चुनाव आयोग की अपील कम विज्ञापन इन दिनों लगभग सारे अखबारों में छाया हुआ है- वोट कीजिए, पप्पू बनने से बचिए। आयोग ने पप्पू कान्ट डांस स्साला का रचनात्मक उपयोग करने की कोशिश की है औऱ इसी क्रम में लड़कियों को भी पप्पू बना दिया है। हिन्दी एक दैनिक अखबार में एक लड़की की तस्वीर है। उसे जींस, टॉप में दिखाया गया है। लुकवाइज वो मॉड है जो कि आमतौर पर दिल्ली की लड़कियां होती है। तस्वीर में रेखाएं खींचकर बताया गया है कि देखिए वो किस तरह शहरी है लेकिन तस्वीर से ये भी जाहिर होता है कि वो वोट नहीं कर रही. उसे मतदान में कोई दिलचल्पी नहीं है। विज्ञापन का कहना है- पप्पू लड़की मत बनिए।
दरअसल पप्पू की तरह ही कॉलाकियल फार्म में लल्लू, गदहा, उल्लू, चंपू औऱ ऐसे सैकड़ों शब्द हैं जो कि वेवकूफ या फिर डल टाइप के लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कहीं-कहीं ऐसे लोगों को बोतल, ढक्कन,पगलेट, फुद्दू या चिरकुट भी कहा जाता है। आप से मूर्ख या डल के लिए पर्याय ही मान लीजिए। इन विशेषणों का प्रयोग अलग-अलग इलाकों में बदल जाता है। बिहार, झारखंड सहित उत्तर बिहार में बुडबक शब्द का प्रयोग आम है जिसका इस्तेमाल करते अक्सर लालू प्रसाद दिख जाते हैं। उनकी मिमिकरी करते हुए राजू श्रीवास्तव ने इसे और अधिक पॉपुलर बनाया। इस तरह के शब्दों के पीछे कोई समाजशास्त्रीय अवधारणा काम करती है, कोई चाहे तो कोई शोध कर सकता है। लेकिन इतना तो तय है कि ये न तो किसी व्याकरणिक नियमों के तहत निर्मित शब्द है और न ही इसके पीछे कोई बहुत अधिक प्रयास होता है। कई शब्द तो ऐसे हैं कि बस बोलते-बोलते कॉमन हो जाते हैं और फिर उसे सिनेमा और मीडिया अपना लेते हैं।
व्याकरण के लिहाज से भाषा-प्रयोग की बात करनेवाले लोगों के लिए ये दौर बहुत ही खतरनाक है। क्योंकि न तो इसके हिसाब से भाषा -प्रयोग किए जा रहे हैं और न ही व्याकरण को लेकर कोई काम ही हो रहा है। बहुत दूर मत जाइए, जो लोग भाषा या फिर हिन्दी साहित्य में हैं, उसकी पढ़ाई या फिर शोध कर रहे हैं, उनके यहां भी व्याकरण या फिर भाषा-प्रयोग के नियमों से संबंधित कोई किताब मिल जाए तो गनीमत है। आम बोलचाल की भाषा का जो तर्क है वो सब जगह धडल्ले से लागू है। कई बार तो बहुत ही मामूली कोशिश के बाद परिष्कृत शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है लेकिन ऐसा करने की कोशि बहुत ही कम होती है.
भाषा को कबाड़ा करने का ठीकरा ले देकर हम मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों पर फोड देते हैं। लेकिन आप देखिए कि भाषा के प्रयोग, निर्माण और उसे एक बेहतर रुप देने के लिए सरकार के पास करोडों रुपये का इन्फ्रास्ट्रक्चर है, एक प्रोजेक्ट पर लाखों रुपये खर्च होते हैं लेकिन जो लोग वोट देने नहीं जाते, उनके लिए एक सही शब्द नहीं ढूंढ पाए। एक नाम को बाजार और विज्ञापन की तर्ज पर पप्पू बना दिया जिसमें लड़कियों को भी शामिल कर लिया है।
आयोग के पास इसके लिए खूबसूरत तर्क है कि जिस तरह पप्पू( जाने न जाने तू फिल्म का पप्पू) के पास दुनिया भर की चीजें हैं लेकिन वो डांस नहीं सकता, इसलिए वो पप्पू है। उसी तरह हमने सोचा कि जो लोग पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं, जिनके पास पैसा है वो ही वोट करने नहीं जाते। इसलिए हमने सोचा कि क्यों न इनके लिए पप्पू शब्द का इस्तेमाल किया जाए।
मतलब ये कि अगर सरकारी विभाग को भी इसी तरह से शब्दों के प्रयोग करने हैं तो भाषा संबंधी द९ेश के सारे विभाग में ताला लगाकर, मंत्रालय को निरस्त करके सारे कर्मचारियों को एफएम के अलग-अलग स्टेशनों को सुनने का काम दे देना चाहिए क्योंकि भाषा को लेकर क्रिएटिविटी में इसके आगे कुछ भी नहीं।
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http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post_12.html?showComment=1226482980000#c8097922891508995626'> 12 November 2008 at 01:43
पहले एनडीटीवी पर यह ख़बर देखी थी। अब आपकी टिप्पणी पढ़ी।
भाष पर आपकी चिंता और कथ्य दुरूस्त है। दरअसल, भाषा को सभी बिगाड़ रहे हैं। दोष किसे दें और कहां तक दें?
http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post_12.html?showComment=1226491020000#c5817606035261760836'> 12 November 2008 at 03:57
दिल्ली के चुनाव अधिकारी लोगों को पप्पू न बनने की सलाह दे रहे हैं, बड़ा अच्छा कर रहे हैं. लेकिन उनका अपना विभाग ख़ुद पप्पू है. दिल्ली के सब मतदाताओं को अभी तक फोटो आई डी कार्ड्स अभी तक नहीं मिले हैं. जिनको मिले हैं उन में बहुत सारे कार्ड्स में गलतियाँ हैं. इतना पैसा खर्च कर के यह घटिया कार्ड्स बनबाये हैं चुनावी पप्पुओं ने. अब मुख्य चुनावी पप्पू जल्दी ही एक आदेश निकालने जा रहे हैं, जिस के अनुसार मतदाता इन कार्ड्स के बिना भी वोट डाल सकेंगे. तो क्या कहें चुनावी पप्पू टाँय टाँय फुस.
http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post_12.html?showComment=1226509020000#c5925712570894844629'> 12 November 2008 at 08:57
सही है बॉस.. मेरे नसीब में तो पप्पू बनना लिखा है.. पटना के वोटर लिस्ट में मेरा नाम है और मैं चेन्नई में.. और इतना भी उत्साहित नहीं हूं कि इतनी दूर जाकर वोट दूं..
http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post_12.html?showComment=1226509140000#c7319427018622267517'> 12 November 2008 at 08:59
इसे भाषा की अराजकता कही जाए या भाषा के प्रयोग-क्षेत्र का विस्तार। अपना-अपना मत है, पर इसपर सेंसर लगाना आसान नहीं है, अगर शब्द प्रयोग अपने आप में सक्षम है, तो लोगों के जुबान पर चढ़ जाऍंगी, वर्ना समय के बहाव में गुम होते देर नहीं लगेंगी।
आपकी चिंता जायज है।
http://test749348.blogspot.com/2008/11/blog-post_12.html?showComment=1226548440000#c2331415867892335578'> 12 November 2008 at 19:54
आगे चल कर यह 1990 से लेकर 20xx का कालखंड भाषा और व्याकरण का अराजक युग माना जाएगा. भविष्य में कभी हम इसी अराजकता से तंग आकर अपनी भाषा और बोलियों को कसने की कोशिश करेंगे.
हम कुछ दशक पहले तक मर्यादावादियों से परेशान थे, उन्होंने कई तथाकथित टैबू, अशालीन और बाजारू माने जाने वाले विषयों पर हिन्दी में पारिभाषिक शब्द भी नहीं बनने दिए. इससे भाषा संकीर्ण और कुछ अप्रासंगिक पड़ गई, और कई मामलों में आम बोलचाल से दूर हो गई. जिसकी परिणिति आज की हिंगलिश अराजकता और भाषा के दीवालियेपन के रूप में सामने आई. पप्पू इसी की दीवालियेपन का प्रतिबिम्ब है.