
21 मार्च बीत गया। बिस्मिल्ला खां के जन्मदिन को मीडिया ने याद नहीं किया। मन कचोटता रहा.समय का दवाब और अलग से न लिखने की काहिली में मैं बज और फेसबुक पर सिर्फ इतना ही लिख सका-
हमें बिस्मिल्ला खां को इतनी जल्दी नहीं भूलना चाहिए था।..कहीं कोई मीडिया कवरेज नहीं। IPL तेजी से खबरों को ध्वस्त करता जा रहा है।..ऐसे होती है खबरों पर बादशाहत और ऐसे ही धीरे-धीरे होती है सरोकारी पत्रकारिता की हत्या। इस लिखे की प्रतिक्रिया में बनारस से अफलातून ने लिखा-अरविंद चतुर्वेदी ने उन पर एक अच्छी पोस्ट लिखी है।देखी? भन्नाया हुआ था और लग रहा था कि हर उस शख्स को कोड़े और चाबुक मारुं जो बात-बात में सांस्कृतिक धरोहर की बात करता है। पढ़ने से ज्यादा खोजने का मन कर रहा था कि किसने लिखा है और किसने नहीं। लपेटे में आ गया गिरीन्द्रजिसे कि हम गिरि कहा करते हैं।
हमने चैट बॉक्स पर लगभग लताड़ते हुए अंदाज में लिखा- तुम्हें बिस्मिल्ला खान के बारे में लिखना चाहिए था गिरि। गिरि को हमने ऐसा इसलिए कहा कि ब्लॉग की दुनिया में वो उन गिने-चुने शख्स में से है जो कि विरासत,धरोहर,संस्कृति और यादों की पूंजी के प्रति सचेत है। उसकी कीबोर्ड में छूटने का दर्द छिपा है और शब्दों में लगातार खोते जाने की तड़प। हमें क्या पता कि उसके मन में भी यही बात पहले से कचोटती रही कि उसने क्यों नहीं लिखा? लेकिन न लिखने की जो वजह बतायी वो कम मार्मिक नहीं है। बहरहाल अंत में उससे रहा नहीं गया और एक पोस्ट लिख दी-शहनाई खामोश नहीं हुई है दोस्त
(सपने में बिस्मिल्ला खान से बातचीत)
गिरि की पोस्ट पढ़ने के बाद मुझसे भी नहीं रहा गया लेकिन अपनी स्थिति भी यही कि पोस्ट लिखूं कि जल्दी से जल्दी अपनी रिसर्च की रिपोर्ट लिखूं। जमाने से खाली रहनेवाला शख्स इन दिनों इतना बदनसीब है कि कायदे से बिस्मिल्लाह साहब को याद नहीं कर सकता। मैंने बस इतना किया कि कभी यतीन्द्र मिश्र की कही गयी बात को जो कि उन्होंने बिस्मिल्ला खान पर लिखी अपनी किताब के लोकार्पण के मौके पर कही थी,कमेंट बॉक्स में डाल आया। माफ करेंगे,यहां भी यही कर रहा हूं। संभव हो तो आप अपनी तरफ से कुछ बेहतर लिखें-
अपनी ही पोस्ट का लिखा एक हिस्सा यहां उठाकर चेंप दे रहा हूं खां साहब की याद में- शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र ने किताब लिखी है। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताबों पर विस्तार में बात न करते हुए यहां हम फिर उस्ताद बिस्मिल्ला खां के उस प्रसंग को उठा रहे हैं जो कि हमारे ख़्वाबों को पुनर्परिभाषित करने के काम आ सके। बकौल यतीन्द्र मिश्र-
तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।.
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269257706509#c4572304551719022031'> 22 March 2010 at 04:35
सही कहा !
सुर न फटे बस !
उस्ताद को प्रणाम !
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269257834101#c5982389870768404397'> 22 March 2010 at 04:37
उस्ताद को भूलना हमारे जमात की सबसे बडी भूल है। तमाम खबरों के बीच उनकी शहनाई को भूलकर हम बड़ी गलती कर रहे हैं, जिसके बचाव में हम कोई कारण गिनाकर बच नहीं सकते हैं, जैसा कि मैंने आपको अपनी वजह बताया। भावुक होकर आप मान गए कि चलो तुम्हारी वजह ठीक थी लेकिन गलती तो गलती होती है। मैं सार्वजिनक स्थानों पर माफी मांगकर भी बच नहीं सकता।
हम हर व्यक्ति को भूल रहे हैं जो विरासत और गंगा-जमुनी संस्कृति से जुड़े हैं..। इस गलती को माफ नहीं किया जा सकता।
कुछ ऐसा ही बी.पी.कोइराला के निधन पर भी हुआ। आप रविवार का नवभारत टाइम्स पलटें, छोटी सी खबर नसीब हुई कोइराला को। भले ही वह राजनीतिक शख्स थे लेकिन नेपाल में उनके योगदान को भूलना क्या मुनासिब होगा।
नेटवर्किंग करते-करते हम उस्ताद जैसे लोगों को भूलते जा रहे हैं, भला हो ब्लॉग का, जहां अभी भी थोड़ी बहुत की-बोर्ड की आजादी जीवित है।
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269260832007#c8107178957200462998'> 22 March 2010 at 05:27
गिरीन्द्र जी से पूरी तरह सहमत…
वाकई हम लोग नालायक हैं, जो बिस्मिल्लाह खान जैसे दिव्य पुरुष को ठीक से याद न रख सके…।
अत्यधिक खबरों (बल्कि अनावश्यक खबरों) की वजह से दिमाग कुछ ठस्स टाइप का होता जा रहा है।
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269264941123#c2800834324429675284'> 22 March 2010 at 06:35
मैंने कल के दो पोस्ट पर इसकी व्यथा पेश की थी कि उस्ताद को भुला दिया गया है.....मेरे दोनों पोस्ट का लिंक है.....
..........................
कृष्ण की बांसुरी, ..बिस्मिल्लाह खान की शहनाई..... और जीसस का क्रॉस)
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सास का ओढना बनता है पतोहू का नकपोछना.
http://laddoospeaks.blogspot.com
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269265171760#c1417148044250481688'> 22 March 2010 at 06:39
आज जल दिवस पर भी मिडीया में कोई चर्चा नहीं...........................
विश्व जल दिवस..........नंगा नहायेगा क्या...और निचोड़ेगा क्या ?...http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269265290577#c4670473756820985870'> 22 March 2010 at 06:41
नहीं विश्व जल दिवस पर चर्चा है बल्कि मैं तो एफ एम पर दिल्ली में इसकी खूब चर्चा सुन रहा हूं। प्राइम टाइम में टीवी में देखता हूं।.
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269270159892#c194540019867765583'> 22 March 2010 at 08:02
यही तो हमारी बदनसीबी है विनीत भाई।
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269274040770#c388556546217216206'> 22 March 2010 at 09:07
विनीत,
काफ़ी सालों से ये जन्मदिन वाली बात दिल को कचोट रही थी, आज लिख रहे हैं।
क्यों जरूरी है किसी का जन्मदिन याद रखना? इस प्रकार से पाखंड से मन नहीं ऊबा अभी तक हम सब का? क्या ये वही बिस्मिल्ला खां हैं जिनको अपनी रोजी रोटी के लिये गुहार लगानी पडी थी? अगर मीडिया ने कारगिल दिवस याद कर भी लिया तो उससे उन शहीदों के दु:ख दूर हो जायेंगे जिनके परिवार अभी भी उस सहायता के लिये मारे मारे फ़िर रहे हैं जिनके वे हकदार है?
क्यों अगर किसी धूमिल, नागार्जुन, फ़िराक या किसी और का भी जन्मदिन याद न रह जाये तो लोग ब्लाग पर लोटा लिया आ चढते हैं?
हमने बीटेक एक अच्छे कालेज से किया लेकिन वहाँ पर भी सर और सम्मान के थोथे रिवाज थे, अध्यापक ही नहीं बल्कि सीनियर्स के साथ भी। उसके बाद भारतीय विज्ञान संस्थान में पंहुचे, पहली ही क्लास में अध्यापक के घुसते ही जब पूरी क्लास (१० लोग) उठी तो वो झेंप गये, बोले:
I will feel your respect when you perform good in my class. There is no need for this.
उन्होने सर-वर कहने से भी मना कर दिया और बोले मेरा नाम गिरिधर है। खैर जब तक भारत में रहे अध्यापक को सर कहने की आदत रही। लेकिन अब लगता है कि उनको इससे कुछ फ़र्क नहीं पडता।
इंटरनेट से पहले/शुरूआत में जन्मदिन याद करना पडता था और किसी के ईमेल से खुशी मिलती थी। उसके बाद आर्कुट और फ़ेसबुक के दौर में अगर आपका जन्मदिन सबको दिखायी देता है तो आपको इतनी शुभकामनायें मिल जायेंगी कि एक पूरा दिन धन्यवाद देते बीत जायेगा। ऐसे ही एक साल के बाद अगले साल हमने अपना जन्मदिन प्राईवेट कर दिया और पूरे दिन एक शुभकामना के संदेश के लिये तरसते रहे।
कुछ लोग कहते हैं कि अगर जन्मदिन याद न हो और फ़ेसबुक पर देख कर विश कर दो तो बेईमानी है, ;-)
मीडिया के लिये तो ये आसान है कि एक बस कैलेंडर बना लो सभी महान लोगों का और जिसका भी जन्मदिन हो, उसके नाम का टिकर चला दो, एक्सक्लूसिव न बना सको तो। लेकिन इससे क्या फ़ायदा? खैर जो सोचा वो लिख डाला, बाकी गालियाँ सुनने और अपनी संसकृति भूलने के लिये गाली खाने को तैयार हैं।
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269281413470#c3698496192445130776'> 22 March 2010 at 11:10
तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।.
Wah! Kya mauzoom jawab diya!
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269324181543#c3109446530134544374'> 22 March 2010 at 23:03
सच कहूँ नीरज ने मेरे मन की बात लिखी है ..खास तौर से ब्लॉग पोस्टो के लिए .....हाँ दूसरे मीडिया संसाधनों को जरूर कम से कम ये सूचना बांटनी चाहिए ......हर साल उन्हें रस्मी तौर पे याद करने से कही बेहतर ओर . .महत्वपूर्ण है विरासत को संजो कर रखना .के उनको शिष्यों को ऐसी सुविधा देना जिससे वे इस गौरवशाली परंपरा को आगे बाधा सके ..हाँ ये जरूर सच है के हम कृतघन राष्ट्रों में अव्वल जरूर होगे ..कोई भी धरोहर कोई भी महत्वपूर्ण इंसान सब पीछे .....एक बार आगरा में घुमते वक़्त विदेश में बसे मेरे दोस्त ने कहा था यही फर्क है किसी दूसरे देश में वे ऐसी जगहों को ओर बेहतर बनाते है .ओर हम कुकर मत्तो की तरह जाल बिछाकर उसे ओर ख़राब करते है ....
"दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।. "ऐसा कहने वाला यक़ीनन इस दुनियादारी से अलग जज्बे का कोई बन्दा होगा ....
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html?showComment=1269657224470#c8231114423696777559'> 26 March 2010 at 19:33
बहुत प्यारी पोस्ट! याद न करते तो ये फ़टी लुंगिया और फ़टे सुर वाली बात कैसे पता चलती।