कल वाणी प्रकाशन से प्रकाशित रणेन्द्रजी द्वारा संपादित किताब इन्साइक्लोपीडिया ऑफ झारखंड का लोकार्पण होना था। रणेन्द्रजी के साथ-साथ आसपास के लोग भी उत्साह में थे और इंतजार कर रहे थे कि नामवर सिंह आएं और किताब का लोकार्पण हो। मैं और मेरे एक-दो दोस्त स्टॉल पर पोस्टर लगाने में मदद कर रहे थे कि तभी दो लोग उधर से गुजरे और पोस्टर की सिर्फ पहली लाइन पढ़कर बोले- ये झारखंड-फारखंड के लोग वर्ल्ड बुक फेयर में कहां से। मतलब कि ये क्या करने आ गए। रणेन्द्रजी ने सुना और लोगों को बताया कि देखिए ये लोग क्या बोल कर गए। हमलोग भी थोड़े असहज हो गए। उन्हें बात लग गई कि कोई ऐसे कैसे बोल सकता है, वो भी सड़क पर नहीं विश्व पुस्तक मेले में, प्रगति मैंदान में और अपने को रोक नहीं पाए। इसलिए प्रकाशक अरुण माहेश्वरी ने जब उन्हें किताब और रचना प्रक्रिया के बारे में बोलने के लिए कहा तो सारी बातें बोलते हुए कि झारखंड के बिहार से अलग होने के बाद उसकी अपनी अलग पहचान बनी लेकिन इस पहचान को सामने लाने के लिए कोई मुकम्मल काम नहीं हुए, चार खंडों में झारखंड का ये इन्साइक्लोपीडिया लोगों को झारखंड के बदले परिदृश्य को समझने में मददगार होगें, साथ ही ये भी कह दिया कि अभी कुछ लोगों ने पोस्टर देखकर कहा कि वर्ल्ड बुक फेयर में झारखंड-फारखंड के लोग कैसे चले आते हैं। हम अपने को पहले देश का नागरिक मानते हैं लेकिन जहां से हम आते हैं वहां के बारे में कोई इस तरह के विचार रखे और प्रतिक्रिया देते हों तो बात दिल में लगनेवाली तो है ही।
दिल्ली में मैं देखता हूं कि एक बिहारी की पहचान कुली-कबाडी, रिक्शा चलानेवाले और मजदूरी करने वाले की और बिहार की इमेज एक भ्रष्ट राज्य के रुप है। इस पहचान के निशान लोगों के दिमाग में इतने गहरे हैं कि बाकी के पहचान पनप ही नहीं पाते, कई अच्छी चीजें सामने आ ही नहीं पाती, लोग उसकी नोटिस ही नहीं लेते। जहां भी गंदा या गंदगी है उसे बिहार और बिहारी का नाम दे देते हैं। ऐसा लिखकर बिहार की बाकी गंदगियों को, बुराइयों को नजरअंदाज नहीं कर रहा बल्कि मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं कि जब भी हम दिल्ली के बारे में बात करते हैं तो ग्रेटर कैलाश, संसद, मेट्रो और चौबीसों घंटे बिजली ही दिमाग में क्यों आते हैं, सीलमपुर की गंदगी और भजनपुरा का नरक ध्यान में क्यों नहीं आता। क्या ऐसा नहीं है कि हम दिल्ली के बाहर इन राज्यों को लेकर कुछ ज्यादा ही निगेटिव एप्रोच रखते हैं।
ऐसी ही मानसिकता झारखंड को लेकर भी है। झारखंड माने दिल्ली के लोगों( सब नहीं लेकिन अधिकांश) में है कि ये जंगली इलाका है, यहां के लोग असभ्य होते हैं और इनकी लाइफ स्टाइल पाषाण युग की होती है।
मुझे कॉलेज के दिनों की याद आ गयी। मैं नया-नया दिल्ली में आया था, हिन्दू कॉलेज में एम.ए
करने। डर से क्लास शुरु होने के पांच दिनों तक गया ही नहीं। मामला थोड़ा ठंड़ा पड़ गया तो पहुंचा। लोगों ने मुझे घोर आश्चर्य से देखा और एक लड़की ने कहा- अरे ये तो जैसे टीवी में झारखंड के लोगों को दिखाते हैं वैसा नहीं है, इसका रंग तो साफ है, वहां के लोग तो काले होते हैं और देखो ये जींस पहनकर आया है। उनके लिए मैं अजूबा था। फिर बारी-बारी से लोग मेरी शर्ट का कॉलर उलटकर देखने लगे और कहा-झारखंड में एरो की शर्ट मिलती है। एक लड़के ने टोका- अरे तुम भी ली-कूपर के जूते पहनते हो। उन्हें इस बात पर बड़ी हैरानी हो रही थी कि ये वो सबकुछ वैसा ही पहना है जैसा कि हम दिल्ली में रहकर पहनते हैं। यहां जोड़ दूं कि मेरे साथ ऐसा करनेवाले सिर्फ दिल्ली के ही लोग नहीं थे, कई लोग नए-नए देहलाइट हुए थे।
आज रणेन्द्रजी की किताब की पोस्टर देखकर लोगों ने जिस तरह से रिएक्ट किया, मेरे दिमाग में ठनका कि लोगों की ये सोच कहीं योजना, कुरुक्षेत्र या फिर दूसरी झारखंड विशेषांक पत्रिकाओं को देखकर तो नहीं बनी जिसमें ज्यादातर तस्वीरें लड़की के सिर पर बोझा ढ़ोते हुए या बहुत हुआ तो मांदल बजाते हुए छपते हैं। या फिर ऐसा वहां की गरीबी के कारण हुआ है, वहां की संस्कृति का देश की मुख्यधारा में शामिल नहीं होने के कारण हुआ है, किसी भी फिल्म में वहां की सम्पन्नता को न दिखाए जाने के कारण हुआ है या फिर वाकई इसके लिए वहां के लोग ही जिम्मेवार हैं।
फिलहाल तो दो ही बातें लगती हैं कि संभव है रणेन्द्रजी के इस प्रयास से लोगों का नजरिया कुछ बदले और दूसरा कि आनेवाले समय में इंडस्ट्री और रीयल स्टेट के टेंडर के पेपर भरने जब लोग झारखंड जाएं तो कुछ अलग तरीके से सोच पाएं। बाकी अपनी तरफ से कोशिशें तो जारी है ही।....
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http://test749348.blogspot.com/2008/02/blog-post_04.html?showComment=1202117760000#c8545923344080984327'> 4 February 2008 at 01:36
विनीत जी कभी कभी मुझे देश की अधिंकाश जनता पर रोना आता है लेकिन इसके बावजूद मुझे उम्मीद है कि एक न दिन लोगों को समझ आएगी और वो अपनी अक्ल का सही इस्तेमाल कर पाएंगे
http://test749348.blogspot.com/2008/02/blog-post_04.html?showComment=1202120220000#c7751239981550645054'> 4 February 2008 at 02:17
ये शायद वैसे ही है जैसे दिल्ली वालों को लगता है कि पूरा भारत दिल्ली ही में बसता है और उससे बाहर रहने वाले गंवार और जंगली है। जैसे अमरीका वाले समझते हैं कि भारत में रहने वाला हर शख्स सपेरा, गरीब, अनपढ़ और असभ्य होता है। लेकिन मुझे ऐसे हर दिल्ली वाले और दुनिया वालों पर तरस आता है।
लेकिन इसके बावजूद एक और सोचने जैसी बात ये है कि बाहर जाकर हमारी छवि ऐसी क्यों बन जाती है भारती की दुनिया में और बिहार- झारखंड की दिल्ली में।
http://test749348.blogspot.com/2008/02/blog-post_04.html?showComment=1202122500000#c8096875152199409722'> 4 February 2008 at 02:55
हर इलाके की एक छवि होती है और अफ़सोस है कि झारखंड की ऐसी है, पर वास्तविकता की ही परछाई ही तो है।
http://test749348.blogspot.com/2008/02/blog-post_04.html?showComment=1202122860000#c2909669031530760802'> 4 February 2008 at 03:01
झारखंड-फारखंड के लोग कहां से आ गया। ऐसे कहने वाले लोग देश के गद्दार से कम नहीं होते। हो सकता है उन्हें झारखंड के बारे में पता ही नहीं कि झारखंड देश का ऱुर है। सारे महत्वपूर्ण खनिज पदार्थ यहां पाये जाते हैं। टाटा और बोकरो जैसे विश्व स्तरीय स्टील प्लांट हैं। आईएसएम जैसे विश्व स्तरीय इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। ये सब उदाहरण मात्र हैं। ये सब देश के गद्दारों को नही दिखता। वहां की एक संस्कृति है सभ्यता है। वहां के लोग यदि रेवन्यू देना बंद कर दे तो झारखंड फारखंड कहने वाले के परिवार के लोग जो कम कपड़े पहन कर अपने आप को आधुनिक ससझते हैं औकात में आ जायेंगे। सबसे अधिक आईएएस और आईपीएस बिहार से हीं आते हैं।
http://test749348.blogspot.com/2008/02/blog-post_04.html?showComment=1202125560000#c9146860293944442511'> 4 February 2008 at 03:46
ये इन्सानी मनोवृति है कि वो एक काल्पनिक छवि बना कर चलता है। राजस्थान का नाम सुन कर लगता है जैसे रेगिस्तान में पहुंच गये ।अब इसका तो कोई क्या कर सकता है।
http://test749348.blogspot.com/2008/02/blog-post_04.html?showComment=1202141580000#c7131243140344899535'> 4 February 2008 at 08:13
कुछ तो लोग कहेंगे
लोगों का काम है कहना
इसलिए टेंशन लेने का नहीं
अपन की तरह ग्लोबल सोचिए
http://test749348.blogspot.com/2008/02/blog-post_04.html?showComment=1211622120000#c8556103554024458156'> 24 May 2008 at 02:42
चिंता न करें हम जैसे लोग ही यह छवि बदलेंगे