
एनडीटीवी इंडिया पर बरखा दत्त और विनोद दुआ से अपनी सफलता की बात करते हुए शुभ्रा सक्सेना( सिविल सेवा परीक्षा 08 की टॉपर)बार-बार भगवान की कृपा रही और आगे देखिए किस्मत कहां ले जाती है जैसी भाषा का प्रयोग करती रही। अपनी सफलता की क्रेडिट वो भगवान को देती रही और अपनी जिंदगी में किस्मत को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बताती रही। बरखा दत्त को देश के सबसे कठिन और ताकतवर परीक्षा( सवा तीन लाथ में मात्र 791 चयनि) में सफल होनेवाली एक स्त्री/लड़की के मुंह से इस तरह की भाषा सुनना अच्छा नहीं लगा। बरखा ने टिप्पणी करते हुए लगभग समझाने के अंदाज में कहा- आप लड़कियां क्रेडिट क्यों नहीं लेना चाहती। औरतें किसी भी काम की क्रेडिट लेने में शर्माती है जबकि इस मेल डॉमिनेंट सोसायटी में पुरुष कभी भी क्रेडिट लेने से नहीं शर्माता। बातचीत खत्म होती इसके पहले शुभ्रा ने एक बार फिर इसी भाषा को दोहराया और कहा कि अगर किस्मात ने मौका दिया तो आगे भी काम करते रहेंगे। इस पर विनोद दुआ कि टिप्पणी रही कि- अभी भी भगवान, किस्मत जैसे शब्दों को प्रयोग कर रही है,ये अलग बात है कि इस सफलता में इनकी अपनी मेहनत रही है।
शुभ्रा की यह भाषा एक पूरी मानसिकता को हमारे सामने लाकर रखती है। तकलीफ के क्षणों में सबकुछ भगवान भरोसे छोड़ने और उल्लास के मौके पर सबकुछ भगवान के आगे अर्पित कर देने,उसे ही क्रेडिट देने का रिवाज हिन्दुस्तान में न जाने कितने सालों से चला आ रहा है। भगवान के आगे अपनी एफर्ट को तुच्छा मानने की मानसिकता इतनी मजबूत है कि शायद इसलिए खेत के पहले बैंगन और धान के पहले दाने पर हड्डी तोड़कर उपजाने वाले किसान का हक न होकर ठाकुरजी का हक बताया जाता रहा।(रेणु की कहानियों में ऐसे प्रसंग बार-बार आते हैं।) विज्ञान और तकनीक के दम पर देश में उत्पादन के तरीके से लेकर जीवनशैली में परिवर्तन आया लेकिन भगवान को क्रेडिट देने का रिवाज लगभग ज्यों का त्यों बना हुआ है। देश औऱ दुनिया को जागरुक करने के इरादे से खोला जानेवाला न्यूज चैनल भी शुभ मुहूर्त और भगवान की तरफ से अनुमति न मिलने की स्थिति में ढ़ाई घंटे देर से शुरु होता है। सारी बातों के लिए भगवान को आगे कर देने(पहले तो यही साफ नहीं है कि भगवान बोलकर भी कोई चीज होती है) से एक ऐसी छवि स्थापित करने की कोशिश होती है कि अब जो भी काम होगा वो गलत नहीं होगा और अगर गलत हो भी गया तो इसमें भी कहीं न कहीं शुभ और कल्याण का मर्म छिपा रहा होगा। अभी तक शुभ्रा इस सोच से अलग नहीं है। व्यक्तिगत स्तर पर इस तरह की सोच रखना उसका अपना फैसला और समझ हो सकती है लेकिन सिविल सेवा में आने के बाद अगर ये व्यक्तिगत सोच,उसके निर्णयों पर हावी होने लग जाए तो क्या किया जाएगा?
हिन्दी की दुनिया में इससे अलग एक दूसरी स्थिति है। यहां दुनियाभर को मानवतावाद औऱ सामाजिक चेतना का पाठ पढ़ानेवाले तुलसी ने लिखा- हम चाकर रघुवीर के। मौजूदा सामाजिक विसंगतियों से सीधे टकरानेवाले कबीर ने लिखा- कबीरा कुता राम का,मुतिया मेरा नाम। इसके पहले के रचनाकारों ने तो कभी रचनाकार के तौर पर अपना नाम भी नहीं लिखा। इसे आप अनप्रोफेशनल एप्रोच कह सकते हैं लेकिन तब साहित्य औऱ रचना को इस लिहाज से सोचा-समझा नहीं जाता रहा। अब देखिए,इसी तुलसी औऱ कबीर पर चुटका टाइप की आलोचना पुस्तक लिखकर स्वनामधन्य लोग हाफ-डीप करते नजर आते हैं। क्रेडिट लेने की छटपटाहट इतनी अधिक है कि बिना लिखे ही कुछ बड़े रचनाकारों के लेखों को बटोरकर संपादक होना चाहते हैं। सेमिनार की रिपोर्टों में शामिल होने के वाबजूद भी अपना नाम न होने पर संपादक को कोसते हैं,संवाददाताओं को जाहिल करार देते हैं। अलग-अलग क्षेत्र में क्रेडिट को लेकर जबरदस्त मार-काट मची रहती है.
जाहिर शुभ्रा सक्सेना जैसी शख्सियत हिन्दी साहित्य की दुनिया में नहीं है जहां तर्क को धकेलते हुए रचनाशीलता के नाम पर हर बात को पचा लिए जाएं। वो ब्यूरोक्रेसी में शामिल होने जा रही हैं जहां कि हर फैसले के पीछे एक तर्क होता है। यह तर्क पूरी तरह मनुष्य केंद्रित है। ऐसे में हम जैसे लोग बरखा दत्त की तरह कोई नसीहत दिेए बगैर भी यह तो जरुर चाहेंगे कि शुभ्रा की सोच व्यूरोक्रेसी के तर्क से बार-बार टकराए। दोनों एकमएक न हो जाए। उसे इस बात का एहसास हो कि हमारी तमाम गतिविधियों में मनुष्य शामिल है, हम खुद की प्रेरणा से काम कर रहे हैं। न्यूज चैनलों द्वारा स्त्रियों की स्थिति में सुधार औऱ आत्मविश्वास से लवरेज होने की बात की जा रही है,उसका सही अर्थ तर्क से टकराकर ही खुल पाएगा।
http://test749348.blogspot.com/2009/05/blog-post_05.html?showComment=1241587860000#c7010019926757933297'> 5 May 2009 at 22:31
The first sign of Bureaucracy is to never take responsibilty of any thing on one self . I think shubha will be successful in her profession
i like your article
http://test749348.blogspot.com/2009/05/blog-post_05.html?showComment=1241589060000#c6153475352385309184'> 5 May 2009 at 22:51
तब तब था
अब अब है
तब जग था
अब हम है
अब दूसरे की रचना पर अपना नाम
अधिकार समझा जाता है
तो ऐसे में भगवान को क्रेडिट देना
न जाने क्यों किसी को समझ नहीं आता है
नाम अपना इतना लुभाता है
सब जगह वही नजर आता है
दूसरे के काम पर भी आज बंदा
अपने नाम का ठप्पा लगाता है।
http://test749348.blogspot.com/2009/05/blog-post_05.html?showComment=1241602620000#c1848483327462610646'> 6 May 2009 at 02:37
विनीतजी,
बहुत महत्वपूर्ण चीज आपने यहां उठाई है।
दरअसल, सारी मुसीबत की जड़ है भगवान ही। मुझे खुद अजीब-सा लगता है जब लड़कियां अपनी मेहनत का श्रेय कथित भगवानों को दे डालती हैं। आखिर भगवान ने किया या दिया ही क्या है जो हम उस अवास्तविक चीज को पूजें या मानें।
लड़कियों-महिलाओं को इस विषय पर गंभीर होना चाहिए।
http://test749348.blogspot.com/2009/05/blog-post_05.html?showComment=1241604960000#c5565278354428243282'> 6 May 2009 at 03:16
सही लिखा आपने सफ़ल होने पर तो ज़रूर कहते है भगवान का आशिर्वाद था मगर असफ़लता का क्रेडिट भगवान को नही दिया जाता।तब कहा जाता है कि थोडी मेहनत और कर लेते तो नतीज़ा कुछ और होता ।
http://test749348.blogspot.com/2009/05/blog-post_05.html?showComment=1241605860001#c2339751968192317448'> 6 May 2009 at 03:31
मुद्दे में दम है। लेकिन, ये बात कुछ अटपटी लगी कि लड़कियाँ ही ऐसा करती हैं। मेरी समझ से तो हर एक वो इंसान जो भगवान को मानता है यही सोचता है कि जो है वो भगवान की कृपा से है। शुभ्रा एक ऐसी ही इंसान हो सकती है। लेकिन, ये कहना की केवल लड़कियाँ ही ऐसा करती है ग़लत है।
http://test749348.blogspot.com/2009/05/blog-post_05.html?showComment=1241606100000#c5644515195055716648'> 6 May 2009 at 03:35
दीप्ति हमने टाइटल बरखा दत्त की बात के हिसाब से दिया है लेकिन पोस्ट में सबों की बात शामिल है।
http://test749348.blogspot.com/2009/05/blog-post_05.html?showComment=1241616960000#c273393929916375118'> 6 May 2009 at 06:36
भाई साहब कभी आपने सोचा है की अपने को हीन कहने वाले सूर तुलसी आज भी क्यों पूज्य हैं?????
एक चीज होती है जिसे कहते हैं सुसंस्कार और विनयशीलता.....
सुसंस्कारवान विनीत लोग(स्त्री /पुरुष) कर्म करने में विश्वास करते हैं और दंभ भरने में सकोच करते हैं....यह दोष नहीं बहुत बड़ा सद्गुण है...बड़े दिल वाले लोग ही अपने किये का श्रेय किसी और को देते हैं.... और वे ही सफल और सुप्रसिद्ध होकर पूज्य होते हैं...
http://test749348.blogspot.com/2009/05/blog-post_05.html?showComment=1241633040000#c1223292866831136567'> 6 May 2009 at 11:04
मैंने तो जिस टॉपर का इन्टरव्यू सुना वह Fएर सारा श्रेय अपने पति को दे रही थी। पतियों द्वारा ऐसा करते कभी नहीं सुना।
घुघूती बासूती