....तो कल रात ११ बजे रात से सुबह ४ रात तक चली बहस के बाद ये घोषित किया गया कि हनुमानजी भी ओबीसी थे और जिनको भरोसा है कि वो अभी भी हमारे बीच हैं तो मान लीजिए कि वो हमारे सामने ओबीसी के रुप में मौजूद हैं।

ओबीसी आरक्षण को लेकर बिना सिर -पैर की चली बहस में एकबारगी तो मेरा मन उबने लगा कि क्या ये सीनियर लोग विमर्श के नाम पर झेला रहे हैं लेकिन जब एक भाई ने क्रीमीलेयर में आने के कारण हमें भी बाबाजी यानि ब्राह्मणों की कोटि में रख लिया तो मुझे भी रस आने लगा कि बैठकर सुनूं तो आगे भाई लोग क्या-क्या तय कर रहे हैं। अच्छा मुझे इस बात की भी उम्मीद जगने लगी कि जिन लोगों को धन-दौलत होने के वाबजूद भी अन्य पिछड़ा होने की पीड़ा सताती है उसके लिए भी यहां राहत की बात की जा रही है।

तमाम घोषणांओं में हनुमानजी वाली घोषणा सबसे बेजोड़ रही। एक सीनियर जो कि हमेशा पेट्रोल छिड़कर जान दे देने की बात करते रहे थे, आज बहुत खुश थे। लोग चाह रहे थे कि उन्हें उदास किया जाए, थोड़ा दुखी किया जाए कि इतना घिसने के बाद जब रिजर्वेशन लागू हो भी गया तो क्रेडिट कोई और बटोर रहा हौ, अखबार में कहीं उसका कोई नाम नहीं, किसी भी चैनल ने उनकी बाइट नहीं ली। वो फिर भी इस बात पर खुश हो रहे थे कि- जाने दो, हमरा कोई नाम लेनेवाला नहीं तो कोई बात नहीं, हम जो चाहते थे आखिर वो तो हुआ न। फायदा तो हमलोगों को मिलेगा न। हां अब बस नेता और लेखक को जो रिजर्वेशन का लाभ नहीं मिलेगा, उसके लिए फाइट करनी है, सरकार पर दबाव बनानी है कि लोकसभा चुनाव आने के पहले कोई कमेटी गठित हो जाए और कुछ ठोस निर्णय लिए जाएं।

लेकिन, सच्चाई ये है कि आज अगर मीडिया किसी की नोटिस नहीं लेता तो उसके होने पर दसों उंगलियां उठती है। मसलन कोई अपने को लेखक कहे और मीडिया ने कभी उसकी तस्वीर या हिन्दी दिवस पर विचार या बाइट उसके नहीं दिखाए, छापे तो वो लेखक हो ही नहीं सकता। उसी तरह कोई अपने को कवि माने और होली में किसी चैनल ने उसे ये कहते हुए नहीं दिखाया कि- डॉक्टर मरे नर्स पर और मरीज मरे फर्श पर, ये है जी अपना देश, ये है जी देश की हालत तो समझिए कि वो कवि है ही नहीं। ठीक उसी तरह सरकार का कोई फैसला आए और उस पर उसका बयान ही नहीं लिए जाएं तो उसे नेता कैसे मान लिया जाए। इस मामले में मीडिया नपुंसक होने से बचाता है।

बहस में शामिल लोगों ने इसी बात का हवाला देते हुए उसके नेता होने पर ही उंगली उठा दी। एक ने कहा- महाराज आप तो छुठभइए नेता भी नहीं हो पाए कि कम से कम ओबीसी के बड़े नेता के सरकार में आने पर रोड़, नाला का टेंडर ले सकें। अपने नाम से एकाध पेट्रोल पम्प करवा सकें। कुछ नहीं तो लेटर पैड पर लिखवाकर कॉन्वेंट में नाम लिखवा सकें और बता रहे हैं कि हम नेता हैं। तथाकथित ओबीसी के प्रभावी नेता कहलाने के लिए परेशान हो रहे भाई भी जोश में आ गए और कहने लगे- तुम सब स्साले नमकहराम हो, हमरे जगह तुमलोगों को होना चाहिए था जो मुकर जाने में एक मिनट का भी समय नहीं लगाते हो। यहां पर कोई भी ऐसा आदमी नहीं है जिसके लिए हम पॉलिटिक्स के प्रभाव से काम नहीं आए हैं। किसी को कोई एतराज हो तो बताए। सबसे पहले एतराज तो हमें ही हो गया और बड़ी जोर से चिल्लाने का मन किया लेकिन दो बज रहे थे, मुझे बहुत नींद आ रही थी सो धीमे से कहा- मेरे लिए क्या किया आपने सर, जरा बताएं तो। थोड़े सकपकाए और कहा, चलो एक को छोड़ दिया, इसको तो ठीक से जानते भी नहीं है। लेकिन इसने हमें कभी कुछ करने को भी तो नहीं कहा। इसकी बात छोड़कर और कोई क्लेम करे तो सही। बस फिर क्या था, सब टूट पड़े- पहला शब्द अपनी-अपनी रुचि से गाली का इस्तेमाल करते हुए कि बता क्या किए हो मेरे लिए और तथाकथित ओबीसी के नेता एक-एक करके बताने लगे-

कुल छ लोग थे, मुझे छोड़कर। पहले वाले के बारे में कहा कि तुम एकबार फंस गए थे, एम्स में और हमको फोन किए थे। तुमको डॉक्टर का नं ही नहीं मिल रहा था, बोलो हम डॉक्टर सहित कम पैसा में काम करवा दिए थे कि नहीं। भाई ने कहा-हां करवाए थे।

दूसरे भाई साहब को एहसास कराते हुए कहा कि- एक बार पटेल चेस्ट में मारपीट कर लिए थे। मामला थाना-पुलिस तक चली गई थी, हम लग भीड़कर सेटस कराए थे कि नहीं। दूसरे बंदे ने कहा- हां करवाए थे।

तीसरे की तरफ बढे और कहा- पिछली बार तुमरे पास कोचिंग लायक पैसा नहीं था और तुम एक चांस मिस नहीं करना चाह रहे थे। तुम चाह रहे थे कि न हो तो कोचिंग का ही नोट्स मिल जाए तुमको। काहे कि वही सबकुछ क्लास में भी बताता है लेकिन जो लड़का कोचिंग कर रहा था वो इस बात के लिए तैयार ही नहीं था। ऐसे में हम प्रेशर बनाकर तुमरा काम करवाए थे कि नहीं। तीसरे ने सिर हिलाते हुए हुए कहा कि - हां नोट्स तुम दिलवा दिए थे।

चौथे की तरफ हिकारत भरी नजर से देखते हुए कहा कि- हमको पता था कि तुम इधर काम हुआ और उधर बिसर जाओगे, तुमरे साथ मिट्टी का असर है। हमको पहले ही सब बोलता था कि इई ऐसा समाज से आता है जहां के बारे में कहा जाता है कि पहले गेहुंवन सांप मिले और इलोग तो सांप को छोड़कर इसको मारो लेकिन हम फिर भी मदद कर दिए कि चलो अपना ही सब्जेक्ट का है और आज हमें ही चैलेंज कर रहा है। जब चित्रा साफे मना कर दी थी कि कुछ नहीं हो सकता- हमारे-तुम्हारे बीच, हमलोग के बीच ऐसा कुछ है भी नहीं और डूसू ऑफिस के सामने दुत्कार के भगाई थी और तुम कंधा खोजते फिरते थे तो कौन गया था उसके सामने। रस्ता रोककर साफ कह दिया था कि देख लो हमरा भाई अगर तुमरे बिन कलपता है तो तुम भी डीयू में चैन से एमए नहीं कर पाओगी। भूस गए, चाय-कॉफी तक मामला सेट कर के आए थे।

पांचवे की तरफ बिना नजर मिलाए बोलने लगा- हद बेशर्म आदमी हो तुम भी जी। कर-धरके गिनानने का मन नहीं करता है। तुमरे मां-बाबूजी को अपना चच्चा-चाची बोलकर हॉस्टल के गेस्ट हाउस में सात दिनों तक रुकवाए, सेवा सत्कार किए, भतीजा से कम नहीं किए और आज तुमही हमसे हिसाब मांग रहा है।

सब आदमी का मुंह लटक गया था। इसलिए नहीं कि उनके पास जबाब देने के लिए कुछ बचा नहीं था, बल्कि एस अकेले नेता ने सबको नगा कर दिया था। आज जो सब ब्रांडेड जींस-पैंट बैठकर फटेहाल नेता के सामने चौड़ा हुए जा रहे थे, देखते ही देखते सब फुस्स हो गए। मन इस बात को लेकर कचोट रहा था कि अब इसको सही में नेता मानना पड़ जाएगा और दूसरी बात ये कि किसी को भी नहीं लगता था कि इसे सारे एहसान जो कि हम पर किए अभी तक याद है।

लेकिन नेता छठे की तरफ देखकर कुछ बोलता इसके पहले ही वो जो कि हमसे दो क्लास पीछे है पहले ही महौल बनाने में जुट गया। पहली ही लान में कहा- आप बहुत बोल लि अब हमको बोलने दीजिए-

हमको पता है आप भी हमें एम्स का हवाला देंगे तो सुनिए- ये सही बात है कि मैंने आपको मदद के लिए फोन किया था लेकिन आपने कहा कि पाता करके बताते हैं। फिर कुछ देर बाद आपने कहा कि फोन ही नहीं मिल रहा है। तब हमने आपको कहा कि रहने दीजिए हम देखते हैं। और आप और नेता, फोटो कॉपी, चाय और फोन के नाम पर सौ-दौ सो कितनी बार मांग चुके हैं आपको ये बात तो याद नहीं रही। हम आपकी तरह नहीं हैं कि याद रखते। हमको पता ही नहीं था कि मदद के नाम पर आप आपसे में ही नेतागिरी कर रहे हैं।

आप तो हद गिरे हुए आदमी निकले। आप जितना कुछ गिना दिए, एकबार फिर से सोचिए कि दोस्ती यारी में इतना कौन किसके लिए नहीं करता। आपने ने जो कुछ भी किया उतनी तो जान-पहचान सबको होती है, मौके-मौके की बात है। गांव-देश से कोई दूर रहता है इसका मतलब ये नहीं है कि कोई अनाथ होकर जीता है। आपके यहां का तो पानी पीने का भी मन नहीं करेगा। कल को कहेंगे, तुमको तो दिल्ली में साफ पानी भी मय्यसर नहीं था, हम पहली बार पिलाए थे, हद हैं महाराज आप भी। ....और हनुमानजी को लेकर चौड़ा हो रहे हैं। अगर हनुमानजी ओबीसी थे भी तो कभी सोचे कि फारवर्ड ने उन्हें हमेशा लंगोट पहनाकर रखा। यहां तक तो आप सोच नहीं पाए, आप सोच भी नहीं सकते, चले हैं नेतागिरी करने।...

इतना सुनना था कि पांचों बंदे की बांछें खिल गई, पहली बार उन्हें जूनियर की योग्यता पर भरोसा हुआ। इधर नेताजी का चेहरा स्याह हो गया था। फोटो कॉपी के नाम पर पैसे लेनेवाली बात उनके मन को लग गई थी। लेकिन पांचों का मिजाज बन आया था और सबकुछ छोड़कर विमर्श का मुद्दा निकल आया कि चार बजे सुबह में कोक कहां मिलेगी....गला बहुत सूख रहा है।

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2 Response to 'ओबीसी आरक्षण बनाम दोस्ती-यारी की कॉकटेल'
  1. अतुल
    http://test749348.blogspot.com/2008/04/blog-post_15.html?showComment=1208275680000#c187481985688540064'> 15 April 2008 at 09:08

    तभी तो बेचारे सब दिन उत्तर प्रदेश के एक सामंती राजा का बेगार करते रह गये.

     

  2. Neeraj Rohilla
    http://test749348.blogspot.com/2008/04/blog-post_15.html?showComment=1208276220000#c7629500276264717179'> 15 April 2008 at 09:17

    बहुत गजब भईया,
    कोक के साथ आम्लेट भुजिया भी हमारे नाम से खा लो । बहुत रातें काली-सफ़ेद की हैं इन बातों पर ।

     

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