हुआ है। मकान-मालिक अगर चाहे तो आगे भी जोड़ सकते हैं कि ये सारे घाव उसने खुद हमें फंसाने के लिए बनाए हैं। देश में एक तपका ऐसा भी है जो उनकी बातों को आसानी से मान लेगें कि- हांजी ऐसा ही हुआ होगा। बाहर से आकर ये लोग पढ़ाई के नाम पर दिल्ली के लोगों को फजीहत में डालते हैं।...और फिर,

महिलाओं और दलितों के मामले में ऐसा करना तो बहुत ही सामान्य-सी बात है। जब भी लड़की, स्त्री से कोई जुड़ा कोई मामला हो तो साफ कहो कि- अजी, मैं जानता हूं, वो चाल-चलन की ठीक नहीं थी और जब इस बात पर उंगली उठायी गयी तो फंसा दिया। चाल-चलन और चरित्र को लेकर न जाने कितनी स्त्रियां इंसाफ पाने से रह जाती है और पितृसत्तात्मक समाज की अकड़ मजबूत होती है। इधर प्रशासन भी बहुत ज्यादा खोजबीन के पचड़े से बच जाती है। और वैसे भी समाज के गिने-चुने इज्जतदार लोग कह दें कि हांजी, बात सही है तो फिर प्रशासन को मानने और पचाने में क्या परेशानी है।

तथाकथित समाज के इज्जतदार लोगों और रसूकदारों के बीच इतनी भी समझ नहीं बन पायी है और शायद कभी भी न बने कि एक स्त्री जो अपने चरित्र को लेकर इतनी कॉन्शस रहती है, एक दलित अपनी जाति को लेकर इतना इनस्क्योर रहता है वो इसे सरेआम कैसे होने देंगे। मकान मालिक को इस बात का अंदाजा ही कहां होगा कि जिस लड़की पर उसने झूठा होने का आरोप लगाया है उसकी जिंदगी का अच्छा-खासा समय अस्मिता की तलाश और उसके विमर्शों से होते हुए गुजरा है। हर साल मानवीय संवेदना का पक्ष लेते हुए परीक्षाएं पास की है। कितनी टूट-फूट मची होगी उसके भीतर और एक रिसर्चर होना भी उसे कितना खोखला लग रहा होगा। इन सब मसलों पर भला कहां सोच सकते हैं वो।

सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त लोग तमाम तरह की आधुनिकता से लैस होने के वाबजूद दलित और जाति व्यवस्था के सवाल पर अपने को बदल नहीं पाए और बदलना भी नहीं चाहते। क्योंकि सबकुछ तो गंवा ही चुके। एक यही जातिवाद तो पुरखों की निशानी है और इसे भी कैसे छोड़ दें।...वो भी वेवजह, जबकि छोड़ने का कोई लाभ ही नहीं है और उल्टे आनेवाले समय में परेशानी भले ही हो जाए। ऐसे में दिल्ली जैसे तथाकथित स्वच्छ दिल्ली, हमारी दिल्ली में भी कोई जातिवाद को जिंदा रखना चाह रहा है तो इसमें बेजा क्या है। आखिर जातिवाद उनके पुरखों की निशानी है।

लेकिन, इसके ठीक उलट दलित ही क्यों, शोषित समाज का कोई भी हिस्सा और उसकी पीढ़ी अपने पुरखों की निशानी को बचाना नहीं चाहती, उसे जल्द से जल्द धो-पोछना चाहती है।....और कनकलता इसी की कड़ी है। उसके जैसी लाखों देश की लड़कियां अपने पुरखों की निशानी को मिटाने के औजार खोजती आगे बढ़ रही है। सवर्णों के शोषण के हथियार से जब वो सर्ववाइवल के औजार बना रहीं हैं तो तो तकलीफ होगी ही। लेकिन बदलाव की बयार इसी तकलीफ के भीतर से होकर गुजरते हैं। ....और इसका असर भी तो दिखने लगा है। जैसे कि मुकर्जीनगर क्या, कहीं का भी मालिक ये भले ही कह दे कि ये जाति का मामला जोड़कर हमें फंसा रहे हैं लेकिन उसने ये हिम्मत खो दी है कि वो जबरदस्ती करके कहे कि ये घाव भी इसने खुद बनाए हैं।

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10 Response to 'दलितों को गाली न भी दें, मार तो सकते ही हैं'
  1. Chiranjiv
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1209985140000#c8278800015402893408'> 5 May 2008 at 03:59

    भाई जी मकान मालिक की जाति भी लिख देते तो बडा बढिया रहता. थोडि और मेहनत किजिए और पता लगा कर मकान मालिक की जाति, राज्य और पेशा बताइये.

     

  2. विकास बहुगुणा
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1209985500000#c2206693919730723900'> 5 May 2008 at 04:05

    बढ़िया विश्लेषण है विनीत। हम इसे अपनी तहलका वेबसाइट के ब्लॉगिरी कॉलम में लगा रहे हैं। अतुल...

     

  3. arun arora
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1209987900000#c1468276694062838859'> 5 May 2008 at 04:45

    इसमे कई पहलू हो सकते है, एक मारपीट बिल्कुल हुई होगी, पर जाती का कोण अभी निकला होगा, इन्हे भी फ़ायदा उठाने मे गुरेज नही , और उसे मकान खाली कराना था,

     

  4. Hayaa
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1209991260000#c537374026102099370'> 5 May 2008 at 05:41

    सशक्त विश्लेषण सर ,

     

  5. मसिजीवी
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1209996840000#c6646770382947334930'> 5 May 2008 at 07:14

    हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के लिए अच्‍छी पोस्‍ट लिखी है, ये मुख्‍यधारा मीडिया की पहुँच से परे जाती है। बधाई पोस्‍ट के लिए।

    कनकलता को समर्थन ।।

     

  6. Ghost Buster
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1209998400000#c2957888476365277557'> 5 May 2008 at 07:40

    एक ही पोस्ट में ज्यादा से ज्यादा दौड़ लगा लेने के प्रयास में आप कई बार रपट रपट कर गिरते हैं. कहना क्या चाह रहे हैं स्पष्ट नहीं दिखता. संवेदना जगाएं या आक्रोश दिखाएँ इसी का फैसला नहीं कर पाते. शब्दों की संख्या सीमित रखते तो शायद ज्यादा प्रभावकारी होता.

    मसिजीवी जी की बात भी समझ में नहीं आयी. मुख्यधारा मीडिया क्या होता है? उसकी पहुँच के बाहर क्यों जाती है ये बात और कैसे जाती है? जैसा की पोस्ट ख़ुद बता रही है मीडिया तो भूखे भेडियों की तरह ऐसी ख़बरों पर टूटता है.

     

  7. भुवनेश शर्मा
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1210007220000#c3045670128888305882'> 5 May 2008 at 10:07

    घोस्‍ट बस्‍टरजी की बात से सहमत हूं.

    गुरू आप जो समझाने की कोशिश कर रहे हैं वह बात शायद पाठक तक पहुंचा नहीं पाए

    या हो सकता है मैं ही नहीं समझ पाया....पढ़ते समय कुछ कन्‍फ्यूजन क्रियेट हो रिया है.

     

  8. सुजाता
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1210048080000#c6385499101134724136'> 5 May 2008 at 21:28

    एक अच्छी और सम्वेदनशील पोस्ट , तहलका मे इसका छपना अच्छा ही है ।

    भुवनेश , घोस्ट बसटर जी

    सम्वेदना या आक्रोश ...आपही डिसाइड करेंगे ...यह पोस्ट लेखक थोड़े ही तय करेगा आपके हमारे लिये ।
    पाठ आपके सामने है , यह वह समय है जब पाठ को समझने की सारी ज़िम्मेदारी पाठक को सौंप दी जा चुकी आप फिर भी लेखक की सत्ता को अहमियत दे रहे हो ..तो कुछ समय पीछे चले जा रहे हो ..:-)

     

  9. दिलीप मंडल
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1210050060000#c7926615027948200604'> 5 May 2008 at 22:01

    तीखी और असरदार संपादकीय टिप्पणी। पढ़ाने के लिए धन्यवाद।

    ये पोस्ट पढ़ते समय आज गरिमा गोदारा की याद आ रही है और सुखबीर की भी। गरिमा को दसवीं में 97.6 परसेंट मिले थे। लेकिन दिल्ली के किसी नामी पब्लिक स्कूल में दाखिला नहीं मिला। सुखबीर एम्स में रेजिडेंट की परीक्षा में पूरे देश में अव्वल हैं। लेकिन उन्हें पसंद की पोस्टिंग नहीं मिली। उनका नाम जनरल कटेगरी की मेरिट लिस्ट की जगह एससी कटेगरी की लिस्ट में डाल दिया गया।

    देश धीरे-धीरे बदल रहा है। लेकिन कनकलता, गरिमा और सुखबीर को तो न्याय चाहिए और अभी चाहिए।

     

  10. डा. अमर कुमार
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_05.html?showComment=1210128060000#c3964895958806567959'> 6 May 2008 at 19:41

    भाई विनीतजी,
    मैं आपका प्रसंशक होते हुये भी, सहमत नहीं हो पारहा हूँ ।
    वजह ? ज़मीनी हकीकत के खर पतवार में उलझ कर रह गया
    यह पोस्ट !

     

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