
दूरदर्शन के कुछ सीरियलों की बात छोड़ दें तो निजी मनोरंजन चैनल मुस्लिम समाज और उनकी संस्कृति को नजरअंदाज ही करते आए हैं। लगभग सभी मनोरंजन चैनलों पर कम से कम चार-पांच सीरियल चल रहे होते हैं, उनमें से एक भी ऐसा सीरियल नहीं है जिसकी पटकथा मुस्लिम परिवार, उसकी संस्कृति और उनके रिवाजों पर आधारित हो।
अगर ऑडिएंस रिसर्च के हिसाब से बात करें तो तुरत-फुरत एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संभव है मुस्लिम औऱतें सीरियल नहीं देखा करती हैं। मीडिया की स्थापित दलील की जब ऑडिएंस हैं ही नहीं तो दिखाएंगे किसके लिए, ये काम में लाया जा सकता है। लेकिन इस लचर दलील में एक दिक्कत है-
हिन्दू रीति-रिवाजों और संस्कृति पर आधारित सीरियलों को देश की मुस्लिम महिलाएं भी देखती हैं। क्योंकि सास भी कभी बहू थी की लोकप्रियता हिन्दुस्तान के अलावे इस्लामिक देशों में भी रही। इससे एक बात तो साफ है कि ऑडिएंस सीरियलों को सिर्फ अपने रीति-रिवाजों भर के होने के कारण नहीं देखती, उसके अलावे भी उसमें कई ऐसे एलीमेंट हैं जिसकी वजह से सीरियल की लोकप्रियता बनती है। जिन लोगों के लिए टेलीविजन के सीरियल सिर्फ फैशन और कन्ज्यूमर कल्चर को बढ़ावा देने का मामला है वो चाहें तो खुश हो सकते हैं कि एक हद के बाद ऑडिएंस इन सब चीजों के अलावे और भी बहुत कुछ देखना-सुनना चाहती है।
जो टेलीविजन की समीक्षा समाजशास्त्रीय आधारों पर करते हैं उनके हिसाब से बाकी चीजों के साथ-साथ मुस्लिम आधारित कथानकों को नहीं चुनना प्रोड्यूसरों का तंग नजरिया लग सकता है।
आप हिन्दी के सारे मनोरंजन चैनलों पर एक नजर डालकर देखें। सीरियलों के मामले में इसकी संख्या पचास से उपर हैं। इसमें पांच से दस सीरियल ऐसे हैं जिसे कि कोई भी किसी न किसी रुप में जरुर जानता है। या तो उनके पात्रों की वजह से या तो कथानक की वजह से या फिर उनसे जुड़े लोगों के सीरियल के अलावे बाकी क्षेत्रों में सक्रिय होने की वजह से। लेकिन आप देखेंगे कि कहीं कोई मुस्लिम चरित्र नहीं है। ऐसी कोई घटना या एपिसोड नहीं है जिसमें कि उनकी संस्कृति या उनकी उपस्थिति को टेलीविजन में शामिल किया जा सके। संभव है कि असल जिंदगी में कई कलाकार मुस्लिम रहे हों लेकिन सीरियल के स्तर पर वो सिरे से गायब हैं। अगर टेलीविजन को वोट और रोटी पर सबका अधिकार वाले फार्मूले से देखें तो यह सरासर गलत है। कल तक की तो यही स्थिति रही।
लेकिन एनडीटीवी इमैजिन ने इस पैटर्न को तोड़ा है। चांद के पार चलो का ताना-बाना मुस्लिम संस्कृति के इर्द-गिर्द बुना गया है। जिसमें भाषाई प्रयोग से लेकर उनके रीति-रिवाज तक को बड़े ही संवेदनशील तरीके से शामिल किया गया है। अगर आप ये कह भी दें कि- अजी सब टीआरपी का खेल हैं, जहां से माल मिलेगा, टीवी उधर की बात करेगा। तो भी एक बात तो माननी ही होगी कि- सीरियल के इतने बड़े-बड़े दिग्गज इन्डस्ट्री में पड़े हुए हैं, दुनियाभर के कथानकों पर सीरियल बनाते रहें लेकिन हिन्दू परिवारों के बीच ही क्यों घूमते रहे। जिस तरह से सरकारी कलेंडरों में उत्सव मनाने और शोक जाहिर करने के दिन पहले से तय होते हैं उसी तरह से इन सीरियलों में हिन्दुओं के लिए उत्सव और घटनाओं को लेकर शोक मनाने के एपिसोड पहले से निर्धारित क्यों कर दिए जाते रहे। सवाल-जबाब करने लग जाइए तो प्रोड्यूसरों को बात करना मुश्किल पड़ जाएगा।॥
ये बात हमें भी पता है कि एनडी भी जिस रुप में चांद के पार चलो की कहानी को आगे बढ़ा रहा है वो सास-बहू सीरियलों से बहुत आगे की चीज नहीं है। वो भी मुस्लिम संस्कृति और रीति-रिवाजों के नाम पर फिक्सेशन का काम करता जाएगा। जैसा कि अब तक के चैनल और सीरियलों में होता आया है। लेकिन इन सबके बावजूद एक बड़ी सच्चाई है कि जो भी चीजें टेलीविजन पर आती हैं, एक बार रिवाइव तो जरुर हो जाती है। इसकी बारीकियों पर धीरे-धीरे बात होती रहेगी।
फिलहाल भारतीय दर्शकों को इतना तो पता चले कि जिस देश में करवा चौथ औऱ लक्ष्मी पूजा मनाए जाते हैं, उसी देश में ईद भी मनायी जाती है। जिस देश में लड़कियां रिश्तों में उलझती चली जाती है उसी देश में रेहाना अपने मन की सुनती है। जिस देश में बात-बात में मंदिर जाया जाता है, भगवान के आगे मत्था टेका जाता है, उसी देश में मजार भी है, जहां एक ही नूर के बंदे गाए जाते हैं। और फिर भारी-भरकमों करोड़ों रुपयों से लदी-फदी ज्वेलरी के आगे कोई महज चमकीले सितारों( प्लास्टिक के) से जड़े दुपट्टे ओढ़कर भी चांद जैसी खूबसूरत हो सकती है, कम पैसे में भी फैशन संभव है। गरीबों की डिक्शनरी से फैशन गायब नहीं होने चाहिए, ये कोशिश अगर एनडी कर रहा है तो बेजा क्या है।
बाकी बातों को छोड़ दे तो फैशन के स्तर पर ही सही, बहुत ही चालू और सतही ढ़ंग से ही सही, सास-बहू की ऑडिएंस को एक अलग टेस्ट और नयी फ्लेवर तो जरुर मिल रहें हैं। और फिर इश्क कौन इंसा नहीं करता, यहां अगर उसके इजहार का तरीका बिल्कुल ही अलग है, तो ऑडिएंस तो हाथों-हाथ लेगी ही।
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224658440000#c1017626718581562720'> 21 October 2008 at 23:54
महत्वपूर्ण विषय पर जानदार लेख। मुस्लिम समाज के रिवाजों को भी हमारे सामने आना चाहिए।
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224658560000#c3731420528475693791'> 21 October 2008 at 23:56
शाहीन
एक बहुत ही अच्छा सीरियल था सोनी चॅनल पर आता था . मुस्लिम महिला का विवाह एक बड़ी आयु के पुरूष से जो विदुर हैं और एक बच्चे का पिता हैं से दिखया गया है . और ये विवाह लड़की का पिता बिना लड़की को बताये करता हैं "जूही परमार " का ये पहला सीरियल था . मुस्लिम संस्कारों को बहुत सुंदर चित्रण था
हिना
ये भी सोनी पर आता था . शुरू मे बहुत बढिया था बहुत कुछ मुस्लिम संस्कृति के बारे मे बताया था पर फिर
टी आर पी मे फँस कर बेकार हो गया था
जारा – प्यार की सौगात
नामक एक सीरियल सहारा पर भी आता था कभी देखा नहीं हैं पर श्याद टी आर पी इसको भी खा गया
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224659100000#c7237837007062348637'> 22 October 2008 at 00:05
हिस्टोरिक सेरिअल्स तो बहुत आए हैं
दी स्वोर्ड ऑफ़ टीपू सुलतान
मिर्जा गालिब
ख़ास कर दूर दर्शन
बहुत नहीं हैं पर जो हैं बहुत अच्छे बने हैं
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224660480000#c1771782932570066930'> 22 October 2008 at 00:28
सटीक विश्लेषण है आपका ...पर इन दिनों सीरियल में जो औरते दिखायी जाती है..बड़ी अजीब सी है......उड़ान की कविता चौधरी ,कब तक पुकारूँ की ....पात्र ,हम लोग की बहने ...बुनियाद की लाजो ...सन्डे सुबह एक प्रेमकहानी आती थी वेड राही की नाम याद नही आ रहा ...'फ़िर वही तलाश "ऐसा कुछ था जिसमे नीलिमा अजीज (शाहिद कपूर की मां )का भी मुख्या किरदार था.....उन पत्रों में ये एकता कपूर स्टाइल बड़े धुंधले ओर छिछोरे से लगते है ...
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224664080000#c8125986696219975207'> 22 October 2008 at 01:28
इसका एक कारण यह भी है कि यदि लीक से हटकर कुछ दिखाने की कोशिश की तो निश्चित रूप से कोई फतवा जारी हो जाना है तो ये पंगा कोन लेगा.मान लीजिये किसी सीरियल मैं उच्च शिक्षा प्राप्त मुस्लिम महिला को रूढियों के खिलाफ लङते हुए दिखाया गया तो निर्माता का क्या हाल होने वाला है ........
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224664200000#c8576826076257491427'> 22 October 2008 at 01:30
Vineet ji, kaafi vyavharik aur jante hue bhi ignore ki jaane wali baton(ya kahei ki mindset) par ND kuch naya karne ki koshish mein hai..bas aapki posts is tarah ke prayason ko charcha ka Vishay banakar in baton ka mahtva sabke saamne rakh deti hain..kuch baatein jo khas lagin-
जिन लोगों के लिए टेलीविजन के सीरियल सिर्फ फैशन और कन्ज्यूमर कल्चर को बढ़ावा देने का मामला है वो चाहें तो खुश हो सकते हैं कि एक हद के बाद ऑडिएंस इन सब चीजों के अलावे और भी बहुत कुछ देखना-सुनना चाहती है।
इन सबके बावजूद एक बड़ी सच्चाई है कि जो भी चीजें टेलीविजन पर आती हैं, एक बार रिवाइव तो जरुर हो जाती है।
गरीबों की डिक्शनरी से फैशन गायब नहीं होने चाहिए, ये कोशिश अगर एनडी कर रहा है तो बेजा क्या है।
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224664320000#c4842345313986596325'> 22 October 2008 at 01:32
एक चीज ये भी की जा सकती है कि जितने सीरियल बनते हैं उनमें से 15-17 प्रतिशत मुस्लिम विषयों पर ही बनें ऐसा सरकारी नियम भी बनाया जा सकता है आखिर सच्चर साहव की रिपोर्ट किस दिन काम आयेगी
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224665280000#c8823787072499704675'> 22 October 2008 at 01:48
गुरुजी इतनी चर्चा हो ही गई तो एक और बात बता दें कि हमारी संस्कृति पर (फिल्मों और मीडिया ) में पंजाबियों और गुजरीतियों ने जबरिया कब्जा कर लिया है। ऐसा प्रतीती होता है कि हर घर की दादी बा कही जाती है। और बड़ा भाई प्रा कहा जाता है।
शादी ब्याह हो तो भांगड़ा किया जाता है, या फिर कोई हंसमुख भाई ठिठोली करते नजर आते हैं। हर चैनल पर --यहां तक कि बड़बोले एनडीटीवी इमेजिन पर भी जस्सूभाई... (बड़ा लंबा सा नाम है) रामायण के ठीक बाद आता है। और रामायण पूछिए मत, नहीं देखते हैं तो आगे दिएखिएगा भी मत।
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224666900000#c1273851631648788891'> 22 October 2008 at 02:15
"गंगा जमना" (?!!!) सस्कृति की रक्षा के लिए सरकार नीयम लाये की इतने प्रतिशत धारावाहिक मुस्लिम पृष्टभूमि वाले हो ही.
ईद के बारे में तो फिर भी जानते होगें, प्रयुषण के बारे में कितना जानते है? क्या भारत केवल हिन्दु और मुसलमानों का है?
विषय अच्छा उठाया है. कुछ धारावाहिक :
हीना, शाहिन, जारा (शायद यही नाम था) और भी थे नाम याद नहीं आ रहे.
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224671340000#c1994943424949118075'> 22 October 2008 at 03:29
बड़ा ही सार्थक आलेख है आपका.बहुत सही लिखा है आपने.
वैसे देखा जाए तो दर्शक को एक अच्छी कहानी से मतलब होता है,न कि हिंदू या मुस्लिम परिपेक्ष्य वाली कहानी से.दूरदर्शन पर जब मिर्जा ग़ालिब जैसे धारावाहिक आते थे,तो वे भी उतने ही लोकप्रिय थे.
मुझे भी यह बात बहुत सालती है कि मुस्लिम समाज के परिपेक्ष्य में कहानिया क्यों नही दिखाई जातीं.पर आज जब हिंदू परिपेक्ष्य की कहानियो की एकता कपूर परम्परा में दुर्गति है तो फ़िर बाकी क्या अपेक्षा की जाए.
डॉक्टर अनुराग से मैं बहुत सहमत हूँ..
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224743940000#c7944164926861723052'> 22 October 2008 at 23:39
आलेख भी अच्छा और टिप्पणियाँ भी ..मिला-जुला के निष्कर्ष वो ही पुराना वाला "जो बिकता है वो ही दीखता है"
दूरदर्शन इस मामले में थोड़ा समृद्ध है.
http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_21.html?showComment=1224853740000#c1938122857367928229'> 24 October 2008 at 06:09
Ek aur maje daar baat hai. Hamare yaha par pahle social filme banti thi. Hindu social aur muslim social. Agar aap hindu social dekein to lagega ki hidustan me to sare hindu hi hindu hain. Wahi muslim socials me doctor, professor, mechanic, mali, sari kaynat musalman hoti thi.