अपने पापा की तरह ईमानदार और गउ मत होना, बहुत कष्ट होगा। जब भी पापा के पुराने जानकार लोगों से मिलना होता है, यही राय देते हैं। बड़े अफसोस के साथ बताते हैं कि तुम्हारे पापा की ईमानदारी उन्हें ले डूबी, नहीं तो आज फ्लैट नहीं होता, महल होता, महल। वैसे, आदमी तो वो हीरा हैं हीरा। पापा की ईमानदारी को ये लोग ऐसे प्रोजेक्ट करते मानो यह उनके लिए सबसे बड़ी ऐब है।
छोटे से लेकर अभी तक पापा के सामने मेरे पड़ने की हिम्मत नहीं होती, मैं बहुत डरता हूं. अभी भी घर जाता हूं, जोर-जोर से गाने गाता हूं और जैसे ही देखता हूं कि पापा आ रहे हैं, तुरंत चुप हो जाता हूं. मां से दुनिया जहां की कहानियां सुनता-सुनाता हूं लेकिन पापा के आते ही चुप हो जाता हूं। बाद में पता चला कि पापा मेरे इस व्यवहार से अपसेट हो जाते हैं। मां से कहते कि- ये हमसे बात नहीं करना चाहता, ऐसे तो खूब हंस-हंसकर बतियाता है लेकिन जैसे ही मैं आता हूं, चुप हो जाता है। पापा को लगता मैं उन्हें इग्नोर करता हूं। ऐसा जानने के बाद मैं उनके सामने भी बैठने की कोशिश करता लेकिन समझ ही नहीं पाता कि- क्या बात करुं? जिनसे मैं घर में जब तक रहा,यानि बोर्ड तक डरता रहा, उनके सामने वैसे ही कई मुद्दे खत्म हो गए थे बात करने के और अब बहुत सारे मुद्दों पर लगता है, उनसे शेयर नहीं किया जा सकता।
पापा मुझे लेकर कुछ ज्यादा ही सख्त थे। मेरी परवरिश इतनी सख्ती से हुई है कि मैं बचपन से ही बहुत डरा-डरा रहता। कोई कुछ पूछता तो मैं एक बार में तो कोई जबाब ही नहीं दे पाता। मुझे ऐसी बातों पर डांट या मार पड़ जाती जिसके बारे में आज सोचता हूं तो हंसी भी आती है और अपने उपर तरस भी आता है कि कैसे मैं कुछ नहीं कर पाता था। कभी पापा से मार खाने से बच भी जाता तो मेरे से बड़े दो भइया और तीन दीदी..। इनमें से किसी न किसी की नजर मेरी गलती पर पड़ ही जाती. उन लोगों का मूड होता तो खुद ही पीट देते, नहीं तो केस पापा के पास रेफर कर देते. मारते हुए मुझे याद है, पापा को कभी टेंशन नहीं होती कि- मैं क्यों गलतियां करता हूं. बड़े इत्मीनान से मारते और इसे उन्होंने डेली रुटिन में शामिल कर लिया था।
मेरे से बड़े पांच भाई बहन थे। दिनभर में किसी न किसी से खुन्नस हो ही जाती। कोई कुछ करने कहता और मैं खिसक जाता. दीदी रंगीन धागे के लिए दौड़ाती और मैं मना कर देता या फिर भइया बुलाकर कहते कि- ये बात बताना मत औऱ मैं जाकर सबसे पहले बता देता। कई बार तो एक ही केस के लिए पापा सहित दो-तीन और से पिट जाता. पापा तो मारते ही लेकिन उसमें बाकी जिस-जिसका मामला फंसता, सब हाथ आजमाते।
मैं पापा का लास्ट एडीशन हूं। पापा को लगता, जितना कुछ ठोंक-पीट करनी है, इसकी ही कर लो। वैसे भी भइया लोग को वो मार नहीं पाते। क्योंकि मेरे दोनों भइया बारी-बारी से दुकान में उनका साथ देते, उनका काम हल्का कर देते। मेरे बारे में पापा की राय थी कि- अगर ये पढना चाहता है तो इसे मोहल्ले के बाकी बच्चों से अलग रहना होगा, मुझे एक ही साथ राजा हरिश्चन्द्र होना होगा, गांधी होना होगा, महात्मा बुद्ध होना होगा,पापा होना होगा.
जिस बदमाशी को करने में शरीर और ताकत का इस्तेमाल होता, मैंने कभी भी वैसी बदमाशियां नहीं की। मैं अलग किस्म की बदमाशियां करता।
पापा के चले जाने पर उन्हीं के अंदाज में मां से चश्मा मांगता, खाना मांगता,उनकी नकल करता, आप कला की दृष्टि से उसे मिमकरी कह सकते हैं और संस्कार के लिहाज से मजाक उड़ाना। पापा दूसरे वाला अर्थ लेते औऱ फिर.... दीदी के साथ पढ़ने जाता और दीदी के क्लास के सबसे बोतू लड़के के साथ नाम जोड़कर चिढ़ाता। इन सबमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि मुझे बदमाश करार दिया जाए। अच्छा, बच्चों की बदमाशी में जो सबसे जरुरी बात शामिल है वो है कि वो सामान बहुत बर्बाद करता है। लेकिन मेरी ट्रेनिंग थोड़ी अलग ढग से हुई थी।
तब स्कूल की अपनी कांपियां नहीं होते थे। पापा हमें कांपी देते और हरेक पेज पर नम्बर लिख देते। कांपी जब भर जाती तो उसे चेक करते। बाकी के समय में तो कोई परेशानी नहीं होती लेकिन बरसात में पिटने के सीन बन जाते। मैं चाहकर भी अपने को रोक नहीं पाता औऱ स्कूल से लौटते हुए और बच्चों की करह नाव बनाकर छोटे से नाले में तैराता। होड़ लगने पर कभी-कभी पांच-पांच पेज तक फाड डालता जिसकी सजा कभी-कभी बरसात के बाद भी मिलती।
भाई-बहनों से पिटते देख मेरी मां अक्सर कहती- इन कसाइयों के बीच इसको कोई बचने नहीं देगा, कैसे गाय-गोरु की तरह सब इसे मारता है। पापा को मारते देखती तो चुप रहती लेकिन जब ज्यादा ही पीटते तो सीधे रसोई से जाकर हंसिया लाती औऱ मुझे आगे करके पापा से कहती- काट दीजिए दो टुकड़ा, न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। तब पापा मुझे छोड़ देते। पापा के मारने के साथ खास बात थी कि वो मारने के बाद पुचकारते नहीं थे, रोता हुआ छोड़ देते थे। उनका मानना था कि ऐसे में मार का असर खत्म हो जाता है। आज तीन साल की खुशी को देखता हूं- एक तो भाभी या भैय्या उसे मारते नहीं जो कि सबसे अच्छी बात है लेकिन जिस दिन तरीके से डांट दिया तो उस दिन उसकी तकदीर खुल जाती है. डांट के बाद तत्काल बाद डेरी मिल्क और फिर नीचे जाकर रिलांयस फ्रेश से जो चाहे वो। अपनी सारी इच्छा वो इस दौरान पूरी कर लेती है।
आज जब मैं अपने बचपन के बारे में सोचता हूं तो एकदम से दो फांक दिखाई देते हैं। एक पापा सहित घर के बाकी लोगों द्वारा मेरे प्रति सख्त कारवाई औऱ दूसरी तरफ मां का मेरे लिए हमेशा बीच-बचाव। इसलिए बहाना चाहे जो भी हो, प्रशंसा के शब्द मां के लिए पहले निकलते हैं। मां आज भी कहती है- बचपन में तुम्हें सौतेले बेटे का प्यार मिला है।
इतना सब होने पर भी मैं यह तो नहीं कह सकता कि मुझे लेकर पापा के मन में कोई खोट थी। वो चाहते थे कि दुनिया की सारी अच्छाईयां मेरे भीतर हो और जो कि संभव नहीं था। पापा इसी बात पर नाराज होते. झूठ जल्दी बोलता नहीं था, मन ही नहीं करता। जब पूछते तेल की शीशी का ढक्कन किसने खुला छोड़ा, मैं कहता- हमने छोड़ा तो कभी-कभी मुझे देखते रह जाते औऱ गुस्सा आने पर भी मेरी तरफ प्यार से देखते, फिर कहते. सच बोले हो, अच्छी बात है लेकिन गलती तो किया ही है औऱ एकाध हाथ दे देते। मां कहती कि- क्यों राजा हरिशचन्द्र बनने लग जाते हो, बोल देते नहीं जानते हैं. मां की सारी बातें मानने के बाद भी मैं नहीं जानते हैं, कभी कह नहीं पाता। शायद मैं ऐसा कहकर पापा को दुखी नहीं करना चाहता था और मेरे पूरे बचपन की यही एक सीन है जिसे याद करके लगता है कि- तब भी पापा मुझे बहुत प्यार करते थे।
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http://test749348.blogspot.com/2008/06/blog-post_13.html?showComment=1213428840000#c1787219837873124341'> 14 June 2008 at 00:34
बढिया सस्ंमरण
http://test749348.blogspot.com/2008/06/blog-post_13.html?showComment=1213450260000#c4454064602814310084'> 14 June 2008 at 06:31
विनीत
ये संस्मरण कई लोगों की भूली-बिसरी में नाम बदलकर शामिल हो सकता है। लेकिन, मैं बस इतना ही कहूंगा कि मैं अभी भी यही चाहता हूं कि कुछ लोग बचे रहें जिनके बच्चों से उनके पापा के दोस्त वही बोलें जो, आपने शुरू में लिखा है