विभूति छिनाल प्रसंग में सुधीर सुमन की ओर से फोन पर अविनाश को धमकी देने के बाद से मैंने तय कर लिया कि मुझे इस बहस से अपने को अलग कर लेना है। इस प्रसंग में नामवर सिंह की चुप्पी मुझे लगातार हैरान कर रही थी इसलिए इस पर लिखना जरूरी समझा और मोहल्ला लाइव पर लिखा। अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में उस बात को आज उठाया है। सुधीर सुमन ने जिस तरह से अविनाश को फोन करके धमकाया, जिसे लिखने के बाद फिर जिस तरह के कमेंट आने शुरू हुए, उसे देखते हुए मुझे अपनी तरफ की एक कहावत याद आयी – भइया से पार न पाये तो भौजी को पछाड़े। हालांकि ये कहावत अपने आप में स्त्री-विरोधी है लेकिन स्त्री को जैसा कि पितृसत्तात्मक समाज पुरुष से कमजोर और लाचार मानता आया है, (इस मुहावरे को स्त्री विरोधी मानते हुए) उस अर्थ में हुआ ये कि जब विभूति नारायण को लेकर खुलकर विरोध करने की बात आयी, राज्य की हिंसा का खुलेआम समर्थन करने पर अगले दिन देश के किसी भी हिंदी बुद्धिजीवी ने अखबार में लेख या वर्चुअल स्पेस पर पोस्ट लिखकर विरोध नहीं जताया लेकिन जब बेशर्मी से राठौर के अंदाज में हंटर साहब ने माफी मांग ली तो एक-एक करके तथाकथित महान, प्रतिबद्ध और पार्टीलाइन को ब्रह्म वाक्य माननेवाले लेखक उनके विरोध में जुटने लगे। वो विरोध भी हंटर साहब से कहीं ज्यादा इस तीन-चार दिन के प्रकरण में जो हंटर साहब के आजू-बाजू मुद्दे और विरोध में लोग आये थे, उनकी बात को कुचलने के लिए लोग जमा हुए।
इस क्रम में सुधीर सुमन ने अविनाश को भोपाल प्रसंग की याद दिलायी, दो-तीन बेनामी दम-खम के साथ मैदान में उतरे और एक-दूसरे पर लगे कीचड़ उछालने। इस बीच जानकीपुल पर स्थापित नाम हस्ताक्षर अभियान में शामिल होते रहे। सुधीर सुमन की भाषा में जो तल्खी अविनाश को हड़काते हुए दिखी, हम इंतजार ही करते रहे कि वो भाषा हंटर साहब के विरोध में भी उठते। मैंने तब सुधीर सुमन को संबोधित करते हुए कमेंट किया कि सुधीरजी, आपको जो कहना है कहिए, लिखिए… बस इतनी अपील है कि यहां मसला विभूति नारायण राय की बेशर्मी और उसके लिए इस्तीफे की मांग है, न कि अविनाश, आप मुद्दे को डायवर्ट मत कीजिए। हमें लगा कि अब लोगों के लिए ये मुद्दा स्त्री सम्मान की खुलेआम धज्जियां उड़ाने, उसकी भर्त्सना करने और दंडित करने के बजाय एक-दूसरे को पॉलिटिकली करेक्ट और इनकरेक्ट साबित करने का हो गया है। ये बचपन की उस हरकत की याद दिलाती है जब हममें से कोई गू मख जाता (गू पर पैर पड़ जाना) तो बाकी बच्चे हमें चिढ़ाएं, हमें अपने समुदाय से अलग कर दें, हम तत्काल दो-तीन को छू देते, फिर वो किसी और को। … और इस तरह कोई भी कंचन नहीं बचता, सबमें गू मखने का बोध पैदा हो जाता और चुप मार जाते। यहां भी उसी शैली में जिस बात का विरोध किया जाना चाहिए, वो धीरे-धीरे गायब होने लग गया है। वैसे भी हिंदी समाज में, जिसमें कि मैं खुद भी शामिल हूं, तात्कालिकता को बहुत ही ओछी चीज मानते हैं।
हिंदी समाज अतीत के भारी-भरकम बोझ को फिर भी उठाने को तैयार रहता है, भविष्य के लिए फिर भी जतन से खाई, पहाड़ सब खोदने को तैयार रहता है लेकिन तात्कालिक मामलों से अपने को दूर रखता है। मैं सोचता हूं कि जितनी बातें अब अखबारों में बुद्धिजीवियों की जुबानी आ रही है, वही बात जब गिनती की महिला लेखिकाओं के कपिल सिब्बल से मिलने वक्त आतीं तो कुछ अलग किस्म का असर होता। उन पर विचारधारा का मुलम्‍मा न चढ़ता, अपने हित के गुणा-गणित की चिंता से मुक्त होकर लिखा जाता तो हिंदी समाज की जीवंतता खुलकर सामने आने पाती। बहरहाल, मैं इस मसले पर चुप हो गया, सुधीर सुमन वाली पोस्ट में लिखा भी कि सब अपनी-अपनी चमकाने में लगे हैं, मुद्दे से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। बीच-बीच में विभूति-छिनाल प्रसंग की उत्तर कथा नाम से एक पोस्ट लिखने की हुलस उठती-बैठती रही… मोहल्ला पर झांकना उसी तरह जारी रहा, जिस तरह से एक जवान लौंडा दिनभर में चार से पांच बार अपनी जुल्फी और दाढ़ी की बढ़ती साइज निहारने के लिए आईने देखा करता है।
मैं मोहल्ला लाइव का कट्टर पाठक/लेखक हूं, एक-एक चीजें नजर से होकर गुजरती है, ये जानते हुए भी अविनाश ने देर रात मुझे एक कमेंट फारवर्ड किया – विनीत कुमार का फैन said: मोहल्ला के नियमित लेखक विनीत कुमार इस मुद्दे पर कुछ नहीं लिख रहे हैं! नामवर सिंह जैसे अप्रासंगिक वृद्ध और संन्यास ले चुके आलोचक के ऊपर प्रवचन के अतिरिक्त उन्होंने कुछ नहीं लिखा। उनकी तलवार की धार जैसी तीखी भाषा में एक लेख इस मुद्दे पर आना ही चाहिए। किसी भी पाप्युलर इश्यु पर उनका राय न देना खटकता है। उनके नियमित पाठक के रूप में हमें उनके स्‍टैंड का इंतजार रहता है। उम्मीद है, विनीत कुमार जल्द ही अपने पाठकों के सामने हमेशा की तरह बोल्ड एंड ब्यूटीफुल तेवर में सामने आएंगे। उम्मीद है उनकी कलम रवींद्र कालिया के पास गिरवी नहीं पड़ी होगी।
कमेंट पढ़कर एकबारगी तो जोर से हंसी आयी! सबसे ज्यादा इस पर कि हाय, मेरा मासूम पाठक नामवर सिंह को वृद्ध और संन्यास ले चुका मानता है। अपनी जानकारी बढ़ाये और पता करे कि बाबा अभी भी कहां-कहां जमे हुए हैं? फिर अविनाश की नीयत के बारे में सोचा कि ये हमें फिल्म रिलीज होने के पहले ही (पीपली लाइव) नत्था की शक्ल में देखना चाहते हैं, जो अपने आप ही घोषित करे कि वो आत्महत्या करना चाहता है। फिर मैं एक तमाशे में तब्दील हो जाऊं। मैं बेनामियों को भी अपनी ही तरह हांड़-मांस का इंसान मानता हूं। आप खुद ही इन लाइनों को पढ़िए न बेनामी – इस कमेंट पर कौन न मर जाए? जिससे कोई पाठक इस कदर मोहब्बत करता है, उसे और क्या चाहिए? उसके हाथ चूमने को जी करता है। उसके आगे राष्ट्रपति सम्मान, गोयनका अवार्ड, आइटीए अवार्ड सब मद्धिम और कसैले पड़ जाते हैं। ये जानते हुए कि बेबाक और तत्काल लिखने के अपने खतरे हैं, लिखना जरूरी है। जिसे भी अपने प्रकाशकों से रॉयल्टी, कमेटियों से टोकन मनी के बजाय पाठकों का प्यार पाना है, उसे हर हाल में ऐसा लिखना होगा। मेरे प्रिय पाठक, मैं मन से, विचार से, विश्वास से आपका प्यार चुनता हूं। मुझे अहं न होते हुए भी भरोसा है कि अगर मेरे लिखने में कुछ बात होगी तो मेरा लेखन किसी भी पत्रिका, संपादक या व्यक्ति का मोहताज नहीं होगा। आप हम पर वही भइया से पार न पाये तो भौजी को पछाड़ें वाला फार्मूला लागू करना चाहते हैं तो कोई बात नहीं।
ऐसे समय में मुझे पता नहीं कि हंटर साहब के साथ क्या होगा, कालियाजी को बने रहना चाहिए या जाना चाहिए, लोग तय करें – लेकिन हां, एक अदने से ब्लॉगर का मनोबल जरूर बढ़ा है, उसकी कसमें और मजबूत हुई हैं कि वो जमाने के चलन से अलग हटकर पाठक का प्यार चुनेगा, लेखन को कभी भी सरसराकर आगे बढ़ने और लोहा-लक्कड़ (जिसे दुनिया समृद्धि कहती है) जुटाने का जरिया नहीं बनाएगा।
लेकिन मेरे पाठक, तुमसे एक शिकायत जरूर रहेगी कि तुमने अपने जिस ब्लॉग लेखक पर भरोसा किया, उसी के दामन में दाग खोजने की कोशिश की। सोचो न, तुमने लिखा कि उम्मीद है कि विनीतजी की कलम कालियाजी के पास गिरवी नहीं पड़ी होगी। अब तुम ही बताओ न, पच्चीस-पचास की कलम होती तो गिरवी रख भी दी होती। लेकिन पचास हजार रुपये का लैपटॉप (इसमें अलग से कीबोर्ड की कीमत पता नहीं – इसलिए पूरा दाम लिखा) भला कालियाजी के यहां गिरवी कैसे रख दूं? जिसे मैंने बड़े जतन से खरीदा, जिसके कागज को कोर्ट में जमानत के मामले में नहीं जाने दिया, उसे मैं कालियाजी के पास धूल खाने के लिए कैसे रख दूं? आपने जिस लेखक की मंशा और भरोसे पर शक किया, उससे ये कैसी मोहब्बत है कि चाहते हो वो कालियाजी के खिलाफ खुलकर सामने आये और उसका आगे से उस पत्रिका में लिखना बंद हो जाए? मुझे हैरानी होती है कि तुम्हारा कलेजा कितना कमजोर है? तुम हमसे मजे लेने के मूड में हो शायद। लेकिन यकीन करो कि किसी पत्रिका में छपने, नहीं छपने से कोई लेखक नहीं मर जाता है। मैं पांचजन्य और रामसंदेश जैसी पत्रिकाओं को छोड़कर कहीं भी छपूंगा।
लेखक मरता है, अपनी विश्वसनीयता के खत्म हो जाने से, पाठकों के बीच सेटर कहलाने से, जुगाड़ी वाली छवि बन जाने से। मुझे अगर ऐसे होकर लेखक घोषित होना औऱ भीतर से मर जाना होता तो मैं डेढ़-दो फीट की लंबी पोस्ट आये दिन लिखने के बजाय, छपवाने की जुगाड़ में लग जाता। संभव है, तुम मेरी इस भावुकता पर ठहाके लगा रहे होगे कि लपेट लिया न। लेकिन लगाओ ठहाके, मैं इसे अपनी नीयत सार्वजनिक करने का एक बहुत ही सूफीयाना मौका मानता हूं। तुम मुझे लगातार पढ़ते हो तो ये भी पढ़ा होगा कि – हंस की संगोष्ठी से लौटने के बाद जहां हंटर साहब, आलोक मेहता का मामला गप्प, भसोड़ी और मसखरई में तब्दील में होने को थी, बाकी वेबपोर्टल के संपादकों की तरह तुम्हारा लेखक भी आधी रात तक जागा रहा, कुछ उनलोगों के प्रतिरोध में लिखा, नया ज्ञानोदय में हंटर साहब के “छिनाल” शब्द पर सवाल खड़े किये। लिटरेचर के तौर पर सबसे पहले किया, तब तो तुम्हारे हाथों में पत्रिका शायद आयी भी नहीं होगी। ये सब लिखते वक्त उसकी उंगलियां सही-सही कीबोर्ड पर जा रही थी, कांप नहीं रही थी क्योंकि ये पहला मौका नहीं था जब उसे कुछ लिखने पर गंवाना पड़ता। वो वर्धा का टुकड़ा जिसे कि लोग हंटर साहब के हरम का सुख कहते हैं, ठुकरा चुका है। इसके पहले वो एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम तैयार करने का आनंद त्याग चुका है। इसके पहले वो हिंदी के बाबाओं के सान्निध्य सुख से वंचित (अच्छा ही लगा) हो चुका है। तुम मुझे नाहक ही अपने को महान साबित करवाने पर तुले हुए हो।
मैं, बाकी लोगों की तरह आज भी और भविष्य में भी हंटर साहब, रवींद्र कालिया की संपादन नीति, चमकानेवाले बुद्धिजीवी जमात के प्रति प्रतिरोध में खड़ा हूं, रहूंगा। संभव है कि तुम्हें ये प्रतिरोध कई बार साफ दिखाई न दे। ऐसा इसलिए कि कई नामचीन लोगों की आक्रामक चौंधियायी चमक के आगे तुम्हें इस लेखक की मौजूदगी दिखाई न देती है। संभव हो, हो-हल्ला और हुड़दंगी शैली के प्रतिरोध के बीच ये लेखक नदारद मिले। लेकिन वो हमेशा प्रतिरोध में खड़ा रहेगा, पोटैटो एक्टिविस्ट बनकर नहीं, कीबोर्ड पर बिना थरथरानेवाली उंगलियों को लेकर। जो सवाल तुमने खड़े किये जो कि मेरे लिए एक घिनौनी गाली ही है, वही सवाल कभी प्रखर युवा आलोचक रंगनाथ सिंह ने भी उठाये थे। मेरी पीठ पर राजेंद्र यादव का नाम चस्‍पां कर दिया था। पोस्ट लिखने के बाद शाम को फोन करके पूछा था कि आप हंस में नहीं लिखते क्या? उसे इस बात का अफसोस हुआ था कि बिना वहां छपे ही उसने मेरे ऊपर लेबल चस्‍पांये थे। मैंने तब भी कहा था कि मेरी पीठ को एमसीडी की दीवार मत बनाओ। आज फिर कहता हूं, हम जो प्रयोग कर रहे हैं, जो कोशिशें कर रहे हैं, वो आपसे ही मजबूत होनी है। जिस दिन इस लेखक ds कीबोर्ड से चारण लाइन लिखा जाने लगेगा, वो लिखना बंद कर देगा… अपनी उंगलियों को न तो नाड़े की तरह हिलने देगा और न ही किसी के नापाक विचारों की काई को अपने ऊपर जमने देगा।
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8 Response to 'कालियाजी के पास गिरवी नहीं रखी है कलम'
  1. Etips-Blog Team
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html?showComment=1281252061372#c2256710760656228597'> 8 August 2010 at 00:21

    जय हो
    रिँग रिँग रिँगा
    ,मामला गंभीर है ।

     

  2. आशीष सिंह
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html?showComment=1281268394018#c3043040263202761139'> 8 August 2010 at 04:53

    चुपचाप मामला सलटा के निकल जाना किसे अच्छा नहीं लगता?! चुप्पी बहुआयामी होती है और देर से बोलना एक अलग तरह की स्ट्रेटजी है, जो साफ़ निकल जाने में बहुत कारगर साबित होती है..ये खेवैये अब कहीं न कहीं मान रहे हैं कि धारा के साथ ही बहकर बचा जा सकता है....आप-हम इस बात को कतई नकार रहे हैं- ऐसे मैं दो-चार फ़ोन, मैसेज आतें हैं तो यह बात खुद ही प्रूफ हो जाती है कि नेगलेक्ट करके भी नकार नहीं पा रहे हैं..

     

  3. अनूप शुक्ल
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html?showComment=1281269414127#c2853901696629167379'> 8 August 2010 at 05:10

    लेखक मरता है, अपनी विश्वसनीयता के खत्म हो जाने से, पाठकों के बीच सेटर कहलाने से, जुगाड़ी वाली छवि बन जाने से।
    वाह्! वाह्!

    यह एक तरह का आत्मकथ्य हो गया। मन की बात। बहुत अच्छा लगा।

    अनामी टिप्पणियां कभी-कभी उकसाने वाले भी होती हैं। तिलमिला देने के लिये की गयी कोई बात। कालियाजी के पास कलम गिरवी रखने जैसी बात इसी मंशा से कही गयी होगी और यह प्यारा लेख सामने आया। अच्छा हुआ झांसे में नहीं आये।

     

  4. Aflatoon
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html?showComment=1281280672596#c6443694693494874373'> 8 August 2010 at 08:17

    नया टेम्पलेट जमा । बधाई ।

     

  5. anjule shyam
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html?showComment=1281296494155#c2428314720297013575'> 8 August 2010 at 12:41

    (लेखक मरता है, अपनी विश्वसनीयता के खत्म हो जाने से, पाठकों के बीच सेटर कहलाने से, जुगाड़ी वाली छवि बन जाने से। मुझे अगर ऐसे होकर लेखक घोषित होना औऱ भीतर से मर जाना होता तो मैं डेढ़-दो फीट की लंबी पोस्ट आये दिन लिखने के बजाय, छपवाने की जुगाड़ में लग जाता। संभव है, तुम मेरी इस भावुकता पर ठहाके लगा रहे होगे कि लपेट लिया न। लेकिन लगाओ ठहाके,)
    विनीत सर पता नहीं उस पाठक की क्या नियत थी मैं नहीं जनता हाँ ''गर आप एक कट्टर लेखक हैं तो आपका मैं एक कट्टर पाठक हूँ'' ...और मुझे अपने कट्टर लेखक की कट्टरता पे कोई शक नहीं है..मैं ना तो साहित्य का लेखक हूँ और ना ही साहित्य समाज से हूँ तो ये भी नहीं जनता की यहाँ क्या क्या पोलिटिक्स होती है .मैं तो बस इतना जनता हूँ आपकी उँगलियाँ किपेड पर ऐसे ही नाचती रहे... आज से नहीं आज के 2 साल पहले मुंबई में खाली वक़्त में हिंदी में सिनेमा पे कुछ लिखा पढने कि खोज में अजय सर के चवन्नी छाप से ब्लॉग पढने कि शुरुवात हुई और वहीँ से आपकी सिनेमा पर लिखी पोस्ट पढ़कर आपके ब्लॉग पर आना हूवा...मुझे साहित्य और मगज़ीन से कोई उम्मीद तो नहीं पर ब्लॉगों से इतनी उम्मीद जरुर है कि वे सच लिखें,जिसके तलबगार हैं हम...(कुछ दिनों से घर गया हूवा था सो आपकी पोस्ट नहीं पढ़ी धीरे धीरे सारी पोस्ट निपटा रहा हूँ...फ़िलहाल देल्ही आया हूवा हूँ...)

     

  6. Sheeba Aslam Fehmi
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html?showComment=1281333254073#c4017466361259674023'> 8 August 2010 at 22:54

    विनीत क्या बहुत ज़रूर थी ये सफ़ाई? मुझे नहीं लगता की उकसाने वाली टिपण्णी को इतनी गंभीरता से लेना चाहिए. जो आपको पढ़ते हैं वे जानते हैं कि आपके सरोकार कहां हैं.
    ख़ैर इसी बहाने इस मामले के कुछ और पहलुओं पर आपने बात की है जो सही दिशा में हैं.
    'तानाबाना/गाहे-बगाहे' कि नियमित पाठक हूँ और तर्क कि जगह वितंडा ना खड़ा करने कि आपकी शैली कि क़ायल. लेकिन वितंडा-प्रेमी वर्ग के आग्रहों का शिकार मत हो जाइयेगा, आज हिंदी-ब्लॉग कल्चर पर यही हावी है और यही सबसे बड़ा ख़तरा भी है. शुभकामनाएँ
    शीबा

     

  7. सुशीला पुरी
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html?showComment=1281336197191#c7355385203969312409'> 8 August 2010 at 23:43

    sheeba ji ke shabdon ke saath .....

     

  8. neelima sukhija arora
    http://test749348.blogspot.com/2010/08/blog-post_08.html?showComment=1281356175718#c6860785119455452225'> 9 August 2010 at 05:16

    विनीत पहली बार आप अपने लेखन में इतने भावुक दिखे। आपको हमेशा अपने शब्दों के साथ मजबूती से खड़ा पाया। मैं भी आपके पाठकों में से हूं, पर शायद पहली बार आपको इस मोड में देख रही हूं। वाकई क्या आपको लगता है कि आपको इस तरह की सफाई देनी चाहिए थी, हम सब आपके पाठक आपको जानते हैं, वो ये भी जानते हैं कि आप पैसे के लिए नहीं लिखते। मैं भी इस मामले में शीबा से सहमत हूं, वितंडा-प्रेमी वर्ग के आग्रहों का शिकार मत हो जाइयेगा, आज हिंदी-ब्लॉग कल्चर पर यही हावी है और यही सबसे बड़ा ख़तरा भी है.

     

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