
मेरी लिवाइस और वेनाटॉन(UCB)की बनियान पर अभी तीन दिन ही से तो लगातार पसीने चुए थे और मैं तर-बतर हुआ था कि चौथे दिन डॉक्टर ने साफ कहा-कुछ नहीं इन्हें ग्लूकोज, पानी..वगैरह अभी तुरंत चढ़ाने होंगे। वीपी 60 हो गयी है और शरीर से बहुत पानी निकल गया है। डॉक्टर के सहयोगी आनन-फानन में सारा काम करने लग गए। अगले दस मिनट में बोतल से टप्प-टप्प गिरती पानी की बूंदों को देखकर फिर मैं इस पर कुछ रचनात्मक तरीके से सोचने लग गया। ये पानी फिर पसीना बनकर बाहर निकलेगा,नहीं तो दस्त के साथ,संभव है फिर उल्टी का दौर शुरु हो और सारी मेहनत बेकार। मुझे कितनी गर्मी लगती है,मुझे कितनी बेचैनी होती है। इतनी कि मुझे सब जगह एसी चाहिए। गाड़ी में,ट्रेन में,बसों में,कमरे में,लाइब्रेरी में..रिक्शे तक में एसी की कल्पना करने लग जाता हूं। मुझसे अब कुछ भी बर्दाश्त नहीं होता- न गर्मी,न सर्दी,न बारिश। मुझे सबकुछ नार्मल चाहिए। चैटबॉक्स पर अजीत अंजुम ने लिखा-तुम मन से जितने मजबूत हो,शरीर से उतने ही कमजोर। केरल से पंकज भैया ने फोन करके कहा-तुम बहुत डेलीकेट हो।
...देखिए मुझे हर हाल में चीजों को लेकर क्रिएटवि तरीके से सोचना है इसलिए सोच रहा हूं। आप मुझ पर लानतें-मलानतें भेजिए कि मैं जबरदस्ती का इंटल बना फिरता हूं लेकिन मेरे दिमाग में बस एक ही बात घूम रही है- पैसा इंसान को नाजुक बना देता है। मुझे आज जो इतनी गर्मी लग रही है कि तीन तीन दिनों तक एक घंटे-दो घंटे के लाइट गयी नहीं कि मुझे गर्मी लग गयी और उल्टी-दस्त का दौर शुरु हो गया,सच पूछिए तो ये सिर्फ मौसम की गर्मी नहीं है,ये उस पैसे की गर्मी है जो महीने के फर्स्ट वीक में रिसर्च के नाम पर मेरे अकाउंट में आ जाते हैं। तभी तो मैं मां के हजारों मुहावरे को याद रखने पर भी एक भी घरेलू नुस्खा याद नहीं रखता,तीन-चार घंटे में अव्वल हालत ऐसी हो जाती है कि सीधे डॉक्टर को फोन करता हूं और जाकर एडमिट हो जाता हूं। डॉक्टर तत्काल छुट्टी देना चाहता है लेकिन मैं कहता हूं आप मुझे एक-दो दिनों के लिए एजमिट कर लें। मेरे साथ फंड़ा क्लीयर है कि अब हम जिस दौर में जी रहे हैं वहां सिम्पेथी थेरेपी एकदम से काम नहीं करती है,किसी के गेट वेल सून कहने पर उसका हिन्दी तर्जुमा करने लग जाता हूं और लगता है कि कोई कहे कि-विनीत तुम जल्दी ठीक हो जाओ। मुझे पता है कि ये सारे लक्षण पढ़कर अजीत अंजुम,मनीषा पांडे,अनूप शुक्ल जैसे लोग किसी दीयाबरनी से बियाह करने की सलाह देने के अलावे कुछ नहीं कर सकते। लेकिन यकीन मानिए,ऐसे ही मौके पर मुझे किसी इंसान से ज्यादा दवाई पर भरोसा बढ़ता जाता है और मैं सिम्पैथी के बजाय सीधे एलोपैथी की गोद में जा गिरता हूं। दो जितनी दवाई देनी हो, भोको जितने इन्जेक्शन शरीर में भोकने है,लगाओ पट्टियां सड़कों की डिवाइडर की तरह,पूछो दर्जनों सवाल,उम्र से लेकर ये कि आप अल्कोहल लेते हो,सेक्स करते हो,जो जी में आए करो लेकिन मैं वापस सिम्पैथी के दरवाजे नहीं जाना चाहता। अविनाश की शिकायत है कि मैं उन्हें ये सब बताता क्यों नहीं? अविनाश भाई मैं नहीं बता सकता कि अब सिम्पैथी भरे शब्दों का कोई असर नहीं रह गया है। ऐसा कहकर मैं उन लाखों लोगों को निराश नहीं कर सकता जो इसकी बाट जोहते-जोहत गंभीर से गंभीर और नाजुक से नाजुक बीमारियों को भी ढोते चले जाते हैं। मेरे लिए बीमारी का इलाज कराने के लिए हॉस्टपीटल जाने और लिवाइस की शोरुम जाने में रत्तीभर भी फर्क नहीं है।
नहीं तो पहले हम क्या करते थे। किसी भी बीमारी का इलाज तब तक न कराते जब तक मां का नुस्खा बेअसर न हो जाता। जब तक मोहल्ले को दो जर्जन पड़ोसी जान न जाए कि सदानंद बाबू का छोटका लड़का को बाय हुआ है। जब तक धोबी,पासी,दूधवाला,सब्जीवाली मारो अपनी-अपनी पहुंच से कुछ घास-पात ला न दे। जब तक क्लास की बेचैन लड़कियां मेरी चचेरी बहन से पूछने न लग जाए कि विनीत को क्या हुआ है? जब तक एक-दो मास्टर का संदेश न आ जाए कि बेटे तू टेस्ट की टेंशन न ले,मैं हूं न। कॉलेज में पहुंचने पर तब तक इलाज न कराता जब तक उसे पता न हो जाए कि बीमार है। संत जेवियर्स में तो किसी लड़की से कोई खास नजदीकी रही नहीं और अगर रही भी तो वो दूरी से भी ज्यादा खतरनाक साबित हुई। लेकिन चूंकि पूरे निवारणपुर कॉलोनी के लिए मैं ट्यूटर था इसलिए कई बच्चों की मांओं से सिम्पैथी के टुकड़े हाथ लगे और उसका असर भी हुआ। लेकिन हिन्दू कॉलेज की कहानी अलग थी। यहां किसी भी लड़के के बीमार होने का मतलब होता कि सबसे पहले उस लड़की को फोन करो जो कि उसके सबसे नजदीक है। गार्जियन से पहले भी उसे फोन किया जाता। तारीफ देखिए कि वो लड़की वाकायदा घर में बताकर आती कि विनीत की तबीयत खराब है मम्मी,आज देर हो जाएगी।..और तारीफ उसकी मां कि बेटी,थोड़ा ठहर खिचड़ी लेती जा। हॉस्टल में कहां वो कुछ खाता होगा। वो टिफिन आज मेरे कव्वर्ड में सही-सलामत पड़े हैं। उसने एक बार देवदास के हुलिए में,मरियल सी शक्ल में हमें देख लिया,मेरे कुछ बोलने के पहले ही ओंठ पर हाथ रख दी कि नहीं बीमारी में बोलते नहीं, तब जाकर इलाज कहां करानी है इस पर बात की जाती। जाते-जाते काम में बहुत धीरे से फुसफुसाती रोस्टेज काजू किसी को दे मत देना,ये मैं सिर्फ तुम्हारे लिए लायी हूं। उसने पीठ घुमायी नहीं कि हॉस्टल विंग के लौंडे के कलेजे पर सांप लोटने शुरु हो जाते। कहानियां बननी शुरु होती- इ स्साला चूतिया,नौटंकी करता है बीमारी का,असली खेला कुछ और है।..और देखो,दीदा में भौजी का रत्तीभर भी पानी नहीं,विनीत ये खा लेना वो खा लेना और हमलोग को एक बार बाय तक नहीं बोली।
उसके जाने के बाद इलाज भी क्या,साल में सत्तर रुपये की यूनिवर्सिटी हेल्थ सेंटर की मेंबरशिप। बीमारी चाहे कोई भी हो,दवाई के नाम पर पीसीए,ब्रूफेन या कॉम्बीफ्लॉम और कोबॉडेक्स। इलाज कराने पूरा एक हुजूम जाता। कम से कम सात-आठ लोग। आने पर कमरे पर डेरा जमता। एक-दो पैकेट दूध या दही आ जाता,एकाध किलो सेब। जितना रोगी खाए उसी के अनुपात में चंगा भी और फिर दमभर बकचोदी। लड़कियों को लेकर एक से एक खिस्सा। मेरे चेहरे पर हल्की मुस्कराहट आती तो बेगुसराय के अपने बाबा झट से कहते- लौंडिया के आते ही स्साला टनमना गया। ये दो-तीन दिन का खेल होता और उसी बीच हम विद्यापति और मुक्तिबोध की किताबें लेटे-लेटे पढ़ते हुए नोट्स बनाने तक की स्थिति में आ जाते और फिर हॉस्टल में घोषणा हो जाती- घंटा बामार पड़ा था ये,स्साला नौटंकी,एकदम टनाटन हो गया है।
ये वो दौर था जब हम एक कोल्डड्रिंक भी चार लोग पूल करके मंगवाते,कभी प्राइवेट डॉक्टर के पास नहीं जाते। उसकी लायी एक टाइम की खिचड़ी के अंतिम डकार तक कुछ नहीं खाते। मां मेरे बैग में जबरदस्ती दो-तीन रुपा,लक्स,अमूल गोल्ड की बनियान-चड्डी ठूस देती। कई बार भैय्या की दूकान से मंगवाकर,कई बार उसमें हल्दी लगी होती। मैं इंटरव्यू के समय दोस्तों को बांट देता। वो इसे श्रद्धा से पहनते कि आंटी का भेजा हुआ है तो कामयाबी जरुर मिलेगी। कई दोस्त डुप्लीकेट रुपा,लक्स जो कि कलकत्ता के मटियाघाट,मंगलाघाट में 14-15 रुपये में,दिल्ली में बुध बाजार और गांधीनगर में मिला करते,वो पहनते। उसी पर हड-हड पसीना चूता और शाम तक सफेद लकीरें उभर आती। तब भी कभी एसी की जरुरत नहीं होती। किसी की एमेन्सी में नौकरी लगने पर मां-बहन की गाली देता कि बेकार में हमलोग इस गर्मी में ठंड से जकड़ जाते हैं। मैं मई की भरी दुपहरी में बीएड की लड़कियों को कोचिंग पढ़ाने लक्षमीनगर जाता। लौटते वक्त आइटीओ पर दस रुपये की दो गिलास बेल की शर्बत पीता,कभी गर्मी नहीं लगी। आज देखिए,लग गयी गर्मी।
पचौरी साहब करते रहे पर्यावरण और जलवायु की समीक्षा,बताते रहें मौसमी उलटफेर के गणित,चैनल दिखाते रखे पारा गिरने-चढ़ने की सांप-सीढ़ी का खेल,हम तो बस इस नतीजे पर कायम हैं कि हमें महीने की शुरुआत में आए पैसे की गर्मी लगी है। नहीं तो बोर्ड तक रुपाली स्याही की बोतल से बनी डिबरी में पढ़नेवाले हम जैसों को कभी गर्मी नहीं लगी तो आज कैसे लग जाती है? माफ कीजिए,हम इतने नाजुक कभी न थे। हमारी परवरिश गुलाब की पखुंडियों की बयारों के बीच नहीं हुई है। लेकिन हमने बिहारीपना,झारखंडीपना,जाहिलपना,ठसपना और पता नहीं क्या-क्या पना छोड़ने के नाम पर नाजुक होते जले गए। जूते,ट्राउजर,शर्ट से ब्रांडेड होना शुरु हुए और आज अन्डरगार्मेट भी लिवाइस की। तिस पर कोशिश यह कि इस पर पसीना न कभी चू जाए। इस क्रम में अब कोई खिचड़ी लानेवाली नहीं रही,कोई पूल करके कोल्डड्रिंक लानेवाला नहीं रहा। हेल्थ सेंटर पर शक होता है,रिक्शे से जाना झंझट लगता है। फोन पर बीमारी की बात सुनकर अफसोस के कुछ कोरे शब्द,यार खाया-पिया करो।.ये शब्द अब मुझे परेशान करते हैं,सबकुछ वर्चुअल है,सबके सब अमूर्त,मूर्त है,रियल है तो सिर्फ और सिर्फ टेबल पर पड़ी मेरी दवाई।
इसलिए बज और फेसबुक के मेरे सारे दोस्तो-पीडी,लवली,प्रभात,मिहिर,अफलातून आपलोग माफ करें,मैं आपकी विसेज का कोई जबाव नहीं दे सका और हां टेंशन न लें,शुरु-शुरु में ये गर्मी थोड़ी परेशान करती है,फिर धीरे-धीरे आदत-सी पड़ जाती है।....अदरवाइज,ऑल इज वेल...
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1271839118193#c7611395225286853056'> 21 April 2010 at 01:38
हमें आपसे सहानुभूति कतई नहीं है... हमें आपसे गहरी सहानुभूति है...
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1271840660783#c5164724184775822584'> 21 April 2010 at 02:04
उनको देखे से जो आती है चेहरे पे रौनक
वोह समझते हैं की बीमार का हाल अच्छा है
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1271847474959#c99652338920425089'> 21 April 2010 at 03:57
क्या क्या लिख गए विनीत ...कई बाते दिमाग में एक साथ आ रही है.
खैर, अब ठीक हैं आप जानकर अच्छा लगा ...
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1271914401013#c242094766197387962'> 21 April 2010 at 22:33
पता नहीं क्या है कभी दोस्त हाल नहीं पूछते तो बुरा लगता है और जब पूछते हैं तब भी बुरा लगता है...उलझने सुलझने का नाम नहीं लेंगी.मर्जी हमारी हम किस चीज को कसे लेते हैं.सिम्पथी को बोरियत समझते हैं या लोगों का प्यार'..अपनी अपनी सोच है.ये सोच भी कहाँ हर वक़्त अपने साथ होती है.हर रोज इसके भी रंग बदल जाते हैं...
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1271916979803#c2962541382262261176'> 21 April 2010 at 23:16
अपना ध्यान रखो भाई।
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1271932075371#c5001738120380335156'> 22 April 2010 at 03:27
haan kuch hote na bane to ALL IS WELL :)
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1271934267837#c3801877446262910958'> 22 April 2010 at 04:04
हा हा हा यार विनीत भाई ,
आप भी एकदम कमाल के बौराए हुए छौंडा हो । एक ठो बीमारी हुआ तो गजब का ठेल दिए सब कुछ । हम तो पूरा का पूरा एके सांस में पढ गए । साला कभी एतना बीमार नहीं पडे कि जवानी में कोई आके कहता कि अरे हम हैं न खिचडी ला देंगे घर से । और ई एक तारीख का असर से लेकर लिवाईस तक का जेतना बढिया और बेधडक खाका खींचे हो आप , मजा आ गया । अब सोच रहे हैं कि ठीक होते ही कौन टीवी रिपोर्ट का पोस्टमार्टम किया जाएगा ।
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1271995103234#c8372272379477191330'> 22 April 2010 at 20:58
जीवन भरपूर जिया है आपने । मैनें हिन्दू हॉस्टल में काफ़ी समय अनौपचारिक तौर पर बिताया है - यादें ताजा हुईं ।
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1272010315531#c4902738188838915814'> 23 April 2010 at 01:11
bato ko kaha se shuru kar kaha kaha yad karte hue kaha pahuchana hai ye to koi aapse sikhe miyan...
mast likha hai to fir ab jaldi se chakaachak i mean tanaatan ho jao, ekdam fit aur han Diyabarni le hi aao ;)
http://test749348.blogspot.com/2010/04/blog-post_20.html?showComment=1272274941110#c8565809234902395022'> 26 April 2010 at 02:42
बीमारी के बहाने दिल का दर्द फूट-फूटकर निकल रहा है...कहाँ का ऑल इज वेल...
- आनंद