जिनकी पैदाइश दिल्ली में नही हुई जो देहलाइट नहीं है, पढाई या फिर नौकरी बजाने दिल्ली आ पहुंचे हैं, उनके कंधे पर हमेशा दो गठरी होती है. एक गठरी जहां से बंदा आया है वहां की और एक दिल्ली की। जब वो दिल्ली में होता है तब अपने डगमगपुर या मिर्जापुर की गठरी खोलता है और बात-बात में दिल्ली के लोगों को बताता है कि- अजी यहां क्या मिलेगा, खजूर की ताडी पीनी हो तो कभी मिर्जापुर की ताड़ी का टेस्ट लीजिए, दिल्ली में कहां मयस्सर होगा। और मूंगफली कभी देखी है, डगमगपुर की मूंगफली- य... बड़े-बड़े दाने, दिल्ली में कहां नसीब होगा जी। और जब बंदा अपने गांव जाता है तो दिल्ली की गठरी खुलती है- अरे भाई साहब दिल्ली की बात ही कुछ और है। चौबीसो घंटे पानी, बिजली। अगर आप यूनिवर्सिटी एरिया में है तब तो समझिए मौज है, वहां तो जी लोग रात में ही घूमते हैं, लड़कियां भी साथ में घूमती है। यहां के जैसा नहीं की सांझ के 6 बजे से ही भूत लोटने लगे।
ये बात मैंने इसलिए छेड़ी है क्योंकि कल रात जेएनयू में था। मेरे कई दोस्त बतौर लेक्चरर झारखंड जा रहे हैं। वे राज्य के अलग-अलग हिस्सों में साहित्य का विस्तार करेंगे। किसी की पलामू पोस्टिंग हुई है, किसी की लोहरदग्गा और किसी की तोरपा में। उन्हें पता है वहां भी सांझ के 6 बजे से ही भूत लोटने लगेंगे। लेकिन नौकरी की मारामारी में दिल्ली के बूते सरकारी नौकरी कैसे छोड़ दे। इसलिए अभी से ही दिल्ली की खराबी और कस्बाई जीवन की अच्छाइयों को गिनाना शुरु कर दिया। एक ने कहा दिल्ली में मां-बहन सेफ नहीं है। एक का कहना था आए दिन रोड़ एक्सिडेंट। एक भावुक साथी ने कहा, यार यहां के लोग हमारी फीलिंग्स को समझते ही नहीं है। अच्छा है लोहरद्ग्गा में कम से कम लोग सही ढंग से इज्जत तो देंगे। दो-तीन लड़को को ठोक-पीटकर नेट निकलवा दिया तो इलाके में अपना नाम बज जाएगा। बीएचयू वाले भाई साहब का साफ मानना था कि अगर दिल्ली में आपका अफेयर नहीं है तो ऐसा कुछ नहीं है कि जिसके लिए यहां लगी नौकरी छोड़ी जाए। मेरे बचपन का साथी राहुल तो एकदम से समझिए संन्यास ही ले लिया। बहुत हो गया भाई, एक्डी मैक्डी । अब तो बस कायदे से साहित्य-सेवा करनी है। चार बज गए, रात भर बातचीत होती रही। थोड़ी देर पहले सबको विदा करके आया हूं। ट्रेन खुलते ही सबने चिल्लाया- अरे दोस्त, अब तुम्हारी दिल्ली, तुम ही संवारो औऱ हां शीलाजी को कहना राजधानी में चौकसी बढ़ाए, बहुत लीला- कीर्तन होता रहता है।
बाय.....
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http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_19.html?showComment=1200720120000#c4191122690693323071'> 18 January 2008 at 21:22
तुम्हारी दिल्ली तो है न यह !!
http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_19.html?showComment=1200725040000#c3066946033362862122'> 18 January 2008 at 22:44
सही ही तो है...
दूर के ढोल सुहाने ही होते हैँ...
बेशक दूर से ही सही
वैसे भी "नाच ना आए तो आँगन टेढा कहना ही बेहतर माना जाता रहा है
कौन सी नई बात है...
http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_19.html?showComment=1200728400000#c3205307980649604612'> 18 January 2008 at 23:40
सही!!
देखो भाया ये अभी तक तो आपकी दिल्ली है और इंशाअल्ला हमें तो लग रहा है कि आप दिल्ली के हो कर ही रहोगे और दिल्ली आपकी, ये अलग बात है कि दिल्ली बेदिल वालों की!!
http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_19.html?showComment=1200729000000#c7083609826125204820'> 18 January 2008 at 23:50
waise meri pedaish delhi ke nahi , fir delhi mein pali-badi aur delhi ney mujhey apne pechaan de....mera to bhai delhi ko salam
http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_19.html?showComment=1201097400000#c4397124991149927868'> 23 January 2008 at 06:10
bhaiya jaha bhi aap apni identity ko develop karte hain waha ka kuch karz to aapke sir aata hai aur ab bhale hi delhi ke (so called)purane ya yun kahein ki delhi wale bhale hi wo chahe abhi jumma jumma desh kim azadi ke saath hi delhi waale hue ho magar dusro ko sweekarne ki kubbat hi nahi rakhteagar unki or dekhenge to tumhari delhi tum hi sawaaron ka hi khayal aayega magar phir bhi hum apna karz to utarenge ....ye kahne se gurez nahi karna chahiye