
वर्चुअल स्पेस में मर्द लेखकों की एक ऐसी जमात है जो कि देश और दुनिया के तमाम मसलों पर लिखने का अधिकार रखते हैं। जाहिर है इन तमाम मसलों में स्त्रियां भी शामिल हैं। बल्कि स्त्रियों पर लिखते हुए अधिकार इतना अधिक है कि उनका लेखन विमर्श से कहीं ज्यादा गार्जियनशिप या कहें तो डिक्टेटरशिप का हिस्सा बनता चला जाता है। अब लेखन का ये मिजाज इस मुद्दे को लेकर औरों से अधिक ठोस और ज्यादा जानकारी को लेकर होता है या फिर मर्द होने की वजह से इसका आकलन अभी उनके खित्ते में ही छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा। फिलहाल इस मुद्दे पर बात करें कि वो जब स्त्री के सवालों पर लिखता है तो वो अपने लेखन से क्या करना चाहता है? इस क्रम में विश्लेषण के बिन्दुओं की एक लंबी फेहरिस्त बन सकती है। पूरा का पूरा एक शोधपरक लेख लिखा जा सकता है कि -आखिर क्यों मर्द लेखक करते हैं वर्चुअल स्पेस में स्त्री विमर्श? लेकिन हम यहां ऐसा कुछ भी नहीं करने जा रहे हैं। हम बस ये समझने की कोशिश में हैं कि वो क्यों अपने रोजमर्रा की जिंदगी के कई छोटे-बड़े अनुभूत सत्य को नजरअंदाज करके स्त्री सवालों को प्रमुखता से पकड़ता है? दूसरा कि उसका ये स्त्री-विमर्श किन स्त्रियों को संबोधित है? मेरे दिमाग में ये दोनों सवाल उनकी ही हरकतों को झेलते हुए,पोस्टों और कमेंट्स को पढ़ते हुए आए हैं।
वर्चुअल स्पेस में लिखनेवाले मर्द लेखकों(मर्द शब्द इसलिए कि वो लेखन के जरिए संवाद से कहीं ज्यादा लीड करने में भरोसा रखता है)की इस जमात में दर्जनों ऐसे लेखक हैं जिनकी पत्नियों को,उनकी बेटियों को,बहनों को ये नहीं पता कि उसका मर्द संबंधी उसके बारे में क्या लिखता है? लेखन की दुनिया में दिन-रात उसकी बेहतरगी की चिंता में डूबा रहता है। वो चाहता है कि हम मर्दों की तरह ही स्त्रियों को भी खुलकर जीने और अपनी बात रखने का अधिकार मिले। लेकिन वो आए दिन इन मर्द लेखकों से जरुर पछाड़ खाकर गिरती है,उसके रवैये से लगभग रोज चोटिल होती है और शिकस्त होकर अपने स्त्री होने और उसके मर्द होने के बीच के फासले को समझना चाहती है। लगातार बेटी जनने पर उसकी पत्नी को रह-रहकर बेहोशी छा जाती है। होश आने पर बस एक ही चिंता में दहाड़े मारकर रोती है,फिर गुमसुम हो जाती है कि उसकी सास उसे जीने नहीं देगी। मर्द लेखक अपनी पत्नी के भीतर इतना भी मनोबल पैदा नहीं कर पाता कि तुम्हें किसी से डरने की जरुरत नहीं है। वो मर्द एक अच्छा भाई साबित करने के लिए अपनी बहन के लिए ज्यादा से ज्यादा दहेज देकर शादी रचा सकता है लेकिन अगर उस शादी के बाद ससुराल में प्रताड़ना झेलनी पड़ जाए तो एडजस्ट करने की नसीहत के आगे वो और कुछ नहीं दे सकता। आजाद ख्याल का पैरोकार ये मर्द लेखक पैरों पर चलने के साथ ही बेटी को स्लीवलेस फ्रॉक या टॉप पहनाता है लेकिन चौदह की उम्र होते ही हमारे घर में लड़कियों को जींस अलाउ(allow)नहीं है जैसे मुहावरे में जकड़कर रह जाता है। वर्चुअल स्पेस में आते ही ये मर्द लेखर साड़ी,बिन्दी चूड़ी पहनने,न पहनने के जरिए स्त्री-विमर्श को समझने में जुट जाता है। इस मर्द लेखक के पाले में जीनेवाली स्त्रियों को ये बिल्कुल भी पता नहीं होता कि उसका ये मर्द संबंधी आए दिन स्त्रियों के लिए जो पाठ निर्मित कर रहा है वो उसके जीवन का अनुभूत सत्य है या फिर रोजमर्रा की जिंदगी के विकृत अनुभवों से बटोर-बटोरकर बनाए गए नियम जिसे कि वो वर्चुअल स्पेस पर आकर कठोरता से लागू करना चाहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो मुझे नहीं लगता कि स्त्री-विमर्श का उनका दायरा साड़ी,बिन्दी और चूड़ी तक आकर सिमट जाता।
आजाद मानिसकता के दावे करने और तंग मानसिकता के साथ जीवन जीने के बीच से जो पाठ निर्मित होते हैं वो किसी भी विमर्श के लिए संकीर्णतावादी सोच से ज्यादा खतरनाक होते हैं। जो आजाद ख्याल जीवन में नहीं है वो पाठ के स्तर पर लाने से लिजलिजा हो जाता है और ये पाठ न तो साथ जीनेवाले संबंधियों के काम का होता है और न ही विमर्श को आगे ले जाने के काम आता है। संबंधियों पर अगर इस पाठ को लादे जाएं तो आजादी का कुछ हिस्सा उनके हाथ लग जाएगा जो कि मर्द लेककों के हित में नहीं है और विमर्श में इसे शामिल कर लिया जाए तो एक अध्याय ये भी निर्मित होता चला जाएगा कि स्त्री-विमर्श के भीतर स्त्री-बेडियों को कैसे बनाया जा सकता है? दूसरी स्थिति ये भी है कि एक मर्द लेखक वर्चुअल स्पेस में स्त्री को लेकर,उसके चरित्र और पोशाक को लेकर जो कुछ भी लिख रहा है वो समाज की उन स्त्रियों के लिए आंय-वांय है,कूड़ा-कचरा है। उनके इस लिखे से उन पर रत्तीभर भी असर होनेवाला नहीं है क्योंकि ये स्त्रियां स्त्री-विमर्श का पाठ निर्माण लिखकर नहीं बल्कि असल जिंदगी में जीकर निर्मित कर रही होती है। तो फिर ऐसे पाठ का काम क्या है? ले देकर इस पाठ को उन स्त्रियों पर जबरिया लादने की कोशिश की जाती है जो कि अपने अनुभवों से स्त्री-विमर्श का पाठ रचने में लगी है। ये स्त्रियां वर्चुअल स्पेस को संभावनाओं की वो दुनिया मानती हैं जहां से कि अपने हिस्से के लिए बेहतरगी के कुछ सूत्र तलाश कर सके। ऐसे में उस पुराने लिटररी बहस में न जाकर भी कि अनुभूत सत्य ही विमर्श को सही दिशा में ले जा सकता है,इतना तो समझा ही जा सकता है कि वर्चुअल स्पेस में इस स्त्री के लिखने में और उस मर्द लेखक के लिखने में फर्क है। ये फर्क उसकी नियत और सरोकार को लेकर है।
एक मर्द लेखकर जब अपनी पोस्ट के साथ स्त्री या उसके आसपास के शब्दों को जोड़ता है और तीन घंटे बाद ही उसे हिट्स मिलने शुरु होते हैं तो दोपहर होत-होते हुलसकर लिंक भेजता है। बर्दाश्त नहीं होता तो फोन करके बताता है कि आज उसकी पोस्ट सबसे ज्यादा पढ़ी जा रही है। इस मनोदशा में वो आजाद और तंग मानसिकता से अलग एक ऐशी मानसिकता में जीना शुरु करता है जो कि स्त्री क्या किसी भी विमर्श का हिस्सा नहीं हो सकता। वर्चुअल स्पेस में स्त्री उसके लिए एक फार्मूला भर है। ये फार्मूला हर गिरते हुए ब्लॉग,लगातार हताश होती पोस्टों को जिलाए रखने के काम आती है। रीयल वर्ल्ड में स्त्री शब्द चाहे उन्हें भले ही परेशान करता हो लेकिन वर्चुअल स्पेस में ये राहत का काम करता है। जाहिर है हम ऐसे तंग उद्देश्यों के लिए स्त्रियों के सवालों पर बात करनेवाले से और कुछ ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते।
दूसरा कि हर मर्द के लिए फैशन का मतलब एक नहीं हो सकता। जरुरी नहीं कि सबों के चेहरे की चमक ऑफ्टर शेव और इमामी हैंडसम लगाकर ही बनी रहती हो। एक जमात ऐसा भी है जो कि बौद्धिकता के टूल्स जिसमें कि तमाम तरह के विमर्श शामिल है उन्हें अलग और चमकीला दिखने का एहसास कराता है। उनके लिए यही विमर्श कॉस्ट्यूम्स का काम करते हैं। स्त्रियों पर लिखते हुए ब्लॉगवाणी की टॉप पोस्ट में आनेवाले मर्द लेखक अपने चेहरे की चमक इसके जरिए ही बरकरार रखने की कोशिश में हैं।..तीसरी स्थिति उन मर्द लेखकों की है जिनमें कि कमेंट्स करनेवाले लोग भी शामिल हैं। वो स्त्री शब्द के प्रयोग से कुछ साझा करने या फिर डोमेस्टिक लेबल से लेकर पब्लिक डोमेन तक की समस्याओं पर बात करना नहीं चाहते,वो इसमें सब्सटीट्यूट पोर्नोग्राफी का सुख बटोरना चाहते हैं। इसे समझने के लिए बहुत अधिक मशक्कत करने की जरुरत नहीं। स्त्री के मसले पर लिखी गयी किसी भी पोस्ट में मर्द लेखकों के कमेंट पर गौर करें तो आपको उसकी इस मानसिकता का अंदाजा लग जाएगा। ये तब भी होगा जब वो किसी स्त्री-पोस्ट की तारीफ में बात कर रहे होंगे और तब भी हो रहा होगा जब वो लानतें भेज रहे होंगे।
अब जिस वर्चुअल स्पेस में एक स्त्री अपने अनुभवो को,समस्याओं को,तकलीफों और गैरबराबरी को सामने ला रही है,उसी स्पेस में ये मर्दवादी लेखक इन तमाम तरह की कुंठाओं और सहज सुख की तलाश कर रहे हैं। इस पर बार-बार विमर्श का लेबल चस्पाए जा रहे हैं। ऐसे में लेखक का फर्क सीधे-सीधे स्त्री के स्त्री होने और मर्द के मर्द होने को लेकर नहीं है बल्कि फर्क इस बात को लेकर है कि दोनों का इस स्पेस का इस्तेमाल अलग-अलग मतलब के लिए है। इसलिए वर्चुअल स्पेस में स्त्री सवालों को लेकर जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसमें सामंती सोच,कुंठा और फ्रस्ट्रेशन का एक बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। इसी समय प्रतिकार में ही सही एक स्त्री जब जबाब देती है तो उसे सरोगेट प्लेजर का एहसास होता है। ऐसे में ये लेखन जितना प्रत्युत्तर की मांग करता है उससे कहीं ज्यादा इग्नोरेंस की मांग करता है। हमें चस्पाए गए लेबलों की जांच करनी होगी और इन मर्दवादी लेखकों के तात्कालिक सुख की मानसिकता को हतोत्साहित करना होगा।
नोट-(जिन मर्द लेखकों की चर्चा हमने उपर की,ये बहुत संभव है कि उनमें मैं खुद भी शामिल हूं।
मूलतः प्रकाशित- चोखेरबाली
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268025451402#c3164348204423904913'> 7 March 2010 at 21:17
अच्छा आलेख।
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268042126264#c499953143630593190'> 8 March 2010 at 01:55
सर ये भी एक फेशन है.....
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268042550436#c4652280585507357085'> 8 March 2010 at 02:02
एक मर्द लेखकर जब अपनी पोस्ट के साथ स्त्री या उसके आसपास के शब्दों को जोड़ता है और तीन घंटे बाद ही उसे हिट्स मिलने शुरु होते हैं तो दोपहर होत-होते हुलसकर लिंक भेजता है। बर्दाश्त नहीं होता तो फोन करके बताता है कि आज उसकी पोस्ट सबसे ज्यादा पढ़ी जा रही है। विचारणीय........
ब्लॉगिंग क्या पढ़े-लिखे पशुओं का समूह हो गया है?
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http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268054003090#c3620279730170040072'> 8 March 2010 at 05:13
बिलकुल संभव है कि इसमें आप भी शामिल होंगे...
एक अच्छा विश्लेषण। आओ अब झूठे मुखौटे उतारकर कुछ सच भी बोलें।
- आनंद
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268055325718#c8250635430688172517'> 8 March 2010 at 05:35
अच्छा लेख।
आभासी संसार के लिए एक सुझावः
भैंस के आगे बीन बजाना बेकार है। आओ, भैंसों के आगे बीन बजाएँ।
घुघूती बासूती
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268153106150#c3696037624048864379'> 9 March 2010 at 08:45
बराबरी की सारी कागजी और कानूनी कार्रवाईयों के बावजूद भारत में संबंधों की शतरंज में नारियाँ पुरुषों के हाथ में होती है.पुरुष ही तय करता है कि महिला को कितने प्रतिशत आधुनिक होना है और कितने प्रतिशत पारंपरिक.
महिला दिवस ...हिम्मत से पतवार सम्हालो.....
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से.
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http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268215840696#c5497610724257641877'> 10 March 2010 at 02:10
एक बेहरीन विश्लेषण !नमन!
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268251572859#c4098720057359004969'> 10 March 2010 at 12:06
bhai vineet, aapne ise likhkar yah sabit kiya hai ki mai yu nahi logo se aapki tareef karta hu.
bahut hi satik vishleshhan, salam
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268279899043#c2036005720734933708'> 10 March 2010 at 19:58
sahi likha hai.soch mein loch hai.yah baat nari ka nara laga rahi nari ke baare mein bhi kahi ja sakti hai.
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268302769108#c5858246472958332039'> 11 March 2010 at 02:19
/pahli baar aapka blog padha.post achhi lagi.
http://test749348.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html?showComment=1268717933392#c3228799214620619997'> 15 March 2010 at 22:38
great analysis hypocrisy dissected
ravi