
सुशील कुमार सिंह की बेबसाइट गॉशिप अड्डा को ब्लॉग कहने और इस आधार पर उन्हें ब्लॉगर कहने के लिए माफी। ये तो और भी अच्छी बात है कि इसे मान्यता प्राप्त है। लेकिन इन सबके बीच फिर वही सवाल कि क्या ब्लॉगर को पत्रकार कहा जा सकता है। और इसके साथ ही कि क्या वेब पत्रकारिता को मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता में शामिल किया जा सकता है।
पिछली पोस्ट की टिप्पणियों से एक बात तो सामने आयी कि वेब पत्रकाकिता में किसी न किसी रुप में व्यावसायिकता का रंग चढ़ चुका है। यहां लोग अपने फायदे
के लिए लिख-पढ़ रहे हैं। ( blog aur web site me abhi fark hai.web site swanta sukhai ki bajai der saber munafe ke liye suru ki jata hai jaise akhbar.)- ambrish kumar के लिहाज से ब्लॉग स्वांत सुखाय के लिए लिखा जा रहा है। यानि ये एक इनोसेंट रचना प्रक्रिया है जबकि वेब पत्रकारिता में धन कमाने की लालसा बनी हुई है। कुछ लोग ब्लॉग में
भी इसी नीयत से आते है।
के लिए लिख-पढ़ रहे हैं। ( blog aur web site me abhi fark hai.web site swanta sukhai ki bajai der saber munafe ke liye suru ki jata hai jaise akhbar.)- ambrish kumar के लिहाज से ब्लॉग स्वांत सुखाय के लिए लिखा जा रहा है। यानि ये एक इनोसेंट रचना प्रक्रिया है जबकि वेब पत्रकारिता में धन कमाने की लालसा बनी हुई है। कुछ लोग ब्लॉग में
भी इसी नीयत से आते है।
कुछेक एक वेबसाईट ने तो अपने लेखों के लिंक देने के लिये ही ब्लाग बना लिये हैं.- मैथिली गुप्त
इन दोनों टिप्पणियों से साफ है कि वेबसाइट की तुलना ब्लॉग से नहीं की जा सकती। इसी तरह जो
लोग ब्लॉग के लिए लिख रहे हैं उन्हें वेब के लिए लिखनेवालों की पांत में नहीं बैठाया जा सकता।
लोग ब्लॉग के लिए लिख रहे हैं उन्हें वेब के लिए लिखनेवालों की पांत में नहीं बैठाया जा सकता।
ब्लागर ब्लागर होते हैं और पत्रकार पत्रकार. दोनों अलग अलग हैं. आजकल सारी दुनियां में ब्लागर अधिक विश्वसनीय माने जारहे हैं. - मैथिली गुप्त
उपर की दोनों टिप्पणियों से ब्लॉगर और पत्रकार चाहे वो वेब पत्रकार हों या फिर मेनस्ट्रीम के पत्रकार, दोनों के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी गयी है। जाहिर है ये जो टिप्पणियां की गयी है उसमें आज की पत्रकारिता के चरित्र को भी एक हद तक शामिल कर लिया गया है। पत्रकार से ज्यादा ब्लॉगर विश्वसनीय हैं। संभव है ये ज्यादा खरी-खरी औऱ धारधार लिखते हैं। उनमें बात कहने के आधार पर मैलोड्रामा नहीं होता। सपाटबयानी की ताकत के साथ जो ब्लॉगिंग चल रही है, वही आगे आनेवाले समय में इसे पहचान देगी। पिछली पोस्ट की टिप्पणियों के आधार पर मैंने ब्लॉग का यही अर्थ लगाया।
लेकिन यहां पर मैं अंवरीश कुमार की बात को फिर से दोहराना चाहूंगा कि वाकई ब्लॉग में उतनी ही सहजता है, उतनी ही मासूमियत है जितनी कि उम्मीद वो कर रहे हैं। उनके ऐसा मानने के
क्रम में हम जैसे हजारों मामूली ब्लॉगर शामिल हैं तब तो मैं भी एक हद तक इस बात को ज्यों का त्यों मानने को तैयार हूं लेकिन जैसे ही ये बात सिलेब्रेटी और समाज के प्रभावी लोगों के पाले में जाती है, तब इस बात को पचा पाना मुशिकल हो जाता है।
क्रम में हम जैसे हजारों मामूली ब्लॉगर शामिल हैं तब तो मैं भी एक हद तक इस बात को ज्यों का त्यों मानने को तैयार हूं लेकिन जैसे ही ये बात सिलेब्रेटी और समाज के प्रभावी लोगों के पाले में जाती है, तब इस बात को पचा पाना मुशिकल हो जाता है।
मेरी पोस्ट पर बात करते हुए हालांकि एक-दो लोगों ने बात की भी कि- संभव है ब्लॉग पर किसी भी बात का दबाव नहीं है इसलिए लोग अपनी मर्जी से और अपने मन की बात खुलर लिख ले रहे हैं, लेकिन ब्लॉगर को मेनस्ट्रीम
की मीडिया के आगे खड़ा करने का कोई तुक ही नहीं बनता। मेनस्ट्रीम की मीडिया में विज्ञापन, मार्केटिंग और दुनियाभर की चीजों के बीच संतुलन बनाना होता है। ऐसे में कोई ब्लॉग की ताकत यहां रखे तो और बात है। जहां तक बात वेब पत्रकारिता की है
तो ये तो बर्चुअल मीडिया है, इसे रीयल मीडिया के सामने खड़ा करने का कोईम मतलब ही नहीं बनता है। रीयल और वर्चुअल की भी एक अलग ही बहस है। इसके लिए फिर एक अलग पोस्ट की जरुरत होगी.लेकिन फिलहाल इतना ही समझता हूं कि जिस वेब औऱ
ब्लॉग को वर्चुअल कहकर उसकी ताकत और क्षमता को कमतर करके देखा जा रहा है, सच्चाई ये हैं कि उसके बढ़ते संजाल के की वजह से मेनस्ट्रीम की मीडिया के बीच भी खदबदाहट है। अगर वेब वर्चुअल ही है तो फिर हरेक चैनल वेबसाइट लांच करते ही क्यों
दुनियाभर के विज्ञापनों के साथ इससे हमें रुबरु कराते हैं। आप मानिए या न मानिए वेब और ब्लॉग की उम्र भले ही कम हो लेकिन मेनसट्रीम की मीडिया इस पर एक हद तक आश्रित होने लगी है। दीपावली के अगले दिन बाकी अखबारों के साथ ही दि टाईम्स ऑफ़ इंडिया के भी ऑफिस बंद रहे। जनसत्ता और दूसरे अखबारों ने एक छोटे से बॉक्स में लिखा- कार्यालय बंद रहने के कारण कल हम आप तक नहीं पहुंच सकेंगे। हमारी मुलाकात परसों होगी। लेकिन दि टाइम्स ने लिखा- ताजातरीन खबरों के लिए आप हमारे वेबसाइट जा सकते हैं।
पूरी बहस में, ब्लॉगर अपने को पत्रकार कहलाना नहीं चाहते, ब्लॉगर ही कहलाना चाहते हैं। आप इसे पत्रकारिता को लेकर लोगों के बीच की विश्वसनीयता पर एक बार नए सिरे से विचार कर सकते हैं। दिन-रात सिटिजन जर्नलिज्म की ढोल पीटनेवाले चैनलों के वाबजूद भी वो ब्लॉगर ही बने रहना चाहते हैं, भावुक और संवेदनशील ही बने रहना चाहते हैं। कईयों के लिए ये बात बेचैन करनेवाली तो जरुर है, बेहतर हो कि खांचे में न फिट होनेवालों की तादात दिन-दोगुनी रात-चौगुनी बढ़ती रहे।
की मीडिया के आगे खड़ा करने का कोई तुक ही नहीं बनता। मेनस्ट्रीम की मीडिया में विज्ञापन, मार्केटिंग और दुनियाभर की चीजों के बीच संतुलन बनाना होता है। ऐसे में कोई ब्लॉग की ताकत यहां रखे तो और बात है। जहां तक बात वेब पत्रकारिता की है
तो ये तो बर्चुअल मीडिया है, इसे रीयल मीडिया के सामने खड़ा करने का कोईम मतलब ही नहीं बनता है। रीयल और वर्चुअल की भी एक अलग ही बहस है। इसके लिए फिर एक अलग पोस्ट की जरुरत होगी.लेकिन फिलहाल इतना ही समझता हूं कि जिस वेब औऱ
ब्लॉग को वर्चुअल कहकर उसकी ताकत और क्षमता को कमतर करके देखा जा रहा है, सच्चाई ये हैं कि उसके बढ़ते संजाल के की वजह से मेनस्ट्रीम की मीडिया के बीच भी खदबदाहट है। अगर वेब वर्चुअल ही है तो फिर हरेक चैनल वेबसाइट लांच करते ही क्यों
दुनियाभर के विज्ञापनों के साथ इससे हमें रुबरु कराते हैं। आप मानिए या न मानिए वेब और ब्लॉग की उम्र भले ही कम हो लेकिन मेनसट्रीम की मीडिया इस पर एक हद तक आश्रित होने लगी है। दीपावली के अगले दिन बाकी अखबारों के साथ ही दि टाईम्स ऑफ़ इंडिया के भी ऑफिस बंद रहे। जनसत्ता और दूसरे अखबारों ने एक छोटे से बॉक्स में लिखा- कार्यालय बंद रहने के कारण कल हम आप तक नहीं पहुंच सकेंगे। हमारी मुलाकात परसों होगी। लेकिन दि टाइम्स ने लिखा- ताजातरीन खबरों के लिए आप हमारे वेबसाइट जा सकते हैं।
पूरी बहस में, ब्लॉगर अपने को पत्रकार कहलाना नहीं चाहते, ब्लॉगर ही कहलाना चाहते हैं। आप इसे पत्रकारिता को लेकर लोगों के बीच की विश्वसनीयता पर एक बार नए सिरे से विचार कर सकते हैं। दिन-रात सिटिजन जर्नलिज्म की ढोल पीटनेवाले चैनलों के वाबजूद भी वो ब्लॉगर ही बने रहना चाहते हैं, भावुक और संवेदनशील ही बने रहना चाहते हैं। कईयों के लिए ये बात बेचैन करनेवाली तो जरुर है, बेहतर हो कि खांचे में न फिट होनेवालों की तादात दिन-दोगुनी रात-चौगुनी बढ़ती रहे।
nadeem की एक शिकायत की मैं गिने-चुने ब्लॉग पर जाकर ही अपनी राय बना लेता हूं। सच तो ये है कि जिसे सिर्फ ब्लॉग पढ़ना है तो गिने-चुने क्या एक ही ब्लॉग पर जाकर राय बना ले लेकिन जिसे पढ़ने के बाद कुछ लिखने के लिए हिम्मत जुटानी हो, उसके लिए ऐसा करना आसान नहीं होता। बात रह गयी भावना और संवेदना कि तो वाकई अव ये ब्लॉग की मुख्य प्रवृत्ति नहीं रह गयी है।
पिछली पोस्ट- मेनस्ट्रीम मीडिया के पार द्वार
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_30.html?showComment=1225439820000#c6077671880036515909'> 31 October 2008 at 00:57
विचारो को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता का दूसरा नाम ब्लॉग है....लिखना पढ़ना एक शौक है जो अलग अलग पेशे में जुड़े इंसान शायद ब्लॉग के जरिये पूरा करते है ........ब्लॉग लेखन शायद विचारो का मंथन है ...बिहार के किसी कोने से उपजा आक्रोश किसी अखबार के पन्ने का मोहताज नही है...वो सीधा अमेरिका से जुड़ जाता है....कही किसी कमरे में फैली उदासी अचानक कम्पूटर के परदे पर आकर निजी नही रह पाती है...यही ब्लॉग है....
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_30.html?showComment=1225445760000#c102452000676768934'> 31 October 2008 at 02:36
"अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता का दूसरा नाम ब्लॉग है..." हम डॉक्टर साहब के द्रिश्टिकोण से एकदम सहमत है. उपरोक्त वाक्य को आगे बढ़ाते हुए हम कहना चाहेंगे कि "जिसका एक साइट होता है और जो वेब में है" अतः ब्लॉग भी एक वेब साइट है. आभार.
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_30.html?showComment=1225446060000#c1623197427468570958'> 31 October 2008 at 02:41
आपका सवाल क्या वेब पत्रकारिता को मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता में शामिल किया जा सकता है
प्रिन्ट, टीवी या इन्टरनेट तो एक माध्यम भर है, पत्रकारिता तो पत्रकारिता है. आपके विचार चाहे प्रिन्ट होकर आयें, टीवी पर आयें या इन्टरनेट पर आयें. सो वेब पत्रकारिता को भी हम मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता में ही शामिल करें. इसे वर्चुअल या रीयल के खांचे में बिठाना सही नहीं हैं.
मेरा तो यह मानना है कि आज से छह सात साल के अन्दर जो मेनस्ट्रीम का मीडिया होगा उसमें प्रिन्ट मीडिया तो कतई शामिल नहीं होगा. तब वेब और सिर्फ वेब मीडिया ही मुख्यधारा का मीडिया बचेगा. मुझे नहीं लगता कि सन 2016 में टाइम्स आफ इंडिया प्रिन्ट होकर आयेगा! यकीन मानिये कि तब इनके सिर्फ वेब एडीशन ही बाकी बचेंगे.
अभी अंग्रेजी के अखबारों की हालत पतली है जबकि हिन्दी और देशी भाषाओं के अखबार (फीचर न्यूजपेपर) बढ़ रहे हैं एसा सिर्फ इसलिये है कि देशज भाषाओं के पढ़ने वाले तकनीकी रूप से उतने मज़बूत नहीं है, लेकिन अब देशज भाषियों के पास भी क्रय शक्ति है और हिन्दी के फीचर न्यूजपेपरों को इनकी क्रयशक्ति को दुहने के लिये विज्ञापन मिले जा रहे हैं. इसीलिये हिन्दी के फीचर न्यूजपेपरों का यह स्वर्णकाल है. जरा 3G और वाइमेक्स का दौर दौरा शुरू होने दीजिये. छह सात सालों में हिन्दी के फीचर न्यूजपेपरों के लिये भी मुश्किल हालात हो जायेगें.
तब वेब बुलन्दी पर होगा, टीवी भी इसके आगे बौना ही साबित होगा. विज्ञापनों में इसका बहुत बढ़ा हिस्सा होगा. एसी मेरी सोच है.
ब्लागर और वेब पत्रकारिता के बीच एक रेखा है, लेकिन इस पर बात फिर कभी, डर हैं कि कहीं मुझे इसके लिये राज ठाकरे न ठहरा दिया जाय :).
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_30.html?showComment=1225458660000#c5459480336084854378'> 31 October 2008 at 06:11
अनुराग की बात से सहमत..
मैथिली की टिप्पणी में एक किन्तु..
किन्तु मैथिली भाई, NYT का वेब संस्करण बहुत
सफ़ल है, फिर भी टैब्लायड भी उतना ही लोकप्रिय है, क्यों ? दोनों संस्करणों में फ़र्क भी रखा जाता है, ताकि माँग बनी रहे, क्यों ? NYT तो बस उदाहरण है
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_30.html?showComment=1225463520000#c7560126616249498096'> 31 October 2008 at 07:32
सही है अमर साहब लेकिन बात आने वाले कल की है. NYT की सर्कुलेशन भी गिर ही रही है.
अभी ये इसलिये चल रहे हैं कि आदतें मुश्किल से बदलती हैं. हमें प्रिन्ट पेपर पढ़ने की आदत है. इसके लिये शुरूआत में अखबारों के ई-पेपर संस्करण फर्रायेंगे.
इन ई-पेपर को सिर्फ इन्टरनेट के द्वारा ही नहीं किताबनुमा डिवाइसेज में पढ़ा जा सकेगा. अभी ये डिवाइसेज थोड़ी महंगी है लेकिन आने वाले चार पांच सालों में ये बेहद सस्ती होंगी जिससे सिर्फ ई-पेपर नहीं ई-बुक्स भी परम्परागत छपी किताबों को बाहर कर देंगी. हिन्दुस्तानी ई-पेपरों का तो लोकप्रिय होना भी शुरू हो चुका है.
और आने वाले पीढी तो सिर्फ वेब एडीशन की ही आदत होगी.
हो सकता है मैं गलत होऊं, आप इसे मेरा ख्याली पुलाव भी कह सकते हैं.