कल तक आपने पढ़ा कि हिन्दी मीडिया में काम करने के लिए आपकी अंग्रेजी दुरुस्त हो। टाइम और गार्जियन की खबरों के प्रति समझ बनाने के लिए नहीं बल्कि अंग्रेजी से हिन्दी में ऐसा अनुवाद करने के लिए कि लगे आप खुद गए थे, अंडमान में स्टोरी कवर करने के लिए, अब आगे पढ़िए-
मुगलसराय एक ऐसी जगह है जहां से आपको कहीं की भी बस, ट्रेन पकड़नी हो, जर्नी ब्रेकअप करनी हो, तफरी के लिए बनारस जाना हो या फिर थकान मिटाने के लिए यहां सुस्ताना हो...इन सब कामों के लिए भारतीय रेल के पास इससे बेहतर कोई स्टेशन नहीं है। यहां इस बात से कोई मतलब नहीं है कि आपने पहले से टिकट लिया है या नहीं, रिजर्वेशन कराया है या नहीं। यहां सबकुछ आपके मूड पर डिपेंड करता है। गाड़ी में बैठ जाओ, समय के साथ सब मैनेज हो जाएगा। क्या हिन्दी मीडिया के साथ भी कुछ ऐसा ही है।
कोई सा भी कोर्स करो, कभी भी मन करे, कोई भी बैग्ग्राउंड है यहां आप आ सकते हो। ये तो अब हो गया है कि कहीं से आपको मीडिया में सालभर का डिप्लोमा या ऐसे ही किसी कोर्स कोर्स का सर्टिफिकेट आपके पास होनी चाहिए। और इसके लिए दुनिया भर के संस्थान पहले से तैयार बैठे हैं।...अजी इंस्टीच्यूट तो ऐसे भरे पड़े हैं जो परीक्षा के समय दरवाजा सटा देंगे और कहेंगे लिखो...मगर हल्ला मत करो और जब लगेगा कि वो गलत करवा रहें हैं तो आपसे साफ कहेंगे, भाई मीडिया में परिक्षा कोई बड़ी चीज नहीं है, असल चीज तो है कि आप चैनल या अखबारों में जाकर कैसा परफार्म करते हो, आपकी स्क्रिप्ट कैसी है, ये अलग बात है कि सालभर के कोर्स में आपसे एक दिन भी स्क्रिप्ट पर काम नहीं करवाया जाएगा। कईयों के तो मामू या चाचू पहले से ही मीडिया में जड़ जमाए हुए हैं और उन्हें गेट पास के रुप में एक डिग्री चाहिए बस। दो-तीन बंदों को पता चला कि मैं झारखंड से हूं तो सीधे मेरे पास आए और कहा कि- सुना है झारखंड में दस हजार रुपये में सर्टिफिकेट मिल जाता है, आप कुछ कीजिए। कोर्स तो आप भी कर ही रहे हैं, वैसा कुछ जुगाड़ बन गया तो आपको भी कहीं न कहीं सेट करा देंगे।....उपरी स्तर पर वो कुछ कोशिश करते भी नजर आएंगे। एकाध बार मामू से मिलवाया भी। हिन्दी मीडिया में काम करनेवालों की अकड़ का एक और नमूना देखिए- मिलते ही आपसे पूछेंगे कि तुम्हारी अंग्रेजी कैसी है, काम कर लोगे अंग्रेजी में। साहब जिस समय बंदा मीडिया का कोर्स कर रहा होता है अगर उसे पता चल जाए कि फलां काम सीखने से नौकरी मिल जाएगी तो अंग्रेजी क्या फ्रेंच भी सीख लेगा। मामू को पता है कि हिन्दी से एमए है, बैग्ग्राउंड सेंट बोरिस का ही रहा होगा। गरीब राज्य के बच्चे बचपन में जूट या बोरी बिछाकर पढ़ते हैं, दिल्ली में आकर उनकी इज्जत बनी रहे इसलिए मैं सेंट बोरिस लिखता हूं। सो कहेंगे कि दि टाइम्स में एक पोस्ट तो है जो रिक्र्यूटमेंट देखती है, मेरी क्लासमेट भी है। अगर अंग्रेजी बहुत अच्छी है तो आगे बात करते हैं। आप स्वाभाविक तौर पर पिछड़ जाएंगे। लेकिन मैं तो यहां भी जड़ जमाने के चक्कर में रहता। सीधे कहता-मामू आप बात कीजिए, बाकी हम सब देख लेंगे। बाद में मामू खबर भिजवाते कि बोलने का थोड़ा ठीक-ठीक अभ्यास करे, पता नहीं कब इंटरव्यू के लिए निकलना पड़े। उन्हें ये भी पता होता कि अपने तरफ का है तो जरुर घोड़ा को घोरा और श को स बोलता होगा।...साइड से लड़के को समझा देते, थोड़ी दूरी ही बनाए रखना इससे। है तो झारखंड से लेकिन दो साल से डीयू में है, पॉलिटिक्स में माहिर होगा। अपने तो सेट हो जाएगा और तुम बिना सर्टिफिकेट के लटक जाओगे। इधर जब मैं मामाडी की कुंडली पता करता तो इग्नू से बीए हैं, सिविल में जाना चाहते थे लेकिन भ्रष्टाचार के मारे गए ही नहीं, कुछ हटकर करना चाहते थे।
मीडिया में हर कोई आता भी इसलिए ही है कि वो कुछ हटकर करना चाहता है। क्योंकि दुनिया में कुछ भी हटकर करने की गुंजाइश मीडिया में ही है। जो बंदा सुबह-शाम ध्वज लगा रहा है, उतार रहा है वो भी और जो बंदा मुट्ठी भर तान देने से क्रांति आ जाने के सपने देखता है वो भी। एक ध्वज लगाते-लगाते बोर हो गया है तो दूसरा मुट्ठी तानते-तानते। सालभर हो गए, कहीं कुछ भी तो नहीं बदला, चलो मीडिया में ही कुछ किया जाए। कुछ नहीं तो समाज को देखने-समझने का अनुभव तो उनके पास है ही और मीडिया में काम करने के लिए इतना क्या कुछ कम है। उनसे तो बेहतर ही हैं जो भैंस बांधकर बगल में एसएससी या बैंकिग की तैयारी करने बैठे हैं।....अब उनको कौन बताए कि अपार्टमेंट के पांचवें तल्ले पर रात के तीन-तीन बजे तक लाइट जलती है वो भी मीडिया में आना चाहते हैं और व्यूजी कॉन्टेस्ट जीत चुकी पड़ोस की नीदिमा भी हमें फाइट देगी, सीधे एंकर बनेगी।
जो बंदा दो-तीन बार यूपीएसी में बैठ चुका है। पीटी निकाल चुका है लेकिन मेन्स में अटक जाता है वो भी हिन्दी मीडिया में जाने का मन बना चुका है। उसके दिमाग में बस बात बैठ गई है कि सब चुतियापा है, सिविल में कुछ भी नहीं रखा है। आइएस बन भी जाओगे तो क्या कर लोगे। ऑपरेशन पर गए हो और लौटे तो पता चला कि पत्नी गायब। इधर से फोन पर २० लाख की डिमांड हो रही है। अपने मन का कुछ कर नहीं सकते। मीडिया में आदमी कम से कम अपने मन का लिख-पढ़ तो सकता है।...और कौन कर लेगा किडनैप।
इधर तीन साल तक यूनिवर्सिटी में झोला ढोनेवाला हमारा रिसर्चर मीडिया में आने के लिए बेताब हुआ जा रहा है। पीएचडी होने को है लेकिन गाइड उससे पहले ही रिटायर हो गए। उनका जो कुछ भी बना-बनाया था सब खत्म हो गया। अब कोई नौकरी क्यों देगा। बेचारे ने कोशिश तो बहुत की लेकिन कुछ नहीं हो सका। अच्छा ही है, मीडिया में रहूंगा तो कम से कम अपडेट रहूंगा। वैसे भी सूर-कबीर पढ़ते और गेस्ट लेक्चरर बनकर पढ़ाते-पढ़ाते पक गया हूं। मेरी मां के शब्दों में इतना पढ़कर पढाएगा और कोई दूसरी नौकरी नहीं मिलेगी। जेनरेशन भी सुधरेगा, बच्चों को भी सोसाइटी में बताने में अच्छा लगेगा- माई डैड इज जर्नलिस्ट।
इसी तरह मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, रेलवे में अजमाकर हताश हुए लोगों की एक लम्बी फौज हिन्दी मीडिया में अपनी हैसियत बनाने आते हैं। सब पीछे की जिंदगी, करियर से उबे हुए, थके हुए, निराश और परेशान। लेकिन मीडिया को लेकर उत्साहित। मीडिया उनके लिए विरेचन का काम करता है। क्योंकि यहां क्या नहीं है, पैसा, पावर, स्टेटस, लाइफ और कुछ हटकर करने का मौका।
ये वो खेप होते हैं जो कुछ नहीं बन पाए तो हिन्दी मीडिया में आ गए। इनकी आस्था एक बार टूट चुकी है सही तैयारी करके, रगड़कर पढ़कर और लाल बत्ती औऱ कोलगेट के विज्ञापन में आने सपने देखकर। अब वो उतना ही कर पाएंगे जितने से वो पत्रकार होने की सैलरी पाते हैं। न तो चैनलों में कुछ एडवेंचरस करने के स्पेस हैं और न ही उनमें कुछ करने का ज़ज्बा। जो चल रहा है, जैसे चल रहा चलने दो।
चैनलों का ध्यान इस थकेली खेप पर चली जाती है। इसलिए वो हमेशा फ्रेश का डिमांड करती है। कभी-कभी ग्रेजुएशन कर रहे बच्चों को ही सीधे बिना कोर्स के रख लेती है। लेकिन तीन-चार महीने बाद या तो वो खुद छोड़ देते हैं या फिर चैनल खुद ही जबाब दे देते हैं कि आप चल नहीं पाएंगे। ऐसा इसलिए होता है कि चैनल फ्रेश का मतलब उम्र या क्लास से लगा लेती है जबकि ग्रेजुएशन के बच्चे भी साल, दो साल, तीन साल मेडिकल या इंजीनियरिंग में झक मारकर ग्रेजुएशन करने आते हैं और बाद में यहां भी कुछ कर नहीं पाते तो मीडिया में।...
इसलिए सीधे-सीधे ये मान लेना कि मीडिया में आकर लोग बोर हो जाते हैं गलत होगा। सच्चाई तो ये है कि मीडिया डितनी उदारता से सारे लोगों को बिना बैग्ग्राउंड की तफसील में गए ले लेता है, उतनी शिद्दत से उनके इन्टरेस्ट को बनाए रख नहीं पाता और लोग हाय,हाय करते हैं, डिप्रेशन में जाते हैं। तब उन्हें लगता है कि जो सोचकर मीडिया में आए थे वैसा कुछ भी नहीं हैं और इतिहास उन्हें बार-बार कोडे मारता है कि-तुम वहीं ठीक थे।
दलील- जो लोग हिन्दी मीडिया में पैशन के तौर पर काम कर रहे हैं, उन्हें सलाम। उनकी तरक्की होती रहे, देश का बच्चा-बच्चा उन्हें जाने और मन में उत्साह बना रहे कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, इससे समाज पहले से बेहतर बन रहा है। उनपर मेरी पोस्ट का एक भी शब्द लागू नहीं होता।...दोस्त की शुभकामनाएं साथ है।
हिन्दी के मसले को साहित्य की दुनिया में भी देखेंगे, अभी कुछ आगे तक हिन्दी मीडिया को ही जाने दें।
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8 Response to 'हिन्दी मीडिया मुगलसराय जंक्शन है ?'
  1. बिक्रम प्रताप सिंह
    http://test749348.blogspot.com/2008/03/blog-post.html?showComment=1206599640000#c2030961830732891229'> 26 March 2008 at 23:34

    आपकी बातें किसी और पर हो न हो मुझपर शत प्रतिशत लागू होती है. पूरी दुनिया मे भटकने के बाद हिन्दी मीडिया के शरण में आ गया.

     

  2. PD
    http://test749348.blogspot.com/2008/03/blog-post.html?showComment=1206600780000#c2951357096279184474'> 26 March 2008 at 23:53

    अजी हम आई टी वाले भी यही कहते हैं.. कुछ ना पढ पाये तो कम्प्यूटर की पढाई कर लो, और कुछ ना कर पाओ तो कम्प्यूटर की नौकरी कर लो.. :)

     

  3. Suresh Chiplunkar
    http://test749348.blogspot.com/2008/03/blog-post.html?showComment=1206602340000#c6002563908265781166'> 27 March 2008 at 00:19

    हमारे यहाँ भी कहावत है कि यदि दस लोग हैं तो उसमें से 5 पत्रकार होंगे और 4 पहलवान, बाकी का एक आदमी "आम", जिसे चूसा जाना है… गुंडे बदमाश, वकील सब पत्रकार बने बैठे हैं, और आये दिन पुलिस द्वारा जुतियाये जा रहे हैं, बड़ा ही मनोहारी दृश्य है भाई, आपने भी एकदम सच बयान किया है… बधाई

     

  4. Sanjeet Tripathi
    http://test749348.blogspot.com/2008/03/blog-post.html?showComment=1206603360000#c3118008766890386128'> 27 March 2008 at 00:36

    पहली बार जनसत्ता के द्वारे पहुंचा था तब भी मुझसे यही पूछा गया था कि अंग्रेजी कैसी है, अपन ने कहा काम चल जाता है बस।
    फ़िर जब नवभारत में आवेदन दिया तो वहां तो बाकायदा पहले हमसे पांच पन्ने अनुवाद करवाए गए तब नौकरी मिली क्योंकि डेजीग्नेशन ही ऐसा था असिस्टेंट सब एडीटर फीचर!! :)

     

  5. vikas pandey
    http://test749348.blogspot.com/2008/03/blog-post.html?showComment=1206607680000#c242180762691671580'> 27 March 2008 at 01:48

    विनीत जी, आपकी पिछली पोस्ट में मैने एक सवाल पूछा था. मुझे जवाब मिल गया कि क्यो इतनी भीड़ लगी रहती है हिन्दी मीडिया के दरवाज़े पर.
    जहाँ तक मेरा अनुभव अँग्रेज़ी के अख़बारो के साथ है वहाँ चाचा मामा के सोर्स कम चलते है. एक बात और ये पत्रकारिता सीखने वाले संस्थान जो कि उत्तर भारत मे गली गली खुले हुए है इन्ह बंद कराने का कोई उपाय है क्या? कोई तो रेग्युलेशन अथॉरिटी होनी चाहिए. इस मामले मे भी मैं कहूँगा कि अँग्रेज़ी के संस्थान काफ़ी बेहतर है और वाहा के छात्रों को दर दर भटकना नही पड़ता.पत्रकारिता में आने वाले अँग्रेज़ी और हिन्दी के नये छात्रों में भी काफ़ी अंतर होता है. मेघा के मामले मे तो नही कह सकता पर कुछ तो है जो अँग्रेज़ी वाले आसानी से मोटी रकम वाली नौकरी पा जाते हैं. क्यूँ? ये तो मैं नही कह सकता, आप कुछ प्रकाश डालें.

     

  6. राकेश
    http://test749348.blogspot.com/2008/03/blog-post.html?showComment=1206614220000#c8660129840342865159'> 27 March 2008 at 03:37

    बढिया कहा. अपनी मुफलिसी के दिनों में मैंने जब अखबारों में लिखना शुरू किया था, लिखना नहीं छपना शुरू हुआ था तब मुझे भी पत्रकार ही कहने लगे थे यार दोस्त. वैसे एक बात और बताउं कि जब अपने काम को समझा नहीं पाता लोगों को तो खुद को पत्रकार भी बता देता हूं कभी कभी.

    पर भैया क्या केवल हिंदी मीडिया ही मुगलसराय जंक्शन है?

     

  7. sudhakar
    http://test749348.blogspot.com/2008/03/blog-post.html?showComment=1206630720000#c8196537373590061525'> 27 March 2008 at 08:12

    kya hindi media garib ki joru hai?

     

  8. आशीष कुमार 'अंशु'
    http://test749348.blogspot.com/2008/03/blog-post.html?showComment=1206959160000#c4742901911991971448'> 31 March 2008 at 03:26

    BHAI SAHAB AAPAKEE CHOTI SEE KHOPADIYAA ME ITANEE BAAT AATI KAHAA SE HAI.

    MANTRAMUGDH KAR DIYAA PRABHU AAPANE.

     

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