आपको पता है कवि लोग किसे देखकर सबसे ज्यादा खुश होते हैं। पैसा छोड़कर, वो तो पागल भी खुश होता है। हमारे कल्पनिया साथी कहेंगे फूल, पौधे, झरना या फिर स्त्री। अरे नहीं जी सब गलत। मैं बताता हूं- भीड़ देखकर कवि सबसे ज्यादा खुश होता है। भीड़ अगर मिल जाए तो बाकी फीकी। यू नो ड्राई-ड्राई।
हुआ यूं कि बहुत दिनों बाद कल यूनिवर्सिटी में भसर समाज बैठे भसोड़ी करने। भसर माने बिना मतलब की बात करने, खालिस मजा के लिए । ये अलग बात है कि उसमें कोई मतलब की बात निकल आए। तो मैंने सोचा कि इसमें क्यों न कुछ जेएनयू के मारे लोगों को भी शामिल कर लिया जाए, सो पहुंचे वो भी। एक भसोड़े की बात पर हमलोग अभी मन भर हंस भी नहीं पाए थे कि जेएनयू वाले भाई साहब ने कहा कि अजी हमें भी कुछ भसोड़ने दें, सो दे दिया. पहले वाले भाई साहब ने कहा कि मैं तो ऐसे साहित्यकारों, कहानीकारों को जानता हूं जो पेशे से तो अपने को प्रगतिशील मानते हैं लेकिन रोज सुबह-सुबह चटाई बिछाकर हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं, नियमित। हमने कहा, अजी अब स्टिंग मत करने लग जाइए। भसोड़ी करने आएं हैं मन भर कीजिए लेकिन कीचड़ कोडने का काम मत करिए. लेकिन बिना दूसरों की शिकायत किए और लिए-दिए बिना भसोड़ी कैसे संभव है, सो सिलसिला जारी रहा।
ये जेएनयू वाले भाई साहब अब डीयू की सेवा दे रहे हैं लेकिन अभी तक जेएनयू की यादें गयी नहीं है, सो सुनाने लगे।
अभी-अभी पढ़ा, शायद रवीश कुमार की पोस्ट पर किसी ब्लॉगर साथी ने टिप्पणी की थी कि- दस कवियों से ज्यादा अकेला माईकवाला माल ले जाता है। अब हम बोलें, तब भी हर आदमी कवि होने से ज्यादा कहलाने के लिए जान दिए जा रहा है। अच्छा कवि सम्मेलनों के बारे में ये बात भी फेमस है कि कई बार तो अंत में केवल माईक दरीवाला ही सुनने, सॉरी समेटने के लिए बचता है।
तो ये सब फीडबैक लेकर जेएनयू के बंदों ने एक बार कवि सम्मेलन करवाया। और ऐसे कवि को बुलाया जिसे पढ़ा जाता है, सुनता-बुनता कोई ज्यादा नहीं है। अब बंदा जो लानेवाला था, चाह रहा था कि खूब भीड़ जुटे। आखिर बात उसकी इज्जत पर आ गयी थी। सो सोचा कि कुछ न कुछ तो करना ही होगा। और वैसे भी जेएनयू का है कुछ न कुछ नहीं करेगा तो फिर सरवाइव कैसे करेगा। सरवाइव माने खाने-पहनने के लिए नहीं, जेएनयू वाला कहलाने के लिए। बंदे ने तरकीब भिड़ायी।
किया क्या कि उसने पोस्टर चिपकाया ये बोलकर कि पहले एक सिनेमा दिखाया जाएगा और उसके बाद कवि की कविता। उक्त दिन छोटे से हॉल में भीड़ ठसाठस। चूंटी रेंगने की जगह नहीं। कवि आया फिल्मवाले सेशन में ही औऱ चारो तरफ गौर से देखा। इतनी भीड़ कविता के लिए उसने अपनी लाइफ में कभी न देखी होगी। मारे खुशी के गदगद। मन बना लिया कि लानेवाले बंदे को कम से कम एडॉक में लगवा देगा। बार-बार पुलक रहा था और अचकननुमा कुर्ता ठीक कर रहा था। कवि के लिए जेएनयू का इंटल चारा और क्या चाहिए भला।
इधर माइक पर अनाउंस हुआ कि प्रोजक्टर खराब हो गया है, कुछ वक्त दीजिए और ऐसा करते हैं कि समय क्यों बर्बाद करें( आपका, अपना तो चलेगा) कविता ही सुन लिया जाए। कवि महोदय उत्साह के साथ शुरु हो गए। इधर दर्शक ( फिल्म के हिसाब से सोचें तो वैसे अभी के श्रोता) ने गरियाना शुरु कर दिया- स्साले बुलाया था सिनेमा दिखाने और अब यहां झंड कर रहा है। लेकिन करे तो क्या करे, भागने लायक जगह भी नहीं और फिर झाड़-झंखाड लांघ कर आएं है तो तो बिना देखे कैसे चले जाएं। कवि ने प्रोजेक्टर ठीक होने तक कविता सुनाई और दर्शक खत्म होने के बाद तक गरिआया।
कवि ने भीड़ की प्रशंसा में किसी पत्रिका में एक लेख लिखा कि उसकी कविता सुनने कितने लोग आए थे। और दावा करने लगे कि कौन कहता है कि जेएनयू में कविता के कद्रदान नहीं हैं भाई।
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http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_11.html?showComment=1200031440000#c863377468572953529'> 10 January 2008 at 22:04
जेएनयू जिंदाबाद
http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_11.html?showComment=1200034920000#c8356183329827732455'> 10 January 2008 at 23:02
बहुत बढिया. निचोड़ तो उपर वाली पंक्ति ही मान लिया मैंने.
साथ में एक सवाल विनीत भाई, कवि का पहला शिकार कौन होता है? बताइएगा.
सलाम
http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_11.html?showComment=1200055920000#c6389825430885950138'> 11 January 2008 at 04:52
भीड़ देखकर तो सारे सेलिब्रेटी खुश होते हैं , भला कवि क्यों न हो ?
http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_11.html?showComment=1265130383064#c1445902450830805682'> 2 February 2010 at 09:06
का बात है साहेब। आनंदम् आनंदम्