भोपाल में जर्जर सुरक्षा व्यवस्था और प्रशासन के लिजलिजेपन को बताने के लिए दैनिक भास्कर, भोपाल के एडिटर अभिलाष खांडेकर ने भोपाल को बिहार होने से बचाएं जैसे वाक्य का प्रयोग किया। लिजलिजे प्रशासन औऱ गुंडागर्दी जैसे शब्दों के प्रयोग के बदले खांडेकर साहब ने बिहार को एक मुहावरा या फिर मेटाफर के तौर पर इस्तेमाल किया। देश के किसी भी हिस्से को लेकर इस तरह की क्षेत्रवादी मानसिकता, व्यवहार के स्तर पर कोई नयी बात नहीं है, खासकर राजनीति में इसे रुटीन लाइफ की तरह शामिल कर लिया गया है। लेकिन लिखने-पढ़ने के स्तर पर इस तरह का प्रयोग वाकई भीतर से हिला देनेवाला है।

खांडेकर साहब जैसे पत्रकार की मानसिकता का कोई विशेषज्ञ जब पुणे में बिहार के किसी छात्र से सवाल करता है कि अपराध की राजधानी किसे कहा जाता है और उसके जवाब नहीं दिए जाने पर सवाल करनेवाला विशेषज्ञ खुद ही जवाब देता है – बिहार तो अब तक की समझ से ठीक उलट समझदारी की एक बिल्कुल अलग परत दिमाग में जमती है कि – कहीं पढ़-लिखकर व्यक्ति पहले से कहीं ज्यादा धार्मिक कट्टरता, क्षेत्रवादी दुराग्रहों और घृणा फैलानेवाले एजेंट के तौर पर काम करने नहीं लग जाता। ये सवाल इसलिए भी दिमाग़ में आते हैं कि खांडेकर मामले में मोहल्ला live पर की गयी मेरी टिप्पणी पढ़ने के बाद, देर रात दैनिक भास्कर, भोपाल के एक पत्रकार ने बातचीत के क्रम में बताया कि इस तरह से क्षेत्र और जाति को लेकर भेदभाव की बड़ी साफ तस्वीर आप मेरे ऑफिस में आकर देख सकते हैं। इस तरह का भाषा-प्रयोग पाठक वर्ग के साथ-साथ स्वयं मीडिया हाउस के भीतर किस तरह का गंदला महौल पैदा करेगा, इसका अंदाजा शायद खांडेकर जैसे संपादक को अभी नहीं है। क्षेत्र, भाषा, जाति और धर्म को लेकर मीडिया हाउस के बीच होनेवाली लामबंदी के बीच से किस तरह की पत्रकारिता निकलकर सामने आएगी, इसे समझने में शायद उन्हें अभी वक्त लगे।

इधर इंटरनेट की दुनिया में मौजूद पत्रकारों और ब्लॉगरों ने खांडेकर की इस क्षेत्रीयता के स्तर पर नफरता फैलानेवाली भाषा का प्रतिरोध शुरू किया, तभी से भास्कर डॉट कॉम पर सांप-सीढ़ी का खेल शुरू हो गया। पहले तो बिहार की जगह जंगलराज शब्द का प्रयोग किया गया। तब तक भास्कर की ही साइट पर खांडेकर के विरोध में कई कमेंट आ चुके थे। सबों ने जमकर इसकी भर्त्सना की थी। साइट के एडिटर राजेन्द्र तिवारी ने अपनी ओर से माफी मांगी और लिखा,

हम हर क्षेत्र और वहां के निवासियों का आदर करते हैं। हमारा उद्देश्य किसी क्षेत्र विशेष या वहां के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। हमें खेद है कि त्रुटिवश इस पोस्ट में क्षेत्र विशेष का उल्लेख हो गया था, जानकारी में आते इस पोस्ट से उन वाक्यों को हटा दिया गया है। हम अपने सभी सुधी पाठकों का धन्यवाद करते हैं जिन्होंने तुरंत हमारा ध्यान इस त्रुटि की ओर आकर्षित किया।
राजेंद्र तिवारी
एडिटर‍, भास्कर वेबसाइट्स

हममें से कई लोग इस बीच साइट पर क्लिक करते रहे और कई बार वेब पेज उपलब्ध नहीं है, पढ़ कर झल्लाते रहे। लेकिन इस बीच अभिलाष खांडेकर की ओर से कहीं कोई माफीनामा नहीं आया। राजेन्द्र तिवारी ने चार लाइन का कमेंट देकर मामले को रफा-दफा मान लिया, ये अलग बात है कि दैनिक भास्कर और अभिलाष खांडेकर के इस रवैये का विरोध जारी है। हिन्दी की अलग-अलग साइटों और ब्लॉग ने इसे पत्रकारिता के नाम पर कलंक और अभिलाष खांडेकर को एक दाग़दार पत्रकार बताया है।

दैनिक भास्‍कर के आज के राष्ट्रीय संस्करण में भी हम नहीं सुधरेंगे की तर्ज पर पेज नंबर सात पर बिहार के नाम पर नफरत फैलानेवाली अभिलाष खांडेकर की उक्‍त संपादकीय टिप्‍पणी को उसी ज़हर भरे शीर्षक के साथ हूबहू प्रकाशित किया गया है। यहां राजेन्द्र तिवारी की ये बात समझ से परे हैं कि ये महज छपाई की त्रुटि है। अफ़सोस है कि सब कुछ जानने के बाद भी भास्कर ने अभिलाष खांडेकर के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं की। अभिलाष साहब को अभी तक इस बात का अफ़सोस नहीं है, इसलिए जो कुछ साइट भी इनसे माफी मांगने की बात कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि उनसे अपील या आग्रह करने के बजाय कानून का दरवाजा खटखटाने में अपनी ऊर्जा लगाएं। वैसे भी अभिलाष खांडेकर ने जो कुछ भी किया है, उसका संबंध सिर्फ लिखने भर से नहीं है, समाज में घृणा और वैमनस्य पैदा करना है। राष्ट्रीय संस्करण में दोबारा छपने से ये स्थिति साफ हो जाती है।

अब सवाल है कि अभिलाष खांडेकर जैसे संपादक किसकी जुबान बोल रहे हैं। अब तक इस बात का विरोध होता रहा कि अब संपादक मैनेजर की भूमिका में आ गए हैं क्योंकि उनकी दिलचस्पी पत्रकारिता को एक मानक रुप देने के बजाय मीडिया हाउस के मालिकों के टारगेट पूरा करने में ज्यादा है। अब वो प्रो मार्केट होता जा रहा है। मीडिया आलोचकों को एक नया मुहावरा उसकी इसी हरकत को लेकर मिल गया है। लेकिन दूसरी स्थिति की आलोचना ये भी है कि अगर संपादक बाजार को ध्यान में रखकर काम नहीं करेगा तो फिर मीडिया हाउस चलेगा कैसे। नतीजा ये हुआ है कि हममें से कई, मीडिया पर लिखने-पढ़नेवाले लोग इस बात के समर्थन में हैं कि मीडिया को बाजार से अलग करके नहीं देखा जा सकता और इस तरह आलोचना का एक सिरा उस तरह से बाजार विरोधी नहीं रह गया है कि बाजार शब्द देखते ही भड़क जाए। बाजार और संपादक के संबंधों की स्वीकृति मीडिया के इन्फ्रास्ट्रक्चर को ध्यान में रखते हुए मिलने लगी है। इसलिए बाजार को लेकर अब मीडिया और संपादक के ऊपर कोड़े बरसाने का उपक्रम बहुत दिनों तक चल नहीं सकता। यहां आकर ये ज़रुर हुआ है कि मीडिया से कई ऐसे मुद्दे धीरे-धीरे ग़ायब होते जा रहे हैं, जिसका संबंध आम आदमी से रहा हो। इसने लूट-खसोट की स्थिति पहले से कई गुना ज्यादा पैदा की है, तो भी संभावना के तौर पर अभी भी कुछ न कुछ बरकरार है।

अभिलाष खांडेकर साहब बाजार और मारकाट के बीच जो कुछ भी थोड़ी संभावना बची है, उसे ध्वस्त करने में जुटे हैं। बाजार से सांठ-गांठ के बाद बहुत ऐसे मसले हैं, जिस पर कि अखबारों ने कलम चलाना बंद कर दिया हैं। एक व्यापक संदर्भ में वो जनहित में कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन जनहित न भी करें तो उसके बीच हिकारत की संस्कृति पैदा करने का क्या हक़ बनता है। अभिलाष खांडेकर पत्रकार हैं, संपादक हैं, उन्हें तो इस बात की तमीज होनी चाहिए कि किस बात को लेकर लोगों के बीच क्या प्रतिक्रिया हो सकती है। भाषा के मामले में प्रिंट मीडिया के संपादक और संपादकीय पेजों पर लिफाफे के दम पर विरोध जतानेवाले उनके बुद्धिजीवी बटालियन जो अब तक न्यूज चैनलों की आलोचना करते आए हैं, उनके भीतर अगर अब भी थोड़ी ऊर्जा बची है, तो वो इस बात को समझने में लगाएं कि आखिर संपादक की ऐसी कौन सी नीयत है जो कि आंकड़ों को धता बताते हुए मनमाने ढंग से भाषा-प्रयोग करने लग गया है। संपादक की कुर्सी पर बैठकर किसी क्षेत्र को नीचा दिखाने के पीछे वो किस-किस तरह के दुष्कर्म में शामिल है, राष्ट्रीयता का logo चिपकाकर बंटवारे की लिखावट सीख रहा है। अगर थोड़ी भी ऊर्जा बची है, तो पता लगाएं कि अभिलाष खांडेकर जैसा संपादक किसकी जुबान बोलने लग गया है और उसकी जुबान बंद करने के क्या-क्या तरीके हो सकते हैं। समय है कि टेलीविजन को पानी पी-पीकर गरियाने के बजाय थोड़ा वक्त अखबारों में फैले जंगलराज की तरफ भी लगाए जाएं.
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5 Response to 'खांडेकर जैसे संपादक किसकी ज़ुबान बोल रहे हैं'
  1. Sanjeet Tripathi
    http://test749348.blogspot.com/2009/06/blog-post_20.html?showComment=1245523982352#c2876110992195748101'> 20 June 2009 at 11:53

    sehmat hu!

     

  2. दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
    http://test749348.blogspot.com/2009/06/blog-post_20.html?showComment=1245547971125#c3990115713259158694'> 20 June 2009 at 18:32

    हिन्दी ब्लागिंग में क्या इस भाषा का कम उपयोग होता है?

     

  3. अनूप शुक्ल
    http://test749348.blogspot.com/2009/06/blog-post_20.html?showComment=1245563914144#c1434139075973210138'> 20 June 2009 at 22:58

    आपकी चिंता जायज है। हिंदी ब्लागिंग भी तो अभिव्यक्ति का एक माध्यम ही है द्विवेदीजी। उसमें अलग कैसे होगा मामला?

     

  4. भारतीय नागरिक - Indian Citizen
    http://test749348.blogspot.com/2009/06/blog-post_20.html?showComment=1245578304258#c7715445744056792566'> 21 June 2009 at 02:58

    अच्छा तो नहीं लगता लेकिन फौज में बिहारी फौजियों के प्रति क्या राय है, काम में वे कैसे हैं, एक बार अवश्य जानने की कोशिश करियेगा और यह धारणा क्यों बनी है इसके पीछे भी क्या कारण हैं इन्हें जाना जाये तो अधिक अच्छा रहेगा.

     

  5. वेद रत्न शुक्ल
    http://test749348.blogspot.com/2009/06/blog-post_20.html?showComment=1245651747470#c5668187667454924068'> 21 June 2009 at 23:22

    "एक व्यापक संदर्भ में वो जनहित में कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन जनहित न भी करें तो उसके बीच हिकारत की संस्कृति पैदा करने का क्या हक़ बनता है।" एक नम्बर की बात कही आपने। लेकिन इसके पहले कहते हैं कि (एकदम अंतिम वाली लाइन पढ़ें)...
    "बाजार और संपादक के संबंधों की स्वीकृति मीडिया के इन्फ्रास्ट्रक्चर को ध्यान में रखते हुए मिलने लगी है। इसलिए बाजार को लेकर अब मीडिया और संपादक के ऊपर कोड़े बरसाने का उपक्रम बहुत दिनों तक चल नहीं सकता। यहां आकर ये ज़रुर हुआ है कि मीडिया से कई ऐसे मुद्दे धीरे-धीरे ग़ायब होते जा रहे हैं, जिसका संबंध आम आदमी से रहा हो। इसने लूट-खसोट की स्थिति पहले से कई गुना ज्यादा पैदा की है, तो भी संभावना के तौर पर अभी भी कुछ न कुछ बरकरार है।" यह जरूर है कि आपकी दृष्टि और आपका मन अब धीरे-धीरे बदल रहा है। पहले के लेखों में आप एकदम से इस पक्ष में रहते थे कि मीडिया को बाजार के अनुकूल ही चलना चाहिए या कहें कि उसके हवाले हो जाना चाहिए। मसलन 'विस्फोट' और संभवत: 'एनडी टीवी' वाले मसले पर भी।

     

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