घर के बाकी लोगों ने मजे लेने शुरु कर दिए थे। जिसकी चपेट में मां भी गयी। वो मजाक तो नहीं करती लेकिन जब घर में कोई नहीं होता तो बहुत ही गंभीर होकर पूछती, सही में कोई लड़की है क्या। मैं कहता, नहीं मां ऐसा कुछ भी नहीं है, होती तो बताता नहीं। मां जोर देकर कहती- नहीं बेटा, इस उमर में ऐसा होता है, कोई नई बात तो है नहीं। कुछ हुआ है तो बताने में क्या हर्ज है। मैं अपनी बात पर अड़ा रहता। आगे मां ऐसे सलाह देने लग जाती जैसे मैं सचमुच किसी लड़की के चक्कर में पड़ गया हूं और उसी की याद के कारण दिल्ली से आने पर खोया-खोया सा रहता हूं। सुस्त-सा पड़ा रहता हूं।
पहली बार मुझे मां की योग्यता पर शक हुआ। पहली बार लगा कि अब कोई टेक देनेवाला नहीं है। क्योंकि अब तक तो लगता रहा कि चाहे कुछ भी हो जाए, मां तो है ही, वो हमें अच्छी तरह समझती है।
लेकिन जब वो पापा पुराण सुनाने लग जाती तो मेरा भी दिल बैठने लग जाता। तुमसे क्या छिपा है, कितनी मुश्किल से सबसे लड़-झगड़कर भेजा है तुम्हें। कुछ नहीं भी करना तो कम से कम हमलोगों की लाज रख लेना बेटा। मैं फफक-फफककर रोने लग जाता। मेरे भीतर से एक साथ जाने कितनी चीजें टूटने लग जाती औऱ लगता सबकुछ कलेजे पर आकर जमा हो गया है। मैं दिन-रात पड़ा रहता। दीदी लोग एक-दो बार मेरे कमरे में आती और कभी व्यंग्य से कभी दया से और कभी हिकारत से मेरी तरफ देखकर चली जाती।
मुझे अब समझ में आता है कि बीच-बीच में बच्चों के साथ-साथ मां-बाप की काउंन्सेलिंग कितनी जरुरी है। उस दौरान अगर मुझे किसी से नफरत होती तो मां से। बाकियों के बारे में सोचता कि ये तो शुरु से
ही ऐसे हैं। मां से ऐसी उम्मीद नहीं थी। गुस्सा तब और बढ़ जाता जब सोते हुए मेर माथे पर कोई भभूत लगाने लग जाती। करीब पन्द्रह दिन ऐसे ही कटे। अब घर के लोग बुरी तरह परेशान हो गए। दीदी ने कहा इसे डॉक्टर से दिखाओ और तब हमें डॉक्टर के पास ले जाया गया।
डॉक्टर के मुताबिक मैं डिप्रेशन का शिकार हो गया था। बताया कि इसका खास ख्याल रखिए। जो बात इसे पसंद नहीं बिल्कुल मत दुहराइए। इससे बहस मत कीजिए और जो कहे मान लीजिए। जो कहे खाने को वही दीजिए, अपनी तरफ से जिद मत कीजिए। साथ में खूब सारी दवाइयां लिख दी।
घर आकर इन सारी बातों को मां के सामने दुहराया गया। मैं तो अधमरा-सा पड़ा था। मां को सब जानकर बहुत अपसोस हुआ। दीदी को कोसती हुई बोला- हम तो हैं कि अनपढ़-गंवार, तुमलोग को भी पता नहीं था कि ऐसी भी कोई बीमारी है और दिनभर लड़की-लड़की बोलकर बच्चा को पगलाते रहे। वही कहें जब बीए तक में कुछ नहीं किया बेचारा तो अतरा में पतरा खोलेगा। उसके बाद लोगों ने चिढ़ाना बंद किया और मुझे मरीज का दर्जा मिल गया। कॉलोनी में दबी जुवान से ये भी सुनने को मिल जाता कि फलां बाबू का छोटका लड़का पगला गया है।
मां अपने लिए जितने भी पुण्य के काम करती। मेरे लिए पाप का काम करने के लिए उतनी ही तैयार रहती। मां कि नजर में पाप और पुण्य की पहचान एकदम साफ थी। इतनी साफ कि दिनभर माथा-पच्ची करते बाबाजी भी गश खा जाएं।
मां के हिसाब से सभी पापों में से एक पाप था-मांस, मछली खाना।छूना तक पाप समझती। लेकिन उस कार्तिक के महीने में जबकि मां रोज शाम को दिए जलाती,ये पाप कर गयी।
शाम को मुझे अचानक उबले हुए अंडे खाने का मन कर गया। मां को भी बताया। मां थोड़ी देर सोचती रही फिर चप्पल पहनकर गेट के बाहर चली गयी। ये भी नहीं बताया कि कहां जा रही है। मुझे लगा, कार्तिक के महीने में मेरी इस इच्छा को सुनकर शायद उसे बुरा लगा हो। करीब पच्चीस मिनट बाद हरी पत्तियों में लपेटे उबले अंडे लेकर खड़ी मिली.....और कहा, अब कम से कम बाहर तो जाओ,यहीं खा लो। मेरा मन किया कि मैं अंदर ही खा लूं और कहूं, ये सब ढोंग अपने पास रखो। लेकिन तब इतनी ताकत भी कहां थी देह में कि ऐसा कर सकूं। अंडे थमाने के बाद उस ठंड में खूब नहायी।...
मां की इन सब हरकतों से मैं अक्सर तय नहीं कर पाता कि मुझे करना क्या चाहिए। किस बात पर गुस्सा होना है और किस बात पर खुश पता ही नहीं चल पाता और नतीजा ये होता कि मां जिस उम्मीद से किसी काम को करती कि मैं खुश हो जाउँगा, मैं अक्सर नाराज हो जाता और बाद में एहसास होन पर पछताता।
घर से दिल्ली आने पर इतना कुछ भर देती कि लगेज उठाते हुए मन भन्ना जाता। और झल्लाते हुए कहता-इसे क्यों दे दिया, इतना तो घर में रहकर खाया हूं। मां सिर्फ इतना ही कहती- दिल्ली पहुंचते ही खाने का मन करेगा। और सचमुच में जो भी कष्ट होता, लाने में ही होता...जब एक-एक चीजों को खोलता तो आंखें भर जातीं, तभी मां का फोन आती...पॉलीछीन में अलग से नारियल का लड्डू डाल दिए थे, खाए थे। मैं पता नहीं क्यों भावुकता के बीच में ही व्यंग्य कर जाता कि- भेजी थी खाने के लिए तो क्या फेंक देते।
घर से निकलने के पहले कहता- लो अब आराम से रहना। मेरे चक्कर में तुम्हारे दस दिन बर्बाद हो गए। अब तुम्हारा पूजा-पाठ भी टाइम से होगा। मैं उसके आराध्य का जब तब मजाक उड़ाया करता हूं और वो कान पर हाथ सटाकर कहती है- सब माफ करिहो ठाकुरजी और खूब जोर-जोर से रोने लग जाती।
मां की बातें और मां की बातों का अंत नहीं है। लेकिन इतना तो जरुर है कि अगर मां को सिर्फ भावुक होकर, तर्क पर, किताबी ज्ञान और डिग्रियों की गर्मी को साथ रखकर भी याद करुं तो भी मां से लगाव में रत्तीभर भी कमी नहीं आएगी। मेरी बात रखने के लिए वो हां में हां मिला भी दे तो भी चीजों को देखने और समझने का उसका अपना नजरिया है, जाने कितने मुहावरे हैं, जिसे विश्लेषित करने के लिए मुझे जाने कितने वाद पढ़ने पड़ जाएं और कितनी किताबों के रेफरेंस देने पड़ जाएं।
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9 Response to 'अतरा में पतरा नहीं खोलेगा मेरा बेटा'
  1. PD
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210584720000#c2298669206698784865'> 12 May 2008 at 02:32

    क्या क्या लिख देते हैं महाराज..
    क्यों ऐसा लिख कर घर की याद को और मजबूत कर जाते हैं??

     

  2. सुशील कुमार छौक्कर
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210585680000#c4308663157058628744'> 12 May 2008 at 02:48

    यादें गुनगुनाती है, अपने पास बुलाती।
    फिर हम कुछ देर को,वही रह जाते है॥

     

  3. दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210586220000#c9133025292833312040'> 12 May 2008 at 02:57

    पीडी भाई की शिकायत वाजिब है। यह पोस्ट ऐसी है कि गहरे वैरागी को भी नॉस्टेल्जिक कर जाए।

     

  4. Rajesh Roshan
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210593780000#c4995289115957940675'> 12 May 2008 at 05:03

    विनीत भाई आपकी माँ मेरी से मिलती है. और यह लेख भी. आपकी माँ को नमन करता हू
    राजेश रोशन

     

  5. कमलेश प्रसाद
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210596060000#c3048390464319913745'> 12 May 2008 at 05:41

    सच मे रुला दिया आपने....

     

  6. anitakumar
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210598280000#c1889184016369883965'> 12 May 2008 at 06:18

    विनीत जी ज्यादातर मांए ऐसी ही होती है और बेटे भी कुछ कम नहीं होते आप के जैसे ही होते हैं जाने अनजाने रुलाने को तैयार पर फ़िर भी जिनकी एक झलक देख यूं ही खुशी से मन उमड़ पड़ता है। अब बेटे भी समझे तो क्या समझें , मां तो बेटे को आता देखते भी आखें छ्लकाती है और जाता देख कर भी। आप की माता जी को हमारा भी प्रणाम, बहुत अच्छी हैं वो

     

  7. भुवनेश शर्मा
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210605000000#c399027769199246693'> 12 May 2008 at 08:10

    रुला दिया आपने इस पोस्‍ट से तो.

    बहुत दिन बाद मां की याद आ गई.....

     

  8. Udan Tashtari
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210615320000#c7426724916982090499'> 12 May 2008 at 11:02

    पढ़ते पढ़ते माँ की याद हो आई-सभी माँऐं एक सी ही होती हैं. भावुक कर दिया.

    अब तो माँ को गये ३ साल से भी ज्यादा हो गये फिर भी उसकी आवाज सुनाई देती है.

     

  9. अभिषेक ओझा
    http://test749348.blogspot.com/2008/05/blog-post_12.html?showComment=1210660920000#c2339740248760999424'> 12 May 2008 at 23:42

    सच में भावुक कर देने वाली पोस्ट !

     

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