कोसी कहर के बीच मीडिया की भाषा

Posted On 01:23 by विनीत कुमार |

आप चाहें तो कह सकते हैं कि देश में सालभर में दो-तीन बार ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जिसको लेकर मीडियाकर्मी
अपनी आत्मा की शुद्धि कर सकते हैं, खोई हुए संवेदना को वापस ला सकते हैं और भाषाई स्तर पर अपने को दुरुस्त कर सकते हैं। जिन्हें भरोसा है कि साहित्य अब भी मानवीय संवेदना को बचाने में मीडिया के मुकाबले ज्यादा कारगार है, वो इस बात का भी दावा कर सकते हैं कि हादसे की घड़ी में मीडिया के लोग बाजार की भाषा भूलकर साहित्य की भाषा अपनाने को मजबूर हो जाते हैं क्योंकि संवेदना साहित्य की भाषा में है, मीडिया की भाषा में नहीं। औऱ साहित्य की इस संवेदना को ले जाकर भले ही बाजार में भुना लें लेकिन साहित्य की भाषा मीडिया के लिए अब भी कम मतलब की नहीं है।

इन सबके बीच अगर आप लगातार कोसी के कहर के बीच न्यूज चैनलों को देख रहे हैं, फील्ड में घुसे उनके रिपोर्टरों को देख रहे हैं तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि पिछले चार-पांच दिनों में लगभग सारे न्यूज चैनलों की भाषा अचानक से बदल गयी है, अखबार भाषा में मनुष्यता और आम आदमी की पक्षधरता तलाशते नजर आ रहे हैं। हेडरों के लिए रेणु का मैला आंचल इस्तेमाल करते नजर आ रहे हैं। वो साहित्यिक नजर आ रहे हैं। रघुवीर सहाय ने जब कहा कि-

सात सौ लोग मारे गए,

अखबार कहता है

टूटे हुए खंडहरर और शहतीर दूरदर्शन दिखाता है

मेरे भीतर से कई खबरें आतीं है हरहराकर।

तो वो बार-बार इस बात पर चिंता जता रहे होते हैं कि मानवीय संवेदना को सामने लाने में दूरदर्शन असमर्थ है। वो सिर्फ सूचना भऱ दे सकता है और वो भी वहीं की सूचना जहां तक कैमरे की पहुंच है। रघुवीर उस दूरदर्शन को असमर्थ बता रहे हैं जिसका काम ही है सामाजिक विकास और आम आदमी के दर्द को सामने लाना। सरकार की ओर से इसे करोड़ों रुपये इसी बात के मिलते हैं। औऱ आज अगर वो सैकड़ों प्राइवेट चैनलों को ध्यान में रखकर यही कविता लिख रहे होते तो पता नहीं दो ही पंक्ति में साबित कर देते कि वो संवेदना क्या कुछ भी व्यक्त करने में असमर्थ हैं।

रघुवीर को इस बात पर शायद ही भरोसा होता कि जो एंकर २२ डिग्री पर स्टूडियों में जाकर खबरें पढ़ता है वो भला कोसी में जाकर पीड़ितों के पक्ष में कुछ बोल सकता है। जो चैनल दिन-रात टीआरपी की तिकड़मों और विज्ञापन बटोरने में लगा होता है, वो भला इनके लिए कुछ राहत और बचाव कर सकता है. रघुवीर को कन्वीन्स करना इन मीडियाकर्मियों के लिए वाकई बहुत मुश्किल काम होता. औऱ आज भी जिनकी मानसिकता पूरी तरह रघुवीर और इसी तरह के दूसरे रचनाकारों से मिल-जुलकर बनी है वो सारे चैनलों के इस मानवीय प्रयास को पाखंड करार दे देगा।

रघुवीर ने कविता में कहा कि पत्रकारिता की तटस्थता पर मत जाओ, आंकड़े बाद में जुटा लेना। पहले उन खबरों का कुछ करो, जो भीतर से हरहराकर आ रही है, जिसे कि कितने भी मेगा पिक्सल के कैमरों हों, कैद नहीं किया जा सकता। आज के हिसाब से कहें तो जिस मंजर को किसी भी चैनल की ओबी वैन लाइव नहीं कर सकती। ये सवाल पत्रकारिता का नहीं, मानवता का है और जाहिर है कि इसमें इस बात से मतलब नहीं होता कि आप इसे सामने लाने के लिए मीडिया के टूल्स सामने ला रहे हो या फिर कुछ और। कोसी के कहर के बीच लगातार पैदा होती खबरों को मारकर अगर कुछ जानें बचा ली गईं तो रघुवीर के हिसाब से हरहराकर आती हुई भीतर की खबरों को जुबान मिल जाती है। कुछ जानों के बच जाने का मतलब है पत्रकारिता और मानवता के बीच एक द्वैत की स्थिति का आ जाना।

रघुवीर पत्रकारिता की तटस्थता के बीच संवेदना के स्तर की तलाश करते नजर आते हैं। तटस्थता औऱ उदासीनता के बीच फर्क करते हैं। उनकी ये चार पंक्तियां बार -बार इस बात की जिद करती है कि- खबरों की तटस्थता की बात बाद में करना, पहले भीतर से जो खबरें आ रहीं है, भीतर जो हलचल है, उसका क्या करें, उसका सोचो, आंकडों पर मत जाओ।

कल पूर्णिया से स्टार के लिए कवरेज कर रहे दीपक चौरसिया ने कहा कि आंकड़ों पर मत जाइए, ये देखिए की हम कितना कुछ कर पा रहे हैं इनके लिए। ये वही पत्रकार है जो हमेशा आंकड़ों की बात करता है, वीडियोकॉन टावर में बैठकर एक आंकड़ा सामनेवाले के आगे कर दिया करता और बस हां या न में जबाब मांगता रहा है। उसे आंकडों में ही हमेशा सच नजर आया। लेकिन आज उसके लिए आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है. एक तो खुद उसके बूते का नहीं है कि वो आंकड़ें जुटा पाए. इंडियन डिजास्टर मैंनेजमेंट की २००६ के बाद बाढ़ को लेकर कोई मीटिंग नहीं हुई कि कहीं से कोई आंकड़े मिल सकें और पर्सनल लेबल पर कोई आंकड़े जुटाए नहीं जा सकते। इसलिए आप ये भी समझ सकते हैं कि किसी भी बड़े पत्रकार के लिए आंकड़ों को छोड़ने के अलावे कोई उपाय नहीं है, इसलिए इस बात को मानवता में कन्वर्ट कर रहा है।

भिवानी के अखाडे के बाद रवीश को मैंने सीधे नेपाल के उस इलाके में देखा जहां मछलियों के चक्कर में, हेरा-फेरी करने के लिए लोग बांध की शटर बार-बार उठाते हैं और जिससे उसका लीवर कमजोर होता है। रवीश झल्ला रहे हैं, परेशान हो रहे हैं, चेहरे पर आए पसीने का मिजाज भिवानी और दिल्ली के पसीने से ज्यादा गाढ़ा है। चेहरे को देखकर ही लगता है कि गए थे सिर्फ रिपोर्टिंग करने लेकिन देखते ही देखते वहां के लोगों के दर्द में शामिल हो गए। राहत शिविर की दुर्गति पर क्षुब्ध हो गए। रवीश एक बूढ़े पथराए चेहरे की तरफ ईशारा करके बताते हैं कि जो सौ किलो से भी ज्यादा अनाज अपने घर में छोड़ आया है, इस राहत शिविर की खिचड़ी के लिए बाट जोह रहा है।

स्टार न्यूज के पंकज सहरसा में बचपन के डूबने की बात बता रहे हैं और दो पंक्तियां दोहराते है-

मगर मुझको लौटा दो बचपन की यादें,

वो काग़ज की कश्ती, वो वारिश का पानी।

वो बताते हैं कि इन मासूम बच्चों का वो आंगन छूट गया है जहां वे खेलते।

इन चैनलों के संवाददाता पर्सनल लेवल पर कोसी की कराहों को कम करते नजर आते हैं। न्यूज २४ का कार्तिकेय शर्मा जो अब तक संसद के गलियारों में खबरें खोजता रहे, राजनीतिक पेंचों को दर्शकों के सामने पेश करते रहे, आज राहत के लिए लगाए गए हैलीकॉप्टर से हमें सूचनाएं दे रहे है, एक-एक पैकेट के पीछे भागते लोगों को कवर कर रहे हैं, उनके दर्द को बार-बार बयान कर रहें है।

सबके सब मीडियाकर्मी साहिकत्यिक भाषा बोलने लग गए हैं। आप कह सकतें हैं कि वो अपने जूनियर्स को लाख समझाते रहे हों कि आम भाषा का इस्तेमाल करो। आम का मतलब उपभोक्ता की भाषा। भले की मार्केटिंग का आदमी शब्दों को तय करता रहा हो कि किसके बदले कौन-सा शब्द बोलना हो लोकिन उनका भरोसा अब भी कायम है कि साहित्य और मानवीय संबंधों का गहरा संबंध है। दर्द, बेबसी औऱ खोती हुई उम्मीदों के बीच साहित्य की भाषा ही काम आ सकती है। चार-पांच दिन में बदली मीडिया औऱ मीडियाकर्मियों को चाहे तो कोई पाखंड कह ले, संवेदना का सौदा कह ले, कोसी क्या कुछ भी हो जिससे टीआरपी बढ़ती हो दिखाएंगे कह ले लेकिन हमें इस बात का संतोष होता है कि मीडिया में मानवीय संवेदना की गुंजाइश अभी पूरी तरह मरी नहीं है।

नोट- हालांकि इस बात का एक दूसरा पक्ष भी है जिसे देखेंगे अगले दिन
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9 Response to 'कोसी कहर के बीच मीडिया की भाषा'
  1. अंशुमाली रस्तोगी
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220347560000#c7178724652174531466'> 2 September 2008 at 02:26

    बहुत शानदार मगर जानदार लेख है, बधाई।

     

  2. vineeta
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220353980000#c5240686892608602284'> 2 September 2008 at 04:13

    bahut hi acchi rachna. lekhan par pakad ka javaab nahi....

     

  3. Arun Aditya
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220356020000#c212075918832292691'> 2 September 2008 at 04:47

    achchha likha hai.

     

  4. जितेन्द़ भगत
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220356920000#c4974216465120255026'> 2 September 2008 at 05:02

    लाजवाब लेख।

     

  5. मुन्ना के पांडेय(कुणाल)
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220359680000#c694519023505036571'> 2 September 2008 at 05:48

    sargarbhit lekh..

     

  6. डॉ .अनुराग
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220367360000#c7804336040467320160'> 2 September 2008 at 07:56

    आपने लगभग वही स्थिति बयान की है जो देश का आम आदमी महसूस कर रहा है बस आपने उन्हें सधे लफ्ज़ दे दिए है ...स्टार न्यूज़ का वो दो लाइने पढ़ना इतना फूहड़ लगा था की पूछिए म़त....

    .सवेंदना के सलीब पर किस की त्रासदी टंगी है
    लिहाफ ब्रेकिंग न्यूज़ का टी आर पी ओढे बैठी है.......

     

  7. pravin kumar
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220374380001#c3267785628169458614'> 2 September 2008 at 09:53

    ishe kahate hai BLOGGER

     

  8. pravin kumar
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220374380002#c1863807095499714592'> 2 September 2008 at 09:53

    ishe kahate hai BLOGGER

     

  9. Sanjeet Tripathi
    http://test749348.blogspot.com/2008/09/blog-post_02.html?showComment=1220380200000#c7133907213136276861'> 2 September 2008 at 11:30

    बहुत सटीक!

     

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