चैनल में मेरे साथ काम करनेवाले मेरे दोस्त अक्सर कहा करते- तुम्हें जितनी सैलरी मिलती है, लगता है उसके आधे पैसे से तुम तो काजू ही खा जाते हो। लड़कियां व्यंग्य में कहती- अरे बड़े लोग बड़ी बात। हम तो घास-फूस खाकर बड़े हुए हैं। एक-दो लड़कियों का मुंह बंद करने के लिए मैं उसे चने की माफिक काजू खिलाया करता। अक्सर कहता- डबल-डबल शिप्ट किया करती हो, ठीक से खाया-पीया करो, नहीं तो ऐसे कैसे चलेगा। अभी तो पूरी जिंदगी पड़ी है। ऐसी भूमिका बनाने के बाद कहता-लो काजू खाओ। टप्परवेयर का डिब्बा उसके सामने खोल देता और वो मूढ़ी-भूजे की तरह काजू खाती।

पहले मेरा घर अधिक जाना होता था। किसी न किसी बहाने घर जाने की ताक में लगा रहता। दीदी की शादी होनेवाली थी। सो वो भी एक अच्छा बहाना होता। कभी लड़का देखने, कभी फाइनल करने, कभी शॉपिंग कराने..... फिर भइया लोगों का भी दिल्ली अक्सर आना होता रहता. इधर वो कम आने लगे हैं और अगर आते भी हैं तो पहले दिन मेरे यहां नहीं आते। पहले वो अपना काम कर लेते हैं, फिर चार-पांच दिनों के बाद मेरे पास आते हैं। इससे उनके आने पर भी किसी के घर से आने का एहसास नहीं होता। आने के पहले मां पूछती है कि- क्या-क्या भेज दूं. मैं कहता हूं, कुछ नहीं, भइया कहां-कहां लेकर भटकते फिरेंगे, सीधे तो मेरे पास आते नहीं है.नहीं तो पहले जब भी मैं जाता या फिर घर से कोई आता तो ढेर सारे सामान लेकर आता। जिसमें काजू की मात्रा सबसे अधिक होती।

मैं जिस दिन घर से निकलने को होता, उसके पहले की रात दीदी मेरी दीदी जिसकी शादी भी जमशेदपुर ही हुई है, मेरे यहां आ जाती. साथ में वो दुनियाभर का सामान लेकर आती। कॉम्प्लॉन से लेकर सर्फ एक्सल तक। मैं कहता, ये सब क्यों ले आती हो, दिल्ली में सब मिलता है। उसका सीधा जबाब होता- अरे घर में पड़ा था ले आयी औऱ फिर तुम जाते ही सामान खरीदे लगोगे। काजू के दो बड़े-बड़े पैकेट तो ऐसे लाती जैसे कि यह मेरे लिए शगुन है. दीदी के यहां इन्ही सब चीजों का बिजनेस है। दीदी के आने के पहले मां सामान की पैकिंग कर चुकी होती. सारे सामान के साथ वो भी काजू देती। घर के किचन में खुशी को खिलाने के लिए जो काजू भाभी मंगाती है, वो सारा का सारा एक पॉलीथीन में बांधकर दे देती. मैं पूछता- और खुशी। तो सीधा कहती- घर में इतना तो आदमी है, कोई ले आएगा।

सारा सामान लेकर मैं दुकान पहुंचता हूं। बड़े भैय्या तो घर से ही साथ में होते हैं लेकिन छोटे भैय्या और पापा वहीं होते हैं। वहां जाने पर पापा एक सवाल करते हैं। चड्डी-बनियान तो है न। फिर हां कहने पर भी तीन-तीन निकालकर दे देते. अब मुझे भी ऐसी लत लगी है कि हजार रुपये की शर्ट खरीदने के बाद भी दिल्ली में चड्डी-बनियान मंहगी लगती है. इसी बीच देखता हूं कि बड़े भैय्या उधर से दो काजू के पैकेट लेकर आ रहे हैं. मैं कहने लगता हूं. दीदी ने भी दिए हैं, मां ने भी दिए हैं। आप खुशी के लिए लेते जाइए। भइया हंसकर कहते हैं-खुशी के तो यहां पापा है, बाबा हैं, चाचा है, कोई भी ला देगा। तुम्हारा वहां कौन है। लेते जाओ।

कुल मिलाकर सबों की को कोशिश यही होती है कि दिल्ली में इसे कम से कम नकदी पैसे खर्च करने पड़े.इधर मैं करीब दस-बारह दिनों से बीमार पड़ा रहा। कमजोरी इतनी अधिक की उठने पर चक्कर आने लगे। राकेश सर आए और मुझे जबरदस्ती अपने घर ले गए। तीन-चार दिनों तक घर का खाना खाया तो थोड़ी ताकत आयी। डॉक्टर सहित सबों ने राय दी कि जमकर खाया-पिया करो। दूध लो, फल लो,जूस पियो औऱ हां काजू-किशमिश खाया करो। जिन लोगों को पता है कि मैं गाय-गोरु की तरह फल धसोड़ता हूं, उनका कहना था कि इतना फल खाने पर भी कैसे कमजोर हो गए।

परसों शाम मेरा एक दोस्त आया और कहने लगा- अब थोड़ी दूसरी थेरेपी अपनाओ। चलो कमलानगर घूमकर आते हैं, इधर-उधर ताकोगे तो हरियाली आ जाएगी। वहीं से काजू-किशमिश वगैरह खरीद लेना। बड़ी हिम्मत करके वहां गया.जाड़े के दिनों में दिल्ली में ड्राइफ्रूट्स की बाढ़ आ जाती है। अभी तो दिवाली में भी लोग एक-दूसरे को गिफ्ट करते हैं। मैं एक दूकान पर पहुंचा औऱ सबों के दाम पूछने लगा. लाइफ में पहली बार काजू खरीदने का मन बन रहा था और पहली बार मैं इसकी कीमत जान पाया। दूकानदार ने मात्र ५५० रुपये किलो बताया। सब्जीवाले सब्जियों के दाम पाव में बताते हैं लेकिन ये किलो में बता रहा था।

दाम सुनकर मुझे कई चीजें एक साथ याद आ गयी। चैनल में लड़कियों को काजू खिलाने से लेकर दीदी, मां और भैय्या के काजू देने तक। साथ ही दिमाग में बायलॉजी के सारे विटामिन् याद आ गए औऱ समझा कि अंकुरित अनाज और चने से भी बहुत ताकत मिलती है। अबकी बार में पहले से बोल्ड था और बिना किसी भी चीज का दाम पूछे सीधे कहा- एक किलो चना, एक किलो मूंग, एक किलो, मूंगफली और २५० ग्राम किशमिश पैक कर देना. पैकेट लेकर बाहर निकला, सारी चीजें मेरी हैसियत के हिसाब से थी।


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7 Response to 'तो समझिए काजू खाना भी अय्याशी ही है'
  1. ravi
    http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_17.html?showComment=1224312780000#c1606370993675872744'> 17 October 2008 at 23:53

    Very good article, remind hostel days

     

  2. फ़िरदौस ख़ान
    http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_17.html?showComment=1224313020000#c2852210066664944644'> 17 October 2008 at 23:57

    अच्छी पोस्ट है...बधाई...

     

  3. जितेन्द़ भगत
    http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_17.html?showComment=1224316860000#c597429397724208929'> 18 October 2008 at 01:01

    भाई, काजू के लि‍ए डाक्‍टर ने मना कि‍या है, पर पोस्‍ट पढ़ने के बाद काजू खाने की जबरदस्‍त इच्‍छा हो रही है। मजा आ

     

  4. सागर नाहर
    http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_17.html?showComment=1224321060000#c1764747435814038125'> 18 October 2008 at 02:11

    शानदार पोस्ट,
    काजू तो नहीं पर माताजी के हाथ की बेसन की बर्फी ( चक्की) और ना जाने किन किन चीजों की याद आ गई।

     

  5. PD
    http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_17.html?showComment=1224356220000#c3801960130473088269'> 18 October 2008 at 11:57

    क्या लिखा है भाई.. सच कहूं तो मुझे भी घर से काजू सबसे ज्यादा मिलते रहे हैं.. मगर उसे घर में खरीद कर भी मैं ही लाता था सो दाम पता होता था..
    घर की याद दिला दी..

     

  6. भुवनेश शर्मा
    http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_17.html?showComment=1224381840000#c6955866530390180602'> 18 October 2008 at 19:04

    सेहत बनाओ भाई....ये सबसे जरूरी है

    जब दिल्‍ली आयेंगे तो साथ बैठकर काजू खायेंगे :)

     

  7. अनूप शुक्ल
    http://test749348.blogspot.com/2008/10/blog-post_17.html?showComment=1224423780000#c91831293843950778'> 19 October 2008 at 06:43

    पौस्टिक पोस्ट है यह तो।

     

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