फैशन के स्तर पर किसी पत्रिका या फिर अखबार का अतिथि संपादक बनाया जाना कोई नई और बड़ी बात नहीं है। देश और दुनिया के कई बड़े अखबार और पत्रिका समूह अपनी लोकप्रियता और ब्रांड इमेज के लिए आए दिन ऐसा करते हैं कि एक दिन के लिए या फिर एक अंक के लिए किसी सिलेब्रेटी को एडीटर बना देते हैं। ये मीडिया के लिए बड़ी खबर हुआ करती है। मीडिया हाउस को इससे फायदा इस बात का होता है कि वो ये बात बड़ी आसानी से स्टैब्लिश कर पाते हैं कि जितनी समझदारी से फलां फिल्म स्टार एक्टिंग कर सकता है, उतनी ही कुशलता से अखबार का संपादन भी कर सकता है, फलां क्रिकेट खिलाड़ी जितने अद्भुत तरीके से शॉट्स लगा सकता है, उतनी ही चतुराई से संपादन कर सकता है। आप जानते हैं कि विज्ञापन के वक्त किसी भी सिलेब्रेटी की प्रोफेशनल इमेज को सोशल इमेज और फिर विज्ञापित वस्तुओं के ब्रांड इमेज में तब्दील किए जाता है। पाठक को सिलेब्रेटी के संपादन में निकली पत्रिका या अखबार पढञने का सुख मिलता है।
लेकिन मीडिया स्कैन(मासिक अखबार)जिस प्रतिबद्धता के साथ काम कर रहा है उसे देखते हुए कहीं से नहीं लगता कि उसने फैशन के फंडे या फिर बाजार के फार्मूले के झांसे में आकर अतिथि संपादक का कॉन्सेप्ट एडॉप्ट कर लिया है। मुझे लगता है कि ये देश के गिने-चुने अखबारों में से है,जिसकी इच्छा अखबार के जरिए मानवीय संबंधों की तलाश है। इसके जरिए न तो वो किसी तरह का वैचारिक गिरोह खड़ी करने के पक्ष में है और न ही विज्ञापन बटोरकर क्रांति की ढोल पीटने के लिए बेचैन है। बड़े ही सादे ढंग से,नरम मिजाज से, सहयोग और विनम्रता के भरोसे सामाजिक बदलाव के लिए प्रयासरत ये अखबार अपने-आप में बेजोड़ है। उपर की सारी खूबियां अखबार में भी दिखाई देती है और जो लोग, जब कभी भी इसकी प्रति भेजते हैं, हैंड टू हैंड देते हैं, उनके व्यवहार में भी झलकती है।

अतिथि संपादक बनाए जाने का एक दूसरा तरीका अपने हिन्दी समाज में है। देश की सैंकड़ों पत्रिकाएं विशेषांक निकाला करती है। ये विशेषांक कभी अवधारणा से संबंधित, कभी किसी हस्ती से संबंधित या फिर कभी किसी खास विधा से संबंधित हुआ करती है। ऐसे में पत्रिका का स्थायी संपादक, संपादन कार्य न करके ऐसे व्यक्ति की खोज करता है जो अमुक विषय पर ज्यादा समझ रखता हो, उस पर उसका विशेष काम हो, जिस विषय को विशेषांक के लिए चुना गया है उस पर लिखनेवाले लोग स्थायी संपादक से ज्यादा इस नए व्यक्ति के करीब हैं, वो संपादक के मुकाबले ज्यादा आासानी से इस नए व्यक्ति को लेख दे देंगे। अतिथि संपादक चुनने के ये कुछ मोटे आधार हैं।
कई बार ऐसा होता है कि पत्रिका अपने को जिस रुप में पेश करती है उससे उसकी एक स्थायी छवि बन जाती है। विशेषांक निकालने पर इसकी छवि एक हद तक टूटती है। दूसरा कि लिखनेवालों के मन में जो इसके प्रति धारणा बनी रहती है, अतिथि संपादक आकर उस धारणा को तोड़ता है औऱ पत्रिका की ऑडियालॉजी से कभी भी सहमत न होते हुए भी व्यक्तिगत स्तर पर संबंध होने की वजह से अतिथि संपादक को अपनी रचनाएं देने के लिए राजी हो जाता है।
लिखने-छपने के स्तर पर हिन्दी समाज में इतनी अधिक अंतर्कलह है कि जैसे ही कोई विशेषांक निकालने की सोचे, लिखनेवालों का एक धड़ सिरे से गायब हो जाता है। वो चाहता ही नहीं कि अपने जीते-जी, होश-हवाश में इन पत्रिकाओं में लिखे। इसके लिए एक आम मुहावरा भी प्रचलित है- हजारों रुपये दे दे तो भी नहीं लिखेंगे। दूसरी तरफ स्थायी संपादक को भी ऐसे लेखकों की विचारधारा से इतनी खुन्नस रहती है कि- अगर फ्री में भी लिख दे तो भी अपने संपादन में नहीं छापेंगे। ये अलग बात है कि अच्छे संबंध होने और एक ही ऑडियालॉजी होने पर भी लोग फ्री में ही छापते हैं और हजार रुपये नहीं देते।
खैर, हिन्दी के इन टंटों के बीच अतिथि संपादक राहत का काम करता है और अपने दम पर पर्सनल रिलेशन के बूते उन लोगों से भी लेख लिखवा जाता है जो सिम्पल एप्रोच से दस बार टाल जाते हैं। अतिथि संपादक को इगो-विगो का चक्कर नहीं होता, उसे संपादक कुर्सी नहीं होती कि वो एक ही अंक में अकड़ जाए, इसलिए पत्रिका औऱ लेखक के परस्पर विरोधी वातावरण में बेहतर अंक का प्रकाशन कर जाता है।
इसी क्रम में, मीडिया स्कैन ने बाजार औऱ मीडिया के बीच काम करते हुए भी बाजार के फार्मूले को दरकिनार करते हुए हिन्दी समाज के फार्मूले को अपनाया। जरुरी नहीं कि उपर जो भी बातें अतिथि संपादक के बारे में कही गयी, शत-प्रतिशत मीडिया स्कैन पर लागू ही हों, लेकिन चुनने का आधार इन्हीं में से कोई एक या दो रहे होंगे...ये पक्का है।

लेकिन इस आधार पर छपने के वाबजूद भी हफ़्तावार के राकेश सिंह का मन आहत हुआ है औऱ अपने छपे लेख को लेकर असंतुष्ट हैं, क्यों....पढिए अगली पोस्ट में
edit post
1 Response to 'अतिथि संपादक या फिर एक अंक का झुनझुना'
  1. Abhishek
    http://test749348.blogspot.com/2009/01/blog-post_11.html?showComment=1231745220000#c6100510445649218051'> 11 January 2009 at 23:27

    एक बात बताइए, ये अतिथि सम्पादक बनने के लिए भी पैसे मिलते हैं क्या?

     

Post a Comment