या तो अदरक, मूली बेचो या न्यूज

Posted On 08:57 by विनीत कुमार |

न्यूज चैनलों में न्यूज के नाम पर आप औऱ हम जो कुछ भी देख रहे है, दरअसल वो न्यूज है ही नहीं। विश्वविद्यालय की भाषा में कहें तो कूड़ा है। एकाध चैनलों को छोड़ दिया जाए तो बाकी के चैनल न्यूज के नाम पर फकैती करते हैं। औऱ फिर आम दर्शकों से भी बात करें तो वो भी उब चुकी है, स्टिंग के नाम पर खबरों को झालदार बनाने के तरीके से। दूरदर्शन का मारा दर्शक जाए भी तो कहां जाए। अब जरुरी तो नहीं कि सबको बाबा के नाक में वनस्पति उगनेवाली स्टोरी में मजा आए और रुचि बनी रहे। और कुल मिलाकर देखें तो चैनल भी इस बात को तरीके से समझने लगी है कि हम जो कुछ भी दिखा रहे हैं, उसके प्रति दर्शकों की विश्वसनीयता कमती जा रही है। कम से कम थोड़े -पढ़े लिखे लोगों के बीच तो ये बात लागू होती ही है। इसलिए आप देखेंगे कि जब भी कोई नया चैनल लांच होता है तो उसमें दो बातें जरुर बताते हैं ।
पहला तो ये कि क्या-क्या न्यूज नहीं है और दूसरा कि क्या-क्या न्यूज है।अच्छा ये बतानेवाले कौन होते हैं। वही जो कल तक वो सब न्यूज के नाम पर दिखा रहे थे और असरदार, धारदार होने का ढोल भी पीट रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने चैनल बदला। बीबी- बच्चों की खातिर थोड़े और पैसे के लिए किसी और या नए चैनल में गए, सामाजिक जागरुकता या फिर न्यूज सेंस की बात अचानक याद हो आयी। वे रातोंरात खबरों की दुनिया के अवतारी पुरुष हो गए। ऐसे में आइएमएमसी या फिर जामिया मीलिया की पढाई कि मीडिया मिशन है, काम आ जाती है। और उन्हें ये सब बताने में अच्छा भी लगता है कि रोजी-रोजी के साथ हमारे सोशम कमिटमेंट भी है।
भले ही कोर्स खत्म होने या फिर चैनलों काम करते समय अध्यापकों को गरियाते हों कि बेकार में खूसट मास्टर मीडिया के नाम पर नैतिकता की घुट्टी पिलाता रहा, स्क्रिप्ट लिखना बता देता तो फायदा भी होता। लेकिन चैनल बदलते समय मास्टर साहब के उस एप्रोच को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते।
आप खुद ही देखिए न, लाइव इंडिया में कई वही पुराने चेहरे। सांप-सपेरे, भूत-प्रेत की स्टोरी बनानेवाले अभ्यस्त लोग औऱ यहां आकर बार-बार विज्ञापन- अनजिप दि ट्रूथ की। और तो और ये भी बता रहे हैं कि १८५७ में देश का अंग्रेजों के प्रति पहला विद्रोह, १९४७ में देश आजाद और २००७ में लाइव इंडिया। यानि लाइव इंडिया का आना एक ऐतिहासिक घटना है। और देश की आजादी के वे सारे मूल्य इसमें भी शामिल हैं।
इधर न्यूज २४ में देखिए। आधा से ज्यादा चेहरे आजतक के। ऐसे चैनल के जिसने अब तक दो ही दावे किए हैं- एक तो सबसे तेज होने की और दूसरा सर्वश्रेष्ठ होने की। अब जो भाई वहां से काम करके न्यूज २४ में आए, उनका कहना है कि नेताओं का हर बयान खबर नहीं होती जो कि कल तक हर नेता के बयान को खबर बनाते आए हैं। और भी अलग-अलग बीट के लिए अलग-अलग नारे। भाई साहब आपको पता है कि क्या खबर है और क्या खबर नहीं है तो फिर अब तक आप जनता को मामू बना रहे थे। अच्छा आजतक सबसे तेज होने के चक्कर में सबकुछ दिखाता है। आप जब ये कह रहे हैं कि सबकुछ खबर नहीं होती तो आप हमें ये बताना चाह रहे हैं कि आजतक में या फिर दूसरे चैनलों में फिलटरेशन का काम नहीं होता। यानि आप अपने को सबसे अलग बता रहे हैं औऱ दावा कर रहे हैं कि न्यूज इज बैक। ये हमारे साथ अक्सर हुआ करता है, जब भी बनियान खरीदने जाता हूं। दुकानदार का सवाल होता है कि आपको बनियान में सफेदी चाहिए या फिर आरामदायक। सफेदी के लिए रुपा और आराम के लिए कोठारी। देखिए बनियागिरी, दोनों का विज्ञापन और उसका काट एक साथ। आप हमें ये बता रहे हैं कि न्यूज चाहिए या फिर न्यूज के नाम पर कूड़ा।
अच्छी बात है आप सरस्वती जैसी लुप्त हुए न्यूज को फिर से वापस ला रहे हैं और बता रहे हैं कि असली न्यूज तो आप देख ही नहीं पा रहे हैं। लेकिन जनाब आप हमें ये बताएंगे कि आपका ये जो दावा है उसके पीछे कोई रिसर्च भी है या फिर पैकेज के चक्कर में संतवाणी दिए जा रहे हैं। साहब आप पढे-लिखे लोग हैं, अदरक, मूली की तरह चैनलों का विज्ञापन क्यों करते हैं। अगर आप ये मानकर चलें कि दर्शकों के पास भी थोड़ा दिमाग है तो इसमें आपको क्या भारी नुकसान हो जाएगा। अबतक के कुछ चैनल तो जनता की रही-सही मति-बुद्धि को हर ही ले रही है औऱ आप भी हमरे साथ वही कीजिएगा तो बढा हुआ पैकेज हक नहीं लगेगा।
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4 Response to 'या तो अदरक, मूली बेचो या न्यूज'
  1. जेपी नारायण
    http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_03.html?showComment=1199340360000#c1150718282146121383'> 2 January 2008 at 22:06

    ...बिल्कुल ठीक कहा आपने, प्रिंट मीडिया तो और ज्यादा.... यहां मूली अदरक की बजाय घास-लकड़ी बेंचने का मन होता है।

     

  2. आशीष
    http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_03.html?showComment=1199342100000#c5077063729008490228'> 2 January 2008 at 22:35

    समझ में नहीं आ रहा है विनीत जी कि हम जा किधर रहें, यदि ऐसे ही चलता रहा तो लोग जूते मारेंगे हमे, खैर विनीत जी क्‍या आप बोल हल्‍ला ब्‍लॉग के लिए कुछ लिखना पसंद करेंगे
    आशीष महर्षि

     

  3. mamta
    http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_03.html?showComment=1199343840000#c5296317882304650600'> 2 January 2008 at 23:04

    आपने बिल्कुल सही कहा है। वैसे भी आज कल तो हर रोज ही ये न्यूज़ रीडर चैनल बदलते रहते है । आज इस चैनल पर तो कल किसी और चैनल पर।

     

  4. अनुनाद सिंह
    http://test749348.blogspot.com/2008/01/blog-post_03.html?showComment=1201414980000#c3760439660325253811'> 26 January 2008 at 22:23

    बहुत सही बात पकड़ी है। अच्छा विश्लेषण है।

     

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