टीआरपी के आइने में देश को देखें

Posted On 20:36 by विनीत कुमार |


टीआरपी के मसले पर भाजपा नेता और टेलीविजन स्क्रीन पर अक्सर देखे जानेवाले रविशंकर प्रसाद सहित राजीव शुक्ला और वृंदा कारत ने जो बात कही, उस पर सोचते हुए मुझे लगता है कि वो दूरदर्शन को लेकर नास्‍टेल्जिक होने से अभी तक अपने को रोक नहीं पाये हैं। अभी तक वो इसी के इर्द-गिर्द रखकर नियामक बनाने का अभ्यास करने में जुटे हैं। राजीव शुक्ला की बात पर हमें अपने चचेरे भाइयों की याद आ रही है जो भरी दुपहरिया में मां के लाख कहने पर कि सो जाओ, हम उनके साथ लूड़ो खेलते और हारने की स्थिति में, गोटी लाल न होने कि स्थिति में (लूडो में चार रंगों की चार चार-गोटियां होती हैं जिसे होम तक लाना होता है, इसे गोटी लाल करना कहते हैं) खेला भंडूल (खेल बिगाड़ना) कर देते। पहले तो हमलोगों में बहसबाजी होती, फिर हाथापाई। मामला जब कंट्रोल से बाहर हो जाता, तो मां या चाची को बीच-बचाव के लिए आना पड़ता और वो लूड़ो को चार टुकड़ों में करते हुए कहती – ये लो, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। टीआरपी के मामले में राजीव शुक्ला संभवतः इसी तरह की समझ रखते हैं। लेकिन गौर से समझिए तो इसमें न तो लूड़ो का कोई कसूर है और न ही ऐसा है कि लूड़ो के फाड़ देने से मामला ख़त्म हो जाएगा। अगले दिन हम फिर चंदा करते, फिर लूड़ो खरीदते, फिर लड़ते, मां फिर लूड़ो फाड़ती और फिर देखते ही देखते हम बड़े हो गये। टीआरपी का खेल अभी ढंग से शुरू भी नहीं हुआ है कि राजीव शुक्ला इसे विलेन बता कर भंडुल करना चाहते हैं। जिसे कि रंगनाथ सिंह के नजरिये से कि क्या ऐसा करते हुए इलाज की तरफ बढ़ा जा रहा है या फिर लक्षणों को ही लगातार दबाने की कोशिशें जा रही है के रूप में समझा जा सकता है। इस पूरे मामले में मुझे लगता है कि क्या इसकी संभावना है कि जिस तरह हम लड़ते-भिड़ेते एक दिन बड़े हो गये, मैच्योर हो गये, टीआरपी के खेल में शामिल चैनल और लोग वैसे ही हो जाएंगे। टीआरपी को जी का जंजाल मान कर इसे हटाने की पैरवी करने से पहले हमें इस सिरे से भी सोचने की ज़रूरत है।

टेलीविजन और चैनलों को बेहतर बनाने की कोशिश में सांसदों ने जो कुछ भी कहा है, उसे पढ़ते-समझते हुए मुझे दो-तीन बातों पर ग़ौर करना ज़रूरी लगता है। इस पर कायदे से बात किये बिना रेगुलेशन के लिए कमेटी गठित करने, महीने में एक बार टीआरपी लाने या फिर एकदम से हटा देने की बात सारे चैनलों को दूरदर्शन मार्का रंग से पोतने के अलावे कोई नयी कोशिश नहीं होगी।

पहली बात तो ये कि सांसद, राजनीति से जुड़े लोग या फिर देश की जनता के लिए कायदे-कानून बनाने वाले लोगों को जनता शब्द को डिफाइन करना होगा। रविशंकर प्रसाद जब ये कहते हैं कि – जब हम संसद में बैठते हैं तो हमारी जवाबदेही देश के प्रति बनती है। उन्हें ये पहले स्पष्ट कर देना होगा कि ये जवाबदेही किस तरह की है। आम नागरिक के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाओं को जुटाने की कोशिश में सहयोग करने की, पानी-बिजली, सड़क या फिर दूसरे मसलों को दुरुस्त करने की या फिर संसद में बैठकर ये तय करने की कि कल से देश के नागरिक सच का सामना देखेंगे कि नहीं, बालिका वधू आगे प्रसारित होने चाहिए कि नहीं। वो संसद में बैठकर जीने के स्तर पर ज़रूरत को लेकर बात करना चाहते हैं या फिर मनोरंजन के स्तर पर जनता की अभिरुचि को लेकर, इसे पहले तय करना ज़रूरी है। राजीव शुक्‍ला की समझ पर रंगनाथ सिंह ने अपनी पोस्‍ट में लिखा कि बिहार-बंगाल में टीआरपी के बक्से लगाने ज्यादा ज़रूरी हैं या फिर पानी, बिजली और सड़क की गारंटी देना। जाहिर तौर पर टीआरपी का संबंध सिर्फ बक्से के लगाने और नहीं लगाने से नहीं है। इसे आप हाल में आये टीआरपी की रिपोर्ट से समझ सकते हैं…

…सूर्य ग्रहण को लगभग सारे हिंदी चैनलों ने तीन दिनों तक लगातार दिखाया। सबों को औसत दिनों की अपेक्षा ज़्यादा टीआरपी मिली। आजतक और इंडिया टीवी चैनलों ने इसे अंधविश्वास और पाखंड को हवा देते हुए दिखाया। उन विश्वासों के समर्थन में स्टोरी चलायी, जो कि कर्मकांड को मज़बूत देते हैं। इसकी टीआरपी क्रमशः 19.4 प्रतिशत 16.6 प्रतिशत रही, जबकि स्टार न्यूज़, एनडीटीवी और जी न्यूज ने कर्मकांडों के विरोध में स्टोरी ब्राडकास्ट की, जिसकी टीआरपी क्रमशः 14.4, 9.4 और 10.3 प्रतिशत रही। रविशंकर प्रसाद बताते हैं कि टीआरपी के बक्से बिहार, बंगाल या फिर देश के किसी भी छोटे इलाके में नहीं हैं। इसे अगर आप साक्षरता दर के लिहाज से देखें, तो जाहिर तौर पर इन इलाकों से ज़्यादा पढ़े-लिखे लोगों ने इस पाखंड और कर्मकांड से जुड़ी स्टोरी को देखा। अब सासंदों का ये फार्मूला फेल हो गया कि पढ़-लिख कर लोग बेहतर चीजें देखते हैं या देखेंगे। जिस टीआरपी को आप बाज़ार का पहरुआ साबित कर रहे हैं जो कि है भी, आप उसी टीआरपी से उन कारणों का भी पता लगा सकते हैं कि शिक्षा और संचार के स्तर पर संपन्‍न समाज भी अगर पाखंड और कर्मकांड से जुड़ी ख़बरों को ज़्यादा देख रहा है तो इसके पीछे क्या कारण हैं। तब आपको समझ आएगा कि हमें सोशल इंजीनियरिंग के स्तर पर क्या-क्या काम करने हैं। इस मामले में परसों की कमाल खान (एनडीटीवी इंडिया) की स्पेशल स्टोरी पर गौर कीजिए। स्टोरी में साफ तौर पर दिखाया गया कि ब्राह्मण मिश्रा से लेकर कायस्‍थ तक ने किस तरह मायावती के पैर छुए और उनके लिए कसीदे पढ़े लेकिन दूसरी तरफ ये भी स्थिति है कि बदहाली के बावजूद एक राजपूत गांव से पचास किलोमीटर जाकर रंगाई का काम कर सकता है, लेकिन वहीं रह कर मज़दूरी नहीं कर सकता क्योंकि दलितों के साथ काम करने में उनके बाप-दादाओं की इज्ज़त में बट्टा लगता है। रंगनाथ सिंह जिस ज़रूरत को पानी, बिजली और सड़क से जोड़ कर देख रहे हैं, मैं उसे सामाजिक संरचना और उसके भीतर की कल्चरल प्रैक्टिस के स्तर पर बात करना चाहता हूं और ऐसा करते हुए मुझे बार-बार लगता है कि संसद में बहस कर रहे लोगों को किताबों में लिखी संस्कृति और मूल्यों का हवाला देने के बजाय उसकी प्रैक्टिस को लेकर बात करनी चाहिए।

जैसा कि रविशंकर ने चैनल से जुड़े लोगों के आगे सवाल रखा कि-आपको किसने यह अधिकार दे दिया कि देश क्‍या देखना चाहता है, इसकी सही समझ आपको ही है। ये सवाल हम अपने सांसदों से नहीं कर सकते, करनी भी नहीं चाहिए, यहां हम मतदान के महत्व को झुठलाना नहीं चाहते। लेकिन इतना तो ज़रूर जानना चाहेंगे कि आखिर क्या वजह है कि आपके प्रसारण मशीनरी को इस बात की समझ होते हुए भी कि (अगर वाकई समझ है तो) देश क्या देखना चाहता है वो खबरों के मामले में, अब तो कार्यक्रमों के मामले में भी कोई उदाहरण पेश नहीं कर पाता। यहां भी घाटे की भारपाई के लिए जुनून, शांति और स्वाभिमान जैसे संस्कृति विरोधी सीरियल (आप ही की परिभाषा के आधार पर) चलाए गये। आखिर क्या कारण है कि दूरदर्शन को देखना एक मजबूरी का मनोरंजन होता जा रहा है। जितनी तेजी से लोग केवल नेटवर्क और डिश टेलीविजन से जुड़ते जा रहे हैं, वो दूरदर्शन की ओर पलट कर नहीं आते। ये बात मैं पूरी जिम्मेवारी और रिसर्च के आधार पर कह रहा हूं कि जिन-जिन घरों में निजी चैनल देखने की सुविधा है, उनमें से इक्का-दुक्का ही होंगे जो कि दूरदर्शन देखते होंगे जबकि तमाम आलोचना के बाद भी वो निजी चैनलों को देखना ही पसंद करते हैं। इस बात पर भी बहस करने की ज़रूरत है कि दूरदर्शन पर तो कभी भी टीआरपी का दबाव नहीं रहा, उनसे जुड़े लोगों को कभी अपने मालिकों के आगे कमाऊ पत्रकार साबित करने की जद्दोजहद नहीं झेलनी पड़ी लेकिन आख़‍िर ऐसा क्यों है कि लोग रोज़मर्रा की चर्चा में इसका रेफरेंस तक नहीं देते, इसकी ख़बरें पत्रकारिता की मिसाल नहीं बन पातीं।

मुझे लगता है कि टेलीविज़न पर जब भी चिंता की जाती है और जैसे ही इसमें देश के लोग और परिवार, संस्कार, मूल्यों और नैतिकता जैसे सवालों के लिहाज से विचार करने का काम शुरू किया जाता है, तो उसे नागरिकशास्त्र की किताबों में व्याख्यायित शब्दावली के हिसाब से देखने की कोशिश की जाती है। इस बात को मानने के लिए हम तैयार नहीं हैं कि क्रमशः सभी स्तरों पर चाहे वो परिवार हो, मूल्य हो या फिर संस्कृति – अब वो रूप नहीं रह गया है। इसलिए जाहिर है कि विश्लेषण का ये फार्मूला भी नहीं होना चाहिए। नेशन स्टेट की संस्कृति नागरिक के जीने की संस्कृति से बिल्कुल अलग है और होती है। संभवः है कि देश के भीतर, सांसदों के बनाये नियमों के भीतर जीनेवाली देश की जनता उसे मानने और उसी हिसाब से सोचने के लिए बाध्य है लेकिन वही नागरिक जब टेलीविजन देख रहा होता है, तो वो देश का नागरिक होने के पहले ऑडिएंस हो जाता है। घंटे-दो घंटे के लिए एक नागिरक की प्राथमिकताएं परे हटकर एक ऑडिएंस की पसंद, इच्छा और अनिच्छा ज्यादा मज़बूती से सामने आती है। इसलिए टेलीविज़न पर दिखाये जानेवाले कार्यक्रमों और संसद में बैठकर तय करनेवाली नीतियों के बीच की रस्साकशी दरअसल एक नागरिक की ज़रूरत और एक ऑडिएंस की पसंद-नापसंद को समझने और नहीं समझने के बीच का विधान है। हममें से कौन चाहेगा कि एक तेज़तर्रार लड़के को पकड़ कर ज़बरदस्ती शादी कर दे! एक बार कल्पना तो कीजिए, तो रूह कांप जाती है लेकिन टेलीविजन पर भाग्यविधाता की टीआरपी अच्छी जाती है, लोगों के बीच खूब पॉपुलर भी है। किसी लड़की को दूसरे के हाथों, दूसरे के आगे तीसरे के हाथों बेचे जाने की घटना पर हम दुख जाहिर करते हैं, ऐसा न होने की भरपूर कोशिश करते हैं लेकिन अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजो देखना हमें अच्छा लगता है। इसलिए ज़रूरी नहीं कि एक नागरिक की जो ज़रूरत है, वही एक ऑडिएंस की भी ज़रूरत हो। इसे बहुत पहले ही अरस्तू ने कार्थासिस (विरेचन) के जरिए समझाने का प्रयास किया और बताया कि कई बार ट्रैजडी को नाटक रूप में देख कर हम भीतर से विरेचित होते हैं, परफेक्ट होते हैं। टेलीविज़न के ऐसे कार्यक्रमों पर हाय-तौबा मचाने से पहले हमें इस प्रोसेस से भी टेलीविजन को देखना होगा, तब सच का सामना के सवाल भी हमें अटपटे नहीं लगेंगे। टेलीविजन को दुरुस्त करनेवाले लोगों को नागरिक और ऑडिएंस के फर्क को समझना जरुरी है और उसमें अभिरुचि शब्द को भी जोड़कर देखना होगा।

अब हम टेलीविजन को टीआरपी से जुदा करके रेगुलेशन पर बात करें, तो वृंदा कारत ने साफ कहा है कि सेल्फ रेगुलेशन का मामला पूरी तरह असफल रहा है इसलिए अब हमें रेगुलेशन बनाने की ज़रूरत है। इस तरह के रेगुलेशन बनने से पहले दूरदर्शन से एक बार ज़रूर सवाल करना चाहिए कि उनकी विफलता किस स्तर की है कि सबों की जुबान पर चाहे वो किसी भी रूप में क्यों न हो, निजी चैनलों का ही नाम होता है। सांसदों को ये बात भले ही बुरी लगे लेकिन सच है कि आज अगर देश की जनता सब्सिडी पर दिये गये दो रुपये-तीन रुपये किलो का चावल खाकर उसे वोट दे ही दे, इसकी तो कोई गारंटी नहीं – तो फिर डेढ़ सौ-दौ सौ रुपये महीने लगाकर उनके मुताबिक कार्यक्रम देखें – इसकी क्या गारंटी है? और फिर बेहतर कार्यक्रम का मतलब सिर्फ रामायण और बाबा रामदेव का योग ही तो नहीं होता, इसे तय करने के लिए कैनवास को बड़ा करके देखने की ज़रूरत है। दरअसल टेलीविजन और ऑडिएंस के बीच जो नये संबंध बने हैं, संसद में बहस करने वाले लोग इस संबंध को या तो समझना नहीं चाह रहे या फिर समझ कर इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। रविशंकर प्रसाद को अब युवाओं के पैर की थिरकन महसूस हो रही है लेकिन, तो, फिर भी… लगाकर उस लिहाज से सोचने से अपने को रोकते हैं, वो संबंध शुद्ध रूप से एक उपभोक्ता और आपूर्तिकर्ता का संबंध है। करोड़ों रुपये लगाने के बाद चैनल जहां संतई काम करने के लिए नहीं आये हैं, वहीं महीने में ढाई-तीन सौ रुपये लगानेवाली ऑडिएंस महज एक नागरिक की हैसियत से टेलीविजन देखने के पक्ष में नहीं है तो टेलीविजन में लगनेवाली पूंजी से लेकर उसके काम करने के तरीके पर विचार करना होगा।

टीआरपी को हटाकर चैनल को बेहतर होने की गारंटी कार्ड तैयार करना न सिर्फ सहूलियत के लिए निकाला गया हल होगा बल्कि उसे पहले से और अधिक बर्बर बनाना होगा। वैसे भी टैम की रिपोर्ट मानने के लिए आप बाध्य तो हैं नहीं, आप इसी तरह से कई और ऐजेंसियों के हाथों रिपोर्ट लाने की दिशा में पहल करें। केबल ऑपरेटिंग सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए जब टाटा स्काई, बिग टीवी और डिश टीवी को एक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं तो फिर टीआरपी के मामले में क्यों नहीं। पूरी तरह पूंजीवादी खेल में शामिल टेलीविजन चैनलों को लेकर आज अगर परेशानी आ रही है, तो इसका हल भी इसी की शक्ल और मिजाज के बीच से खोजने होगे। पूंजीवादी टेलीविजन और समाजवादी विचार का कॉकटेल न तो संभव है और न ही किसी को रास आएगा। शायद टीआरपी हटाये जाने की संभावना पर खुश होनेवाले चैनलों को भी नहीं क्योंकि वो टीआरपी का डंडा फिर भी बर्दाश्त कर ले रहे हैं लेकिन नेशन स्टेट का शायद ही कर पाएं। क्योंकि उन्हें पूंजीवाद से पैदा होनेवाली अड़चनों को झेलने की धीरे-धीरे आदत होती जा रही है, नेशन स्टेट का दखल उनके लिए ज्यादा भारी पड़ जाएगा। भरोसा न हो तो सर्वे करा लीजिए
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4 Response to 'टीआरपी के आइने में देश को देखें'
  1. Abhishek
    http://test749348.blogspot.com/2009/08/blog-post_01.html?showComment=1249191781656#c4621858250433210459'> 1 August 2009 at 22:43

    अफीम जानते हैं? शुरू शुरू में अच्छी नहीं लगती लेकिन एक बार आदत पड़ जाए तो छूटती नहीं. टी वी सीरियल और चैनल का यही हिसाब होता है. अगर मेरे घर में बक्सा लगा है तो मुझे क्या अच्छा लगता है इसका इस बात से सरोकार नहीं है की वो चीज़ अच्छी है या नहीं, वो बस मुझे पसंद है. और चैनल मेरी पसंद को चीज़ की अच्छाई समझ कर आप पर ठोपेंगे ! मुझे नहीं पता की पोपुलारिटी नापने का कोई और पैमाना हो सकता है या नहीं, लेकिन मौजूदासिस्टम तो सही नहीं ही है.

     

  2. Suresh Chiplunkar
    http://test749348.blogspot.com/2009/08/blog-post_01.html?showComment=1249191910740#c6961859769574503556'> 1 August 2009 at 22:45

    विनीत भाई, आपने टीआरपी रेटिंग एक माह में एक बार जारी होने के खिलाफ़ कोई मजबूत तर्क नहीं दिया? इस सिस्टम में क्या आपत्ति है? टीआरपी समर्थकों की बात भी रह जायेगी…

     

  3. जितेन्द़ भगत
    http://test749348.blogspot.com/2009/08/blog-post_01.html?showComment=1249219210002#c5090774816482263792'> 2 August 2009 at 06:20

    सही कहा कि

    बेहतर कार्यक्रम का मतलब सिर्फ रामायण और बाबा रामदेव का योग ही तो नहीं होता, इसे तय करने के लिए कैनवास को बड़ा करके देखने की ज़रूरत है।

     

  4. आनंद
    http://test749348.blogspot.com/2009/08/blog-post_01.html?showComment=1249284665146#c8889963501976508409'> 3 August 2009 at 00:31

    बहुत अच्‍छा विश्‍लेषण, एक नागरिक और एक ऑडियंस की अलग-अलग च्‍वॉइस होती है...


    - आनंद

     

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