हिन्दी साहित्य समाजियों को अगर किसी चीज से डर है तो वह है बाजार। बाजार ही उसके दुख, भय, अनिद्रा, क्रोध औऱ बाकी जितने भी अभाव के भाव हैं, सबके सब के कारण ही हैं। जानने-बताने के स्तर पर तो ये कबीर के वंशज हैं, ये समाज में प्रतिरोध के स्वर को मजबूत करना चाहते हैं। कबीर की तरह ही प्रेम से पूरी दुनिया को पाट देना चाहते हैं लेकिन बाजार के मामले में कबीर से भी कट्टर हैं। कबीर तो तब से कम बाजार को खड़ा होने लायक जगह मानते ही हैं। वो जगह जहां से विरोध शुरु करनी है-

कबीरा खड़ा बाजार में.....

जो घर जारे आपना चलै हमारे साथ।।

कबीर तो बाजार को कम से कम एक ऐसी जगह मानते हैं कि जहां आदमी खड़े होकर विरोध करे तो उसका असर ज्यादा होगा लेकिन अब हिन्दी साहित्य से जुड़ी इन्हीं की पीढ़ी बाकी बातों का समर्थन करते हुए भी कबीर के इस नजरिए के सीधे विरोध में हैं औऱ मानकर चल रहें हैं कि- बाजार तो खड़े होने की भी जगह नहीं है। वो सबकुछ आज के ढंग से जीते हुए भी अपने को बाजार के बीच नहीं देखना चाहते। वे अपने को बाजार से दूर रखने के प्रयास में हैं। उऩ्हें हमेशा डर लगा रहता है कि वो बाजार में न खड़े कर दिए जाएं।

ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि पिछले सात-आठ दिनों में मुझे उन सात-आठ लोगों से मिलने का मौका मिला जो इस साल डीयू के हिन्दी विभाग से किसी न किसी विषय पर पीएचडी करने जा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने अभी रिसर्च-प्रपोजल विभाग में जमा किए हैं। इन सारे लोगों ने मुझे अपना यह काम दिखाया और कुछ सलाह भी मांगी। सारे लोगों के विषय एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे। कोई अस्मिता को लेकर काम करना चाह रहा है तो कोई मल्टीकल्चरलिज्म को लेकर तो कोई कार्टून की भाषा पर। विषय के स्तर पर इनलोगों का एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं था लेकिन लिखने के स्तर पर बहुत अधिक फर्क नहीं था।

सबों ने पहले ही पैरा में बाजार, भूमंडलीकरण, पूंजीवाद और इसी तरह के वैल्यू लोडेड शब्दों का प्रयोग किया हुआ था और दूसरे पैरा में उसका जमकर विरोध। ऐसा किए जाने से मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। लिखने के स्तर पर, खासकर जब मामला अकादमिक स्तर का हो तो मेरा एजेंड़ा सिर्फ इतना भर होता है कि जिस विषय पर बात करनी हो, उसे लिखने के दौरान स्पष्ट कर दिया जाए। ये वो बात नहीं थी। यहां बाजार और भूमंडलीकरण का विरोध कुछ ऐसा लग रहा था कि जैसे पुराने साहित्य में और हिन्दी सिनेमा में अभी भी शुरुआत में पीतल की घंटी बजा दिया जाता है, मंगलाचरण टाइप से कुछ लिख दिया जाता जिसका कि बाद के पाठ से कोई संबंध नहीं होता। कुछ प्रगतिशील और आस्थावादियों की जीन्स से बने लोग इस संबंध में बड़ा ही खूबसूरत तर्क देते हैं कि- ऐसा इसलिए किया जाता है कि सबसे पहला रचानाकार ईश्वर है, उसके बाद कोई और है। इसलिए ये मामला आस्था और धर्म का नहीं है बल्कि पूर्वजों को दिया गया उचित सम्मान है।

अगर इस लिहाज से हिन्दी के लोगों की लिखी बात पर गौर करें तो आज की हिन्दी पीढ़ी भी जिसे कि बाजार से बहुत अधिक विरोध नहीं है, बल्कि उसे तो लगता है कि बाजार ने बहुत ऐसे अवसर दिए हैं जो कि इसके बिना संभव नहीं है। वह बाजार में अपने करियर की एक बड़ी संभावना देखता है वह भी एमए, एम।फिल् या फिर पीएचडी के स्तर पर कुछ भी लिखना शुरु करता है तो पहले ही पैरा में बाजार की आलोचना करता है, उसके विरोध में उंची-उंची हांक लगाता है तो क्या इसका मतलब ये है कि वह उन पूर्वजों को उचित सम्मान भऱ दे रहा होता है जिनकी किताबों को पढ़-पढ़कर उसने समझा है कि साहित्य में आम आदमी की बात कैसे की जा सकती है। उसके ऐसा करने से पूर्वजों के प्रतिनिधि जो अभी भी अस्तित्व में हैं, उन्हें भी सम्मान मिलेगा औऱ उनके आशीर्वचनों से कभी बड़ा साहित्यकार हो जाएगा।...हमें तो यही लगता है कि आज की हिन्दी पीढ़ी अगर बाजार के विरोध में लिख रही है तो वह ऐसा करके पूर्वजों का ऋण उतार रही है, बाजार के विरोध में लिखकर पूर्वजों के प्रतिनिधियों को परिस्थितिवश सम्मान दे रही है, नहीं तो पाखंड से ज्यादा कुछ भी नहीं है, पढिए अगली पोस्ट में
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3 Response to 'जो बाजार में खड़े होने से डरते हैं'
  1. जितेन्द़ भगत
    http://test749348.blogspot.com/2008/08/blog-post_30.html?showComment=1220158320000#c586189711657059756'> 30 August 2008 at 21:52

    जेब गरम हो या नरम, बाजार जैसा भी है, वहॉं जाए बि‍ना कोई नहीं रह पाया है। बाजार की आलोचना करनेवाले भी वक्‍त नि‍कालकर सपरि‍वार बाजार जाकर ब्रैंडेड चीजें ढ़ूढ़ते मि‍ल जाएंगें।

     

  2. तरुण गुप्ता
    http://test749348.blogspot.com/2008/08/blog-post_30.html?showComment=1220202180000#c8524340625530805157'> 31 August 2008 at 10:03

    हम बाज़ार को कितना ही कोस लें लेकिन हमारी अंतिम कोशिश उसी जगह पर अपनी जगह तलाशने की होती है । हम में से कितने लोग आज सिर्फ समाज सेवा के लिए पढ़ रहे हैं । विनीत सर सच तो ये आज हमारी कथनी और करनी जो आज साहित्यजीवी अपना रहा है वो हमें उसी बाज़ारवादी व्यवस्था से मिली है जिसे हम कोस रहे है । इस बारे में मेरे ज़हन में बार-बार एक सवाल उठता है कि क्या उपभोक्तावाद , बाज़ारवाद , भूमंडलीकरण उतनी बुरी चीज़ है जितना हम उसे दिखाने का प्रयास कर रहे है । मैंने उन लोगो को जो क्लास में अपना रिसर्च पेपर पेश करते वक्त भूमंडलीकरण की धज्जियाँ उड़ाते हुए और शाम को नेरूलाज़ , माँल आदि में दोस्तो के साथ मटरगश्ती करते देखा ऐसा आपने भी देखा होगा ऐसा मेरा यकीन है .।

     

  3. जितेन्द़ भगत
    http://test749348.blogspot.com/2008/08/blog-post_30.html?showComment=1220210400000#c1666992850019178730'> 31 August 2008 at 12:20

    मैं तरुण जी की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ।

     

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