इस देश में दो प्रतिशत भी पत्रकार सही तरीके से आवाज उठाने लग जाएं,ईमानदारी से अपने काम करने लग जाएं तो मीडिया की तस्वीर बदल जाएगी। मेधा पाटकर के ऐसा कहने का सीधा मतलब है कि इस देश में ईमानदार पत्रकारों की संख्या नहीं के बराबर रह गयी है। मेधा पाटेकर की इस बात से जानी-मानी टेलीविजन पत्रकार और मीडिया शिक्षक वर्तिका नंदा सहमत नहीं है। उनका मानना है कि इस देश में दस प्रतिशत से भी ज्यादा पत्रकार ईमानदार हैं। ये अलग बात है कि स्थितियां ऐसी है कि अब उऩकी सुनी नहीं जाती। इस मसले पर मीडिया के चर्चित शिक्षक और कॉलमनिस्ट आनंद प्रधान का साफ मानना है कि अब बात ईमानदार पत्रकार के होने या नहीं होने का नहीं है। अब मीडिया हाउस में स्थिति ही ऐसी नहीं रह गयी है कि किसी पत्रकार के बीच ये विकल्प रह गए हैं कि वो चाहे तो ईमानदारी से अपना काम करे या फिर बेईमानी में शामिल हो जाए। पूरा का पूरा अखबार ही ऐसा हो गया है कि उसे हर-हाल में तिकड़मों में शामिल होना होगा। उसकी योग्यता ही इसी बात से तय होती है कि वो मालिक के मुनाफे के लिए काम कर पा रहा है या नहीं। मीडिया संस्थानों के भीतर एक विकल्पहीन दुनिया है और उसी के भीतर पत्रकार काम कर रहे हैं। इस पूरे मामले को वरिष्ठ पत्रकार और संपादक अरविंद मोहन एक बहुत ही कॉम्प्लेक्स सिचुएशन मानते हैं और उनके हिसाब से इतना आसान नहीं है कि इसे कोई एक सिरे से दुरुस्त किया जा सके। इसके लिए एक लम्बी लड़ाई लड़ने की जरुरत होगी। कल्लोल पत्रिका के संपादक और स्वतंत्र पत्रकार चैतन्य प्रकाश इस लड़ाई को दोतरफे स्तर की सक्रियता से जोड़कर देखते हैं। एक तो ये कि आज का पत्रकार अपने स्तर पर बहुत ही निरीह हो गया है,उसकी आवाज सुनी नहीं जाती,हमें इसके लिए काम करने होंगे और दूसरा कि मीडिया के भीतर संवेदना का स्वर खत्म होता जा रहा है। हमें इसे फिर से लाना होगा।

इन सारे वक्ताओं ने मीडिया,पत्रकारिता,विज्ञापन,कंटेंट के भीतर की गड़बड़ियों और उम्मीदों को लेकर जो भी बातें कही वो दरअसल विश्व पुस्तक मेला,दिल्ली में(4 फरवरी) वाणी प्रकाशन की ओर से आयोजित "पेड न्यूजःकितना घातक" एक संवाद का हिस्सा है। पेड खबरों को लेकर पहले प्रभाष जोशी और अब पी.साईनाथ के 'दि हिन्दू' में लगातार लिखे जाने के बाद से मीडिया विमर्श की दुनिया में पैसे देकर खबर छापने या दिखाए जाने को लेकर गंभीर बहसें शुरु हो गयी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पेड न्यूज के खिलाफ राजदीप सरदेसाई ने मुहिम छेड़ रखी है। ये अलग बात है कि CNN IBN पर 'सेव इंडिया'(shave india) का अभियान इसलिए चला कि उसका प्रायोजक GILLETTE जैसी कंपनी रही।

बहरहाल,शुरुआती दौर की इन बहसों से पैसे देकर खबरें छापने और दिखाए जाने पर अभी कोई बहुत साकारात्मक असर नहीं हुआ है। अव्वल तो अखबारों में अंदाजा भी लग जाता रहा है कि कौन सी खबर पैसे लेकर छापी गयी है,उसके उपर पेड न्यूज के लेबल लगने चाहिए लेकिन न्यूज चैनलों के मामले में अभी तक इसे साफ तौर से पकड़ पाना मुश्किल है। राजनीति से जुड़ी खबरों में ये भले ही आभास हो जाए लेकिन खासतौर से मनोरंजन से जुड़ी खबरों में इसका घालमेल जिस तेजी से होता है उस पर बात किया जाना बाकी है। लोकसभा चुनावों में वाकायदा अखबारों के पैकेज खरीदकर प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने का जो खेल शुरु हुआ वो लगातार बहसों और विरोध के वाबजूद भी महाराष्ट्र में पैसे के दम पर अशोक चाह्वाण को 'सम्राट अशोक'साबित करने में अखबारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। झारखंड के चुनाव में हम पेड न्यूज के कारनामें पहले ही देख चुके हैं।


पेड न्यूज की जो पूरी प्रक्रिया है वो मार्केटिंग और क्लाइंट के बीच की प्रक्रिया है। इसके बीच जो कंटेंट का सवाल है वो इन दोनों की ओर से अपने-अपने हित में प्रभावित करते हैं। ऐसे में इस पर चलायी जानेवाली बहसों का असर इस बात से होगा कि ये मार्केंटिक और क्लाइंट के बीच की अपनी दखल को कितनी मजबूती दे पाते हैं? सिर्फ मीडियाकर्मियों और संपादन के स्तर की नैतिकताओं से काम नहीं बननेवाला है। इस बात पर जोर देना और सीरियसली समझना इसलिए भी जरुरी है कि संवाद में शामिल चाहे जिस भी वक्ता ने अपनी बात रखी उसमें ये बात साफ तौर से निकलकर आयी कि पत्रकारिता के भीतर जो कुछ भी गिरावटें आ रही हैं चाहे वो कंटेंट को लेकर हो या फिर एथिक्स को लेकर उसके मूल में मालिक के हितों की रक्षा करने का दवाब ही है। इसके एक दो उदाहरण जो कि वक्ताओं की ओर से दिए है,उसे शामिल करना जरुरी होगा।

आनंद प्रधान ने अंबानी बंधुओं के विवाद को खबर नहीं बनाए जाने की घटना का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि किसी भी अखबार ने इस खबर को प्रमुखता नहीं दी और अंत में उन्हें खुद विज्ञापन देकर ये बतलाना पड़ा कि मामला क्या है? वर्तिका नंदा ने कहा कि कॉमनवेल्थ को लेकर जो भी खबरें दिखाई जा रही है वो उपर के कुछेक अधिकारियों को लेकर बातें कर दी जाती है। ये खबरें राजनीतिक स्तर पर जाकर रह जाती है। लेकिन इस बात की कहीं कोई चर्चा नहीं है कि अगर आनन-फानन में स्टेडियम और दूसरी चीजें बना भी दी गयीं तो सुरक्षा की दृष्टि से ये कितने भरोसमंद होंगे,इसे सामने नहीं लाया जा रहा। अगर कोई खबर पेड है तो उसे पाठकों को बताया जाना जरुरी है,ऐसा नहीं करने पर उनके साथ धोखा है। मीडिया उसी के भरोसे को लेकर काम करने का अधिकार पाता है। अमृता राय ने खबरों को लेकर उस बड़े घपलेबाजी को देखने-समझने की बात कही जहां कार्पोरेट की खबरें हमारे सामने आने ही नहीं पाती। हम तक उन खबरों को जान ही नहीं पाते जब तक कि कार्पोरेट हाउस खुद आकर घोषणा न कर दे कि हम दिवालिया हो गए है। इसमें ऐसा नहीं है कि पत्रकार इन खबरों को जानते नहीं है लेकिन असल मसला है कि उसे छापा और दिखाया नही जाता। ऐसा करने से विज्ञापन को लेकर दिक्कतें होगी और मालिकों का नुकसान होगा।

इस तरह इस संवाद से ये बात निकलकर आयी कि ऐसा होने से खबरों के चरित्र को लेकर किस स्तर का बदलाव आया है। पैसे देकर खबरें छापने,पूरी तरह विज्ञापन के अधीन होकर काम करने से खोजी पत्रकारिता का कोई मतलब नहीं रह गया है। खबरें कुछ ही घटनाओं और गतिविधियों को लेकर सेंट्रिक हो गयी है। आनंद प्रधान के शब्दों में ये पेड न्यूज का ही असर है कि स्टिंग ऑपरेशन दो-चार कमजोर मंत्रियों तक जाकर खत्म हो जाते हैं। बाकियों पर कोई असर नहीं होता। उत्तर प्रदेश चुनाव में मिले अपने अनुभव का जिक्र करते हुए कहा कि पत्रकार खुलेआम उन नेताओं की रैलियों और सभाओं को कवर करने से मना कर देते हैं,एक लाइन नहीं लिखते जिसने कि अखबार के पैकेज नहीं लिए हैं। आनंद प्रधान की इस बात को चैतन्य प्रकाश माननीय सरोकारों से जोड़कर देखते हैं। उनके हिसाब से खोजी पत्रकारिता एक प्रतीकात्मक बनकर रह गयी है। ऐसा होने से न सिर्फ राजनीति में बल्कि आम लोगों के हितों से पत्रकारिता बहुत दूर चली गयी है। पत्रकारिता के भीतर संवेदनशीलता और मानवीय पहलुओं का तेजी से लोप होता चला जा रहा है। बात भी सही है कि जब मुनाफे को ध्यान में रखते हुए नेताओं और असरदार लोगों तक की कवरेज नहीं होती तो फिर आम आदमी के प्रति संवेदनशील होने की गुंजाईश कहां बचती है? चैतन्य प्रकाश के हिसाब से आम आदमी जहां इस तरह की पत्रकारिता से जहां डिस्कनेक्ट कर दिया गया है वही अमृता राय इसे आम आदमी को रिजेक्ट कर दिया जाना मानती है। कुल मिलाकर कहानी वही है जो कि किसानों को लेकर हो रहा है,मजदूरों को लेकर हो रहा है,संसाधनों में गरीब तबके की हिस्सेदारी को लेकर जिस तरह के गैर मानवीय रवैये अपनाए जा रहे हैं,मेधा पाटेकर के अनुभव से वो सबकुछ अब मीडिया में भी शामिल है। यानी देश के बाकी संसाधनों की तरह खबरों पर भी आम आदमी का कोई अधिकार,हिस्सेदारी और दखल नहीं रह गयी है। ये भी पूंजी और कॉर्पोरेट की तरह अपना असर पैदा कर रहे हैं। मेधा पाटेकर इसकी बड़ी वजह मीडिया संस्थानों के विकेन्द्रित होने को मानती है।

आश्चर्य और अफसोस जाहिर करते हुए मेधा पाटेकर का मानना है कि उपरी तौर पर ऐसा देखने में लगता है कि मीडिया संस्थानों का तेजी से विस्तार हो रहा है। आए दिन नए अखबार औऱ चैनल खुल रहे हैं। इससे एकबारगी ऐसा लगता है कि किसी न किसी के जरिए आमलोगों की आवाज सुनी जाएगी लेकिन दरअसल ये मीडिया का विकेन्द्रीकरण न होकर इसका लगातार केन्द्रीकृत होता जाना है। पाटेकर की इस बात से संवाद का रुख खबरों के चरित्र से आगे बढ़कर मालिकाना हक की ओर विस्तार पाता है और इसमें एक बार फिर सारे वक्ता शामिल होते हैं। अमृता राय इस संवाद में सूत्रधार की भूमिका में होती हैं औऱ वही इस पूरे विमर्श को एक-दूसरे की बातों से जोड़ते हुए आगे बढ़ाती है। उनके इसी सूत्रधार की भूमिका से ये बात निकलकर सामने आती है कि तो आखिर उपाय क्या है,जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। मेधा पाटेकर मीडिया के केन्द्रीकृत हो जाने की बात कर रही हैं उससे ये साफ है कि दुनियाभर के मीडिया हाउसों,चैनलों और अखबारों के खुल जाने के वाबजूद भी चारित्रिक स्तर पर उनमें कोई बदलाव नहीं आता। इसका साफ मतलब है कि वो मीडिया के भीतर मुनाफे के खेल औऱ मजबूती दे रहे होते हैं। अरविंद मोहन ने इसी बात तथ्यों के आधार पर विश्लेषित करते हुए बताया कि- देश में जो भी मीडिया है उस पर मात्र चौदह घरानों का मालिकाना हक है। इतना ही नहीं जिस घराने का अखबार है उसका रेडियो भी है,टेलीविजन भी,वेबसाइट औऱ पोर्टल भी है। वही घराना फिल्मों के वितरण का भी काम कर रहा है। मतलब ये कि इस बात को लेकर कोई एथिक्स और प्रावधान नहीं है कि एक घराने को आखिर कितने माध्यमों का लाइसेंस दिया जाए? आनंद प्रधान ने इसे नाजायज और रोके जाने की दिशा में कार्यवाही करने की बात की। उन्होंने बहुत ही साफ शब्दों मे कहा कि ऐसा हो कि जो देश कै नंबर वन चैनल है उऩ्हें रेडियो चकाने के लाइसेंस न दिए जाएं। एक अखबार कितनी पत्रिकाएं चलाएगा,ये सबकुछ तय हो। यानी कि ये जरुरी है कि विकेन्द्रीकरण का काम माध्यमों को लेकर विकेन्द्रीकृत किए जाने से हो। ऐसा होने से छोटे-छोटे समूहों के भी माध्यमों के पनपने की गुंजाइश बन सकती है। कुछ लोग आपस में जुड़कर,अपने एफर्ट से मीडिया चाहे वो प्रिंट हो,पत्रिका हो या फिर रेडियो हो,इसकी न केवल शुरुआत कर सकते हैं बल्कि वो इन बड़े घरानों के हाथों कुचले नहीं जाएंगे। विमर्श का ये सिरा आगे जाकर वैकल्पिक मीडिया की जरुरतों पर जाकर खुलता है।..और जो बात मेनस्ट्रीम की मीडिया की गड़बड़ियों और उसे दुरुस्त करने से शुरु होती है उसी क्रम में इस बात पर भी चर्चा होती है कि वैकल्पिक मीडिया को मजबूती दी जाए।

चैतन्य प्रकाश की बातचीत का बड़ा हिस्सा इस बात पर ही केन्द्रित रहा कि जब भी हम वैकल्पिक मीडिया की बात करते हैं तो सिर्फ अखबार और पत्रकाओं तक आकर सीमित क्यों हो जाते हैं? हम चैनलों औऱ बाकी दूसरे माध्यमों की बात क्यों नहीं करते? हमें अपने प्रयास से इसे भी खड़ा करना होगा। इसी बात को आनंद प्रधान ने कॉर्पोरेट मीडिया से अलग की मीडिया के विस्तार की बात कही और मेधा पाटेकर को संबोधित करते हुए कहा कि आप तमाम तरह के सामाजिक मसलों पर आंदोलन चली रही हैं,ये अच्छा होगा कि आप मीडिया को लेकर भी इस तरह के सक्रिय अभियान चलाए। आपने भोपाल में पहले ऐसा किया है। इसे औऱ आगे ले जाने की जरुरत है। अभी भी बदलाव को लेकर जो भी आंदोलन औऱ सक्रियता चल रही है उसमें मीडिया को पूरी तरह शामिल नहीं किया गया है। मीडिया को कैसे दुरुस्त किया जाए इसके लिए भी सामाजिक संगठनों को आगे आना होगा। लेकिन वहीं वर्तिका नंदा ने वैकल्पिक मीडिया के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है,उसके भीतर के सच को भी सामने लाया। उन्हीं के शब्दों में विश्वविद्यालय औऱ संस्थानों में जो कम्युनिटी रेडियो है उसकी हालत देश के दलितों जैसी है। टेलीविजन की ट्रेनिंग के तहत तो एंकर बनने के सपने बच्चों की आंखों में पहलने दिए जाते हैं लेकिन रेडियो यूनिट धूल खाती रहती है। उसे बस प्रदर्शनी के दौरान चमकाया जाता है। मीडिया का सिलेबस 12 साल पुराना है जबकि मीडिया रोज बदल रहा है। वर्तिका नंदा के कहने का मतलब साफ है कि संस्थान वैकल्पिक मीडिया खड़े करने में नामकाम रहे हैं और जो संसाधन इस दिशा में लगाए गए हैं वो बर्बाद चला जा रहा है।

लेकिन उनके हिसाब से उम्मीद अब भी है। उन्होंने वेकल्पिक मीडिया के इस सवाल को ब्लॉग के भीतर की संभावना से जोड़कर देखने की बात कही। उन्होंने ये स्वीकार करते हुए कहा कि आज पत्रकारों की आदत में ये शामिल है कि वो महत्वपूर्ण वेबसाइटों औऱ ब्लॉगों को डेलीरुटीन के तहत पढ़ते हैं। मैं मीडिया हाउसों की गड़बड़ियों के लेकर अगर लिखती हूं तो वो अखबारों में नहीं छपेगा लेकिन हमारे पास माध्यम है। हम सबके पास आज ब्लॉग औऱ वेबसाइट की दुनिया है जहां से कि हम अपनी बात लोगों तक पहुंचा सकते हैं। इसलिए मैं मौजूदा हालातों को लेकर बहुत निराश नहीं हूं। आज 25 लाख लोग इंटरनेट पर जाकर देख-पढ़ रहे हैं,कल इसकी संख्या में इजाफा होगा। यहां पर आकर पूरी बातचीत इस मुद्दे पर आकर ठहरती है कि अगर आप लेखन के जरिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं तो उसकी गुंजाइश पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। मेनस्ट्रीम मीडिया में भले ही आपकी बात नहीं सुनी जाती हो लेकिन आप ये का अपने स्तर पर कर सकते हैं। अरविंद मोहन के शब्दों में स्वयंभू हो सकते हैं। इस असरदार बातों के साथ थोड़ी दिक्कत ये हुई कि अंतिम दौर तक आकर ये संवाद एक हद तक कोरी नैतिकता के लादे जाने से बैठी ऑडिएंस पर भारी पड़ने लग गया

नैतिकता का वो हिस्सा जो कि सुनने में तो बहुत ही अच्छा लगता है लेकिन व्यवहार के स्तर पर इसे शामिल किया जाना उतना ही कठिन है। खासकर चैतन्य प्रकाश औऱ बाद में पुष्पराज की उठायी गयी बातों को सुनते हुए हमने जो महसूस किया। उनके हिसाब से पत्रकारिता को हमें मानव सेवा और सामाजिक कर्म से जोड़कर देखना होगा। यहां तक तो बात समझ आती है। लेकिन एक मीडिया स्टूडेंट की ओर से करियर की संभवना पर की गयी बात कि हमे अगर भरपेट खाने को भी मिल जाए तो हम पत्रकारिता करने के लिए तैयार रहेंगे और इसके जवाब में मेधा पाटेकर की सलाह कि आप हमारे साथ आइए हम आपको भरपेट खाना भी देंगे और सोने की जगह भी। छात्रों के मीडिया को करियर से जोड़कर देखे जाने की बात पर चैतन्य प्रकाश की राय कि हमें वेतनभोगी पत्रकार से उपर उठकर सोचना होगा।

पुष्पराज को मुझसे कही गयी बात कि मैं आपको,आपके फ्रस्ट्रेशन की बधाई नहीं दूंगा। मीडिया पूरी तरह से नैतिक कर्म है और हमें समाज सेवा समझकर इसे करना चाहिए। मीडिया को सरर्वाइवल औऱ करियर के सवाल से जोड़कर देखना क्यों गलत है? हर सफल आदमी नियमें गढ़ने की फिराक में क्यों है? मीडिया स्टूडेंट के भीतर वो समझ क्यों नहीं पैदा की जा रही जो कि उन्हें विश्वसनीय लगे। छ साल सात साल का अनुभव लिए पत्रकार स्टूडेंट को मीडिया एक्सपीरिएंस के बजाय फ्रस्ट्रेशन क्यों शेयर करता है? संस्थानों के अध्यापक वो पाठ क्यों पढ़ाते हैं कि वो आगे मीडिया में जाने के बजाय कुछ और कोर्स करने लग जाता है? मेरी बात पुष्पराज के लिए मेरी बात फ्रस्ट्रेशन इसलिए है कि मैं मीडिया को एक प्रोफेशन की तरह समझना और विश्लेषित करना चाहता हूं। मैंने वहां पत्रकारों के उस दर्द पर बात करनी चाही जहां एक चैनल के बंद हो जाने पर ढाई सौ मीडियाकर्मी सड़क पर आ गाए। वो कर्ज से लदे हैं इसलिए पिछले दरवाजे से घर आते हैं। उसकी पत्नी पानी में आटे घोलकर बच्चे को दूध बोलकर पिलाती है। मुझे संवाद का अंतिम हिस्सा इसलिए कमजोर,यूटोपियाग्रस्त सोच और अव्यावहारिक लगा क्योंकि यहां तक आते-आते पत्रकारिता को एक ईमानदार पेशे के बजाय नितांत संतकर्म साबित करने की पूरजोर कोशिशें की गयी।..वैसे पूरी बात को समेटते हुए अमृता राय ने वैलेंस बनाने की कोशिश की।
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8 Response to 'paid news के खिलाफ- अरविंद मोहन,मेधा पाटकर, आनंद प्रधान,वर्तिका नंदा,अमृता राय और चैतन्य प्रकाश'
  1. PANKAJ PUSHKAR
    http://test749348.blogspot.com/2010/02/paid-news.html?showComment=1265352920427#c7371771283417219358'> 4 February 2010 at 22:55

    पुस्तक मेला गंभीर चर्चा और चिंतन का आयोजन भी बने इसकी कोशिश को बढ़ावा मिलना चाहिए. भाई अरुण महेश्वरी को बधाई कि उन्होंने अपनी कल्पना को पुस्तक-विमोचन के आत्म-रति में डूबे कार्यक्रमों से आगे विस्तार दिया. भाई विनीत को ह्रदय से धन्यवाद कि इतिहास लेखन के लिए कच्छा माल जुटाने का सत-कर्म एक बार और उनके हाथो हो सका.
    Pankaj Pushkar

     

  2. Suresh Chiplunkar
    http://test749348.blogspot.com/2010/02/paid-news.html?showComment=1265356310841#c4965359804735290290'> 4 February 2010 at 23:51

    बहुत अच्छा वैचारिक विमर्श और विचार पढ़ने मिले… धन्यवाद आपका…

     

  3. डॉ महेश सिन्हा
    http://test749348.blogspot.com/2010/02/paid-news.html?showComment=1265381616161#c1680935387254477169'> 5 February 2010 at 06:53

    मेघा पाटकर को कौन पे कर रहा है ये भी बतायें

     

  4. डॉ महेश सिन्हा
    http://test749348.blogspot.com/2010/02/paid-news.html?showComment=1265382051304#c452668020299996341'> 5 February 2010 at 07:00

    http://anilpusadkar.blogspot.com/2009/12/blog-post_23.html

     

  5. कृष्ण मुरारी प्रसाद
    http://test749348.blogspot.com/2010/02/paid-news.html?showComment=1265387829053#c8971095863804997297'> 5 February 2010 at 08:37

    मिडिया , खासकर चैनलों में न्यूज की गुणवत्ता को लेकर जो विचार, विमर्श ,होड़ और उसके गिरते स्तर की चर्चा चल रही है, उसमे एक और बात स्पष्ट करना चाहता हूँ. दरअसल न्यूज चैनलों की लड़ाई आपस में कम तथा सीरियल बाले चैनलों से ज्यादा है. न्यूज चैनल किसी एक न्यूज की एक लाईन पकड़ कर आधा घंटा तक न्यूज दिखाते रहते हैं, सीरियल की तरह.वो भी सनसनीखेज बनाकर. कभी-कभी तो एक शब्द पकड़ कर ससपेंस बनाकर इस तरह न्यूज बनाया जाता है कि जैसे कोई जासूसी सीरियल चल रहा हो. समाचारों की न केवल मात्रा कम हो गयी है वल्कि गुणवत्ता में भी भरी गिरावट आई है.न्यूज चैनल अखबार की जगह तो नहीं ले पा रहे , लेकिन पत्र-पत्रिकाओं की जगह लेने की ओर जरूर आगे बढ़ रहे हैं.इसी कारण न्यूज चैनलों में भूत-प्रेत,भविष्य बाणी, अंध-विश्वाश, इत्यादि... न जाने कितने प्रोग्राम आने लगे हैं. सीरियल बाले चैनल देखने से कम से कम दर्शक ये तो जानते समझते हैं कि ये सब कहानी-ड्रामा हैं. मनोरंजन का भाव तो रहता ही है. न्यूज चैनलों से सबसे ज्यादा निराश आजकल पढ़ा-लिखा वर्ग ही है जिसे मानसिक खुराक नहीं मिल पा रहा है.रेटिंग की दौड में ज्यादा कमाई के लिए जब न्यूज चैनल बाले पिछड़ रहे हैं तो पेड-न्यूज के सहारे धंधा बढ़ा रहे हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि विश्वसनीयता और गिरती जा रही है.

     

  6. डॉ महेश सिन्हा
    http://test749348.blogspot.com/2010/02/paid-news.html?showComment=1265393355379#c9057127121146265071'> 5 February 2010 at 10:09

    केएमपी से सहमत

     

  7. मधुकर राजपूत
    http://test749348.blogspot.com/2010/02/paid-news.html?showComment=1265431472682#c6218336298896888654'> 5 February 2010 at 20:44

    यार, विनीत जी आप भी थे वहां। दस मिनट के लिए रुका था मैं भी, आपको देखता तो मिल भी लेता। बौद्धिक माफियाओं को देखा और ज़रा सा सुनकर चला गया, किताबें टटोलने।

     

  8. bhojpuriyababukahin
    http://test749348.blogspot.com/2010/02/paid-news.html?showComment=1265433939855#c7869753221345793886'> 5 February 2010 at 21:25

    निराश न हों...

    मीडिया में पैसे लेकर खबर छापने की प्रवृति नई नही है. लेकिन अब तो मीडिया ने हद ही पार कर दिया है. पाठको के साथ धोखा, इंसानियत के साथ धोखा, चारो-ओर धोखा ही धोखा. जो दिखाया जा रहा है अथवा लिखा जा रहा है उस पर विश्वास कर पाना मुश्किल होता जा रहा है. मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार चिंतन का विषय तो है ही, लेकिन अब जब देश के जाने-माने पत्रकार-बुद्धिजीवि इस को लेकर आंदोलन चलाने लगे हैं, आशा की जानी चाहिए की आने वाली नई पीढ़ी को एक पारदर्शी माहौल में पत्रकारिता करने का मौका मिलेगा. हमें अब मीडिया घरानों से ऊपर उठकर एक वैकल्पिक मीडिया के भविष्य पर ध्यान देने, उसको संवारने और उसको आगे बढाने की जरूरत है. वैसे मीडिया में अभी भी अच्छे लोग हैं, शायद तभी तो आज हम पेड न्यूज के मसले पर इतना गंभीर चर्चा कर पा रहे हैं.
    आशुतोष कुमार सिंह
    91-9891798609

     

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