साहित्य की नकदी फसल

Posted On 03:18 by विनीत कुमार |

अब यह मानी हुई बात है कि जिस विधा या विचार का संरक्षक /पिता बाजार है वह विधा और विचार कभी अनाथ नहीं होंगे। लोग उसे खूब पुचकारेंगे, सराहेंगे औऱ "बाजार " की आदर्श संतान कहकर उसके जैसा बनने की कोशिश करेंगे। आदर्श संतान बनने की कोशिश अब हिन्दी साहित्य से जुड़े लोग लगातार कर रहे हैं। साहित्यिक मठों की अब तक की मान्यता रही है कि जो साहित्य बहुत पॉपुलर है, बहुत बिकाऊ है, वह घासलेटी साहित्य है और मठाधीशों की भाषा में इसके रचनाकार साहित्य के नाम पर बनियागिरी करते आए हैं। वे यूथभ्रष्ट रचनाकार हैं। उनके लिए बौद्धिक और साहित्य की दुनिया में प्रवेश निषेध होनी चाहिए। ऐसा करना तथाकथित मान्यता प्राप्त और स्थापित साहित्यकारों का पहला कर्तव्य है। इस पूरे विधान में मेरे हिसाब से खूब खपने, बिकने और पॉपुलर होने के बावजूद ये साहित्यकार कहलाने के लिए छटपटाते रहे।....और दूसरी तरफ मान्यता प्राप्त साहित्यकारों से गुहार लगाते रहे कि भइया मान जाओ..जरा थोड़ा-थोड़ा डोल जाओ और हमें भी बौद्धिक दुनिया में जगह दे दो।....लेकिन विधि का विधान..ये गंभीर साहित्यकार जो कि होने के लिए जरुरी है, नहीं माने।समय बदला, देवदास उपन्यास पर ऐश और शाहरुख की तस्वीरे छपीं और अब कामायनी, कनुप्रिया का आर.आर.पी. (रीडर्स रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने के लिए एक चर्चित स्तंभकार ने मल्लिका की तस्वीर छापने का सुझाव रखा तो महाशय बिलबिला उठे और एक पत्रिका के माध्यम से फ्रशट्रेशन विमर्श ही चला डाला। ........इधर तथाकथित घासलेटी साहित्यकारों को नया मंच मिला।..बाजार नाम की एंटीबॉयोटिक से हिन्दी की कुंठा दूर हुई और हिन्दी जगत में साहित्यकार कहलाने की छटपटाहट भी जाती रही।....इस छटपटाहट की काफी हद तक शिफ्टिंग हुई है। अब छटपटाहट है और पॉपुलर होने की, बिकने की और खपने की । और वैसे भी साल-डेढ़ साल में कोई बंदा '"ग्रेट इंडियन" कहलाने लगे, उसके लिए टेलीविजन, बाजार और जनता जब पलकें , प्लेटफार्म, स्टेज और टेन्ट लगाए -बिछाए रहे तो फिर चिंता किस बात की है। तब क्यों चाहिए साहित्यकार का तमगा ? और तब कोई क्यों न करे साहित्य की नकदी फसल उगाने की दिहाड़ी कोशिश। कोई लाख चिल्लाते रहे कि - ये साहित्य नहीं है, धोखा है , प्रवंचना है, असली के नाम पर अश्लीलता है, भाषाई खिलवाड़ है, बंद करो ये सब ...मैं इसका विरोध करता हूं।कीजिए विरोध, जमकर कीजिए ....मैं भी देखता हूं कि हवाई यात्रा, लम्बी कारों और "जांचा-परखा" भोजन से आप अपने आपको कब तक दूर रख पाते हैं, कौन सी विचारधारा आपको बांध पाती है ? मान्यता प्राप्त साहित्यकारों की नजर में भले ही ये भौंडापन है लेकिन यकीन मानिए साहित्य और दिल-दिमाग खोल देने की रेंज और वैराइटी इनके पास है, ये कभी मात नहीं खाएंगे। पंच सी ( क्रिकेट, क्राइम, सिनेमा, सिलिब्रिटी और समारोह) पर भरपूर आइटम है। पत्नी पर है, पॉलिटिक्स पर है, प्रेमी पर है, इश्क पर , इतंजार पर.....मतलब किस पर नहीं है ? यानि साहित्य की नकदी फसल के लिए "बहुफसली कृषि "। और खास बात है कि सबकुछ में मजा, हंसी- ठहाके यानि खालिस मनोरंजन। अब आप ही बताइए पॉपुलर जनता के पॉपुलर मूड को कहां से रास आएगा ....आदर्श जड़ित बोर, थकेला और कोरे सिद्धांत से लदा-फदा साहित्य...वो साहित्य जो अंगूठी के चक्कर में हाथ काटकर झोला रख लेने वाले समाज को अब भी त्याग और संतुलन का पाठ पढ़ाने में लगा है।.....जनता तो भागेगी ही, चटपटे चूरन साहित्य की तरफ।
मठों द्वारा मान्यता प्राप्त साहित्यकारों के मन में उम्मीद की एक किरण पाठक है। इनका मानना है कि - अजी चलिए, आपके तो पाठक-श्रोता "रिलॉयवल" नहीं हैं, घंटे- आध घंटे हंस भी लें , टी.आर.पी. बढ़ा भी दें तो भी लम्बे समय के लिए "आस्वाद का संस्कार" ग्रहण नहीं कर पाएंगे और फिर इनका कोई क्लास है ....ये तो मात्र "मास" हैं, एक दूसरे से अपरिचित और इनका दिमाग भी तो फाजिल है।
इन्टर्नशिप के दौरान सबसे तेज चैनल के कार्यक्रम "हंसोड-दंगल" के ऑडिशन के लिए जाना हुआ। करीब सवा सौ से ज्यादा लोगों ने ऑडिशन दिया। अगर सुविधा के लिए इन्हें पांच वर्गों में बांट दिया जाए तो लॉफ्टर चैलेंज के प्रत्येक परफार्मर के ऊपर 20-25 बैठेंगे। यानि प्रत्येक 20-25 लोग उनके कलाकारों की तर्ज पर अपने को प्रस्तुत कर रहे थे। ये आंकड़ा है एक कार्यक्रम का, एक शहर का। बाकी पर भी सर्वेक्षण संभव है। इस तरह से एक पूरी की पूरी पीढ़ी है जो कविता रचना और नकदी साहित्य पर आधारित "रियलिटी शो" के हिसाब से अपने को तैयार कर रही है।.....अब आप ही बताइए जनाब कि क्या इनका कम प्रभाव है ? बल्कि अब तो ये आपको ही नसीहत देने को मूड़ में हैं कि कहां कॉलेजों के तिकड़मों और विश्वविद्यालयों की पॉलिटिक्स में फंसे हो भइया....कुछ क्रिएटिव करो, कुछ मतलब का लिखो। यू नो समथिंग टची .....जिससे तुम्हारा फ्रशट्रेशन भी जाता रहेगा और माल भी आता रहेगा।
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4 Response to 'साहित्य की नकदी फसल'
  1. राकेश
    http://test749348.blogspot.com/2007/09/blog-post_4921.html?showComment=1190044020000#c6895665159097791893'> 17 September 2007 at 08:47

    विनीतजी

    चिट्ठीकारी की दुनिया में आपका स्वागत. वैसे यहां तो बड़े-बड़े घाघ बैठे हैं उनके आगे मैं आपके स्वागत की हिमाकत कर रहा हूं. अच्छा है अब इधर-उधर करने वालों को साथ मिलकर रगड़ेंगे.


    बधाई

     

  2. विनीत कुमार
    http://test749348.blogspot.com/2007/09/blog-post_4921.html?showComment=1190098680000#c3782982950045601721'> 17 September 2007 at 23:58

    बिल्कुल

     

  3. मसिजीवी
    http://test749348.blogspot.com/2007/09/blog-post_4921.html?showComment=1190111040000#c706397954043543728'> 18 September 2007 at 03:24

    प्रिय विनीत ,
    लो अब 'घाघ' से भी स्‍वागत करवा लो :)

    स्‍वागत है।

     

  4. विनीत कुमार
    http://test749348.blogspot.com/2007/09/blog-post_4921.html?showComment=1190134860000#c8765668332611568169'> 18 September 2007 at 10:01

    सरजी आप तो शक्ल से ही सचमुच घाघ लगते हो..यकीन मानो शक्ल बताता है कि साहित्य खूब छानकर पढ़े और वैसे भी प्रोफेसर आदमी ठहरे, बीच-बीच में घूमते रहिएगा मेरे यहां....

     

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