सुबह उठते ही खुराफाती नितिन ने बताया कि आज रेडियो डे है। चिपक के बैठिए क्योंकि आज हम आपको मिलवाएंगे, फादर ऑफ दि इंडियन रेडियो, अनीन सयानी से। नितिन बार-बार चिपक के बैठने की बात कर ही रहा था कि मैं कहीं और चला गया, कुछ और ही सोचने लगा और जब रहा नहीं गया तो ब्लॉग लिखने बैठ गया।
रेडियो के साथ मेरी यादें बडे ही अलग ढंग से जुड़ी है। मुझे याद है छुटपन में मैं हवामहल खूब सुना करता था और वो समय पापा के घर आने का होता था। अक्सर लाइट नहीं होती थी और दरवाजा खोलने जाने के लिए टार्च का होना जरुरी हो जाता था। लेकिन टार्च की बैटरी मैं रेडियो में डाले रहता।...पापा के जैसे-तैसे घर के अंदर पहुंचने के बाद वो सबसे पहले मेरे उपर से रेडियो का भूत उतारने का काम करते थे। अंधेरे में अक्सर चोट खा जाते। मार खाकर थोड़ा सुधरता कि इससे पहले ये समझने लगा कि पापा को इस तरह रेडियो सुनने से खुन्नस होती है तब तो हवामहल सुनने का काम डेली रुटीन में शामिल हो गया। हवामहल सुनने से ज्यादा मजा पापा के झल्लाते हुए देखने में आता था।
स्कूलिंग के बाद लम्बे समय तक घर से अलग और अकेले रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। घर से निकलते समय टार्च की दोनो बैटरी निकालकर रेडियो में डाल दिया। पापा जबरदस्त ढंग से सेंटी हो गए और रेडियो जिसे कि बाजा कहा करते थे, मुझे दे दिया। अकलेपन में रेडियो को गर्लफ्रैंड का दर्जा दिया और ग्रेजुएशन तक गले लगाए रखा।
एम.ए. करने जब दिल्ली आया तो बाकायदा एक पेपर रेडियो पर ही पढ़ना था। लेकिन थोड़ा बोरिंग था, कुछ-कुछ इतिहास और फिजिक्स जैसा, जिसमें कि शुरु से ही अपने हाथ तंग थे। इतने डेट्स याद करने होते कि कब कहां और किसके सौजन्य से रेडियो स्टेशन स्थापित किए गए। तब सिलेबस तैयार करने वालों को खूब गरियाता कि स्साले ये सिलेबेस ऐसे डिजाइन करते हैं कि बढिया से बढिया टॉपिक का नरक कर देते हैं, पढ़ने की इच्छा मर जाती है। ऐसा लगता कि गर्लफ्रैंड से बतियाने के पहले उसके गांव की भौगोलिक स्थिति के बारे मे जानने की शर्त रख दी गयी हो। अपने शाप से एक-दो मास्टर अब रिटायर भी हो गए।
एम.फिल. रिसर्च का टॉपिक एफ.एम. चैनलों पर ही ले लिया। सारा झंझंट ही खत्म। टॉपिक पास होने के पहले एक छोटा-सा इंटरव्यू भी हुआ। टॉपिक सुनकर सारे लोग ठहाके लगाने लगे। मैं थोड़ा रुआंसा हो गया लेकिन बाद में मीडियावाली मैडम ने सब संभाल लिया। गाइड से मिलता अक्सर पूछते- क्यों भइया रेडियो तो सुन रहे हो, सुनते हो न। मैं हांजी, हांजी करके मुस्करा देता। बाद में मामला यहां भी थोड़ा भारी पड़ गया। सरजी ने कहा, ऐसा करो दो-तीन बार सारे एफ.एम.चैनलों को लगातार चौबीस घंटे तक सुनो, देखो कैसा लगता है। शुरु में तो रात के दो बजे तक बहुत नींद आती और इस चक्कर में रिकार्डर की चोरी हो गयी। डूसू इसेक्शन का समय था और कोई भी टीवी रुम में आ जाया करता। खैर, रातभर जूस और पानी पीकर रेडियो सुनता। अब कोई हजार रुपये दे तो ये न हो सकेगा। लेकिन याद करता हूं तो बहुत मजा आता है सबकुछ सोचकर। सारे एड और जॉकिज के पेट वर्ड याद हो गए थे, हमेश मौज में रहता।
बार-बार आकाशवाणी भवन भी जाता, कुछ लिटरेचर जुटाने। एक झाजी ने बड़ी मदद की थी उस समय, अपनी तरफ का बोलकर। थीसिस लेकर जब उन्हें दिखाने गया तो उन्होंने पूछा था कि आपको कैसा लगा यहां आकर। मैंने कहा था माफ कीजिए, यहां आकर लगता है कि मैं झारखंड के कोयला विभाग में आ गया हूं, जहां ट्रक पर माल लोड होने और बाबूओं की कंटीजेंसी का बिल बनाने का काम होता है। यहां कभी नहीं लगता कि मैं रेडियो स्टेशन आया हूं। उसके बाद उनके पास जाना नहीं हुआ।
इस बीच मेरे एक दोस्त ने जेएनयू के एक मास्टर साहब से मेरा परिचय कराया। मास्टर साहब ने गाइड सहित मेरा टॉपिक पूछा और कहा कि अच्छा है अब बाजा पर भी काम शुरु हो गया है। झारखंड में तो ये बात फैल गयी थी कि फलां बाबू का लड़का भडुआगिरी पर रिसर्च कर रहा है।
थीसिस पर इंटरव्यू लेने आए थे अपने हास्य कवि अशोक चक्रधर। पूछने पर वो सबकुछ बताया जो मैं बताना चाहता था। अंत में उन्होंने कहा कि कुछ मजेवाली बात सुनाओ और तब मैंने कई विज्ञापन सुनाए और अंत में थोड़ा कैजुअल होने पर बताया-
सरजी, रेडियो सुननेवाले ऑल्वेज खुश
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विनीत भाई रेडियो हमारे जीवन की सतत उपस्थिति रही है । रेडियो से जुड़ी आपकी यादें काफी रोचक हैं ।
क्या आप रेडियोनामा में शामिल होना चाहेंगे । कृपया रेडियोनामा पर पधारें और देखें कि रेडियो प्रेमियों ने क्या महफिल सजा रखी है ।
radionamaa.blogspot.com
http://test749348.blogspot.com/2007/12/blog-post_11.html?showComment=1197353040000#c5923803392839581095'> 10 December 2007 at 22:04
बहुत बढिया लिखे भाई विनीत. अब न एफएम है, तब तो आकाशवाणी के पटना स्टेशन से रविवार को इन्द्रधनुष का ही इंतज़ार रहता था. याद है वो ठठेरी बाज़ार डुमरांव, और झुमरी तिलैया और तिरपोलिया से चुन्नु, मुन्नु, पिंकी, सिंकी और परिवार के लोगों के फरमाइश कितने आते थे. ये ठठेरी बाज़ार डुमराव वाले तो मेरे हिसाब से एक शोध का विषय हैं. हर फरमाइश में उनका नाम शामिल होता है.
मेरे स्कूल के बग़ल में तो बाक़ायदा एक रेडियो श्रोता संघ का बोर्ड टंगा था. आपकी पोस्ट उन सारी बातों की याद ताज़ा करा गयी.
कोई चाहे तो इसे और आगे बढाए.
http://test749348.blogspot.com/2007/12/blog-post_11.html?showComment=1197353220000#c5710024052238427442'> 10 December 2007 at 22:07
vaah bahut achha varnan.
http://test749348.blogspot.com/2007/12/blog-post_11.html?showComment=1197365760000#c7737712138223483539'> 11 December 2007 at 01:36
बहुत खूब लिखा
हवामहल सुनने से ज्यादा मजा पापा के झल्लाते हुए देखने में आता था।
और सरजी, रेडियो सुननेवाले ऑल्वेज खुश
बहुत खूब