जेएनयू पर पोस्ट लिखने के बाद पहली बार जाना हुआ जेएनयू। मन तो बिल्कुल भी नहीं था लेकिन दोस्तों के बार-बार बुलाने और इस उत्सुकता से कि देखें क्या राय बनी है लोगों को मेरे बारे में, मैं चला गया। मुझे चलते समय इस बात का भी डर था कि चुनावी महौल है वहां, हमें खूब पकाया जाएगा, जहां कुछ बोला कि जो हमारे मित्र हैं तुरंत सावरकर की किताब लेकर चढ़ जाएंगे मेरे उपर कि आपलोगों तो साफ ही देशद्रोही आदमी हैं, आपको तो अधिकार ही नहीं है भारत की पवित्र भूमि पर रहने और पीएच.डी. करने का । लेकिन ये भी कन्फर्म है कि वो हमारा शारीरिक नुकसान कभी नहीं पहुंचाएंगे, जब बहुत बहस होने लगेगी तो साफ कहेंगे कि- छोड़िए न महाराज नौकरी लीजिए और अपना-अपना घंटा हिलाने दीजिए लोगों को हमें क्या करना है विचारधारा पेलकर।
अबकी तो हद हो गयी, लोग पहले से ही तैयार थे, मूड में थे कि ढ़ंग से लेनी है इस बार इनकी। ऐसी लो कि ये हाय-हाय करके बोलने लगें कि आप हमसे कुछ खा-पी लीजिए लेकिन ऐसे कुत्तों की तरह मत झोला कीजिए। कुछ के लिए मैं रिहर्सल इनपुट के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता हूं कि लगाओ खूब लेफ्ट पर आरोप, गरियाओ दमभर लेफ्टिस्ट नेताओं को औऱ देखों कि ये क्या-क्या काउंटर सवाल करते हैं, उस हिसाब से अपने को तैयार कर लेंगे। मैंने भी पैतरा बदल लिया, वो गरियाते जाते और मैं थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ कहता कि आपका कहना बिल्कुल सही है,बस थोड़ी भाषा सुधार लें लगे कि आप जेएनयू से पीएच.डी. कर रहे हैं। बाकी आप बात लॉजिकली कर रहे हैं। मित्र को बड़ा झटका लगा। बोले, महाराज आपका लेफ्ट से मोहभंग तो नहीं हो गया है आप मेरी हर बातों का समर्थन कर रहे हैं,पहले तो आप एकदम से लड़ जाते थे। वैसे आप समय रहते ठीक ही किए। इस बार आपके यहां लेफ्ट वालों की हालत ठीक नहीं हैं। मेरे राइटिस्ट हो जाने की गलतफहमी मित्र को वैसे ही हो गयी जैसे एम.फिल्. में मेरी एक दोस्त को लेफ्टिस्ट हो जाने की हुई थी। तब उसने कहा था कि ली मेरेडेयिन के सामने मिलते हैं हमलोग,अगले सप्ताह। जैसे मेरे मित्र ने कहा इस बार कि चलिए अब तो झंडेवालान में अक्सर मिलना होगा अपना। एम.फिल् में लेफ्टिस्ट होने का केस ये था कि दूसरे पेपर में हमलोगों को दुनिया के प्रमुख विचारधाराओं के बारे में पढ़ना होता था जिसमें मार्क्सवाद भी शामिल था। उस दोस्त से मैंने कुछ किताबें ली थी पढ़ने के लिए और वो बार-बार कहती रख लो मैं दूसरी खरीद लूंगी और मैं उसके पैसे दे दिया करता। धीरे-धीरे वो पार्टी के पैम्पलेट्स भी देने लगी और कहती इससे भी तुम्हें आइडिया मिलेगा। मैं भी सब पढ़ जाता। अब उसे यकीन होने लग गया था कि मैं जल्द ही कार्ड होल्डर हो जाउंगा। यानि मार्क्स पढ़ने पर आप मार्क्सवादी हो जाएंगे और उसका सीधे-सीधे विरोध नहीं करने पर आप राइटिस्ट, ये समझ पूरी तरह विकसित हो चुकी है। सो मेरी साथी और मेरे मित्र ने ऐसे ही मुझे डील किया। लेकिन मित्र के दिमाग में अब भी दुविधा बनी हुई थी, सो लिटमस पेपर की तरह गाइड वाला मुद्दा फिर से छेड़ दिया और मैं एकदम से भड़क गया। मित्र को समझ आने लगा था कि ये बदले नहीं हैं अभी तक, कुढ़ कर बोले अच्छा आप ब्लॉग लिखने लगे हैं न तो सोचते हैं कि चुप रहकर जितना मसाला मिल जाए ले लो, बहसे में अपनी बात लाना नहीं चाहते।
एक दूसरा जूनियर उत्साहित होकर नया ज्ञानोदय विवाद की किताबी शक्ल युवा विरोध का नया वरक लाया औऱ मोहल्ला की स्तुति करते हुए एकदम से बोला- आपलोग बहुत अच्छा कर रहे हैं भइया। इ मैगजीन छापने वाले लोग सोचते हैं कि कुछो छाप दो कोय कुछ बोलेगा ही नहीं, इ पते नहीं है कि हिन्दी समाज बहरा भले हो जाए गूंगा कभी नहीं होगा, कोय न कोय तो बोलेगा ही। आप कहां रह गए थे जब विवाद चल रहा था, आप भी कुछ ठोक देते। आप डरते हैं का कि बढ़िया-बढ़िया मैगजीन में नहीं छपेंगे तो इन्टल नहीं बन पाएंगे, हैं न। मैंने कहा- नहीं भाई जब ये विवाद चल रहा था मैं हिन्दी टाइपिंग सीख रहा था और जब सीख लिया तब तक विवाद किताबी शक्ल में आ चुका था। कोई बात नहीं भैय्या आपको कहीं छपने-छूपने की जरुरत नहीं है, आप ब्लॉग पर ही लेते रहिए।
एक भाईजी से अपनी बहुत शेयरिंग होती रही है। बनारस की लंका से लेकर जेएनयू के पारथसारथी हिल तक की लीला। अबकी बार उन्होंने कहा कि गुरु अब तो तुमको कुछ बताने में भी बहुत डर लगता है, पता नहीं कहां क्या लिख दो, बहुत कुछ है बताने को हिन्दी समाज और यहां के बारे में लेकिन लोग डॉट करने लगेंगे कि मैंने ही ये सब जानकारियां दी है।
कुल मिलाकर कहानी ये है साथी कि ब्लॉगर अपनी पहचान लोगों के बीच उसी तरह से बना रहा है जो रुतवा किसी जमाने में मट्टीमार पैंट पहनकर पत्रकारिता करने वाले लोगों की हुआ करती थी। यों समझ लो कि व्यवसाय और मैंनेजमेंट की शर्तों पर चलनेवाली पत्रकारिता के बीच ब्लॉग लेखन एक सच के रुप में, एक ताकत के रुप में अपनी पहचान बना रहा है। तो इसी बात पर जिस ब्लॉगर के घर में मिठाई के नाम पर जो कुछ भी है खा लो और कुछ नहीं है तो भइया चीनी से तो मुंह मीठा कर ही सकते हो।....
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2 Response to 'ब्लॉगर से चिढ़ते, कुढ़ते और डरते हैं लोग'
  1. Neelima
    http://test749348.blogspot.com/2007/10/blog-post_27.html?showComment=1193552760000#c3361677841852145968'> 27 October 2007 at 23:26

    बढिया लिखा है !अभी हमने नहीं महसूस किया कि ब्लॉगर से चिढते और कुढते डरते हैं लोग ! यहां भी लोगों की परवाह क्या करना ? और हां हिंदी विभाग की पोल पट्टी इतनी बेरहमी से मत खोलिए !:)

     

  2. राकेश
    http://test749348.blogspot.com/2007/10/blog-post_27.html?showComment=1193599980000#c2034048751846110211'> 28 October 2007 at 12:33

    "ब्लॉगर अपनी पहचान लोगों के बीच उसी तरह से बना रहा है जो रुतवा किसी जमाने में मट्टीमार पैंट पहनकर पत्रकारिता करने वाले लोगों की हुआ करती थी।"

    क्या ख़ूब कहा विनीत भाई! छा गए. पर एक ख़तरा है, हालत वही न हो जाए! पर एक बात फिर भी, जो भी हालत हो, अगर ब्लॉगर ऐसे ही लिखते रहे तो मुख्यधारा की मीडिया को भी समझ में कुछ न कुछ तो आएगा ही.

     

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